“नरेन्द्र
दाभोलकर की हत्या पर राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए पीछे खड़े ये एनजीओ कारोबारी
अक्सर हिन्दू एक्टिविस्ट्स की सरेआम हत्याओं पर अपने होठ सिलकर रखते हैं।”
दोगली
राजनीति, स्वार्थजनित पत्रकारिता में महारत
हासिल आशीष खेतान का नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या के मामले में ‘सनातन
संस्था’ को आरोपी सिद्ध करने के लिए यूं जुट
जाना एक आम बात ही है, क्यूंकि ऐसा कर खेतान अपने आप को सनातन
विरोधी, विदेशी चंदे पर पनपे ‘रेशनलिस्म’ के
कथित कारोबारी एनजीओ के हमदर्द पैरोकार ही साबित कर रहे हैं। लेकिन इस बार आशीष
खेतान और आम आदमी पार्टी का सनातन पर आरोपों के मद्देनजर हिन्दूवादी संस्थाओं को
कटघरे में रख बीजेपी को घेरने की कवायद खूब सोची भली है। जाहिर है कि गोवा
विधानसभा चुनाव आगे खड़ा है।
रोहित
वेमुला, जेएनयू प्रकरण, दादरी
हत्याकांड में दूषित मजहबी राजनीति करने, दिल्ली
में कतिपय मंत्रियों-विधायकों के रेप और भ्रष्टाचार में लिप्त होने, जनता
के पैसों को विज्ञापनों में स्वाहा करने और प्रधानमंत्री के खिलाफ अपशब्दों का
प्रयोग इन सब के आलावा आशीष खेतान और उनकी पार्टी ने किया क्या है? अब
यदि वे सोचते हैं कि क्रिश्चियन अल्पसंख्यक गोवा में पोलिटिकल डिवाईड की लाइन पर
हिन्दू-दुहाँत वाले मुद्दों से, जहाँ प्रदेश सरकार बचाव की मुद्रा में
रही है, उनका राजनैतिक अभिर्भाव हो सकता है तो
उनका सनातन को निशाना बनाना लाजमी है।
क्रिश्चियन
धर्मावलम्बी आशीष खेतान का हमेशा से क्रिश्चियन धर्मादा संस्थाओं के
रिप्रेजेंटेटिव होना, मालेगांव और गुजरात प्रकरणों में कथित
मानवाधिकारवादियों के साथ मिलीभगत से मुस्लिम तुष्टिकरण, देश-तोड़ने
वाले अल्ट्रा-कामरेड्स के साम्यवादी सोच से संक्रमित संगठनों से सांठ-गांठ, चुनिन्दा-पसंदीदा
भ्रष्टाचार के मुद्दों को लेकर आरोप वाले स्टंट –ये
सब पहलू हैं जिनके इर्द-गिर्द आशीष खेतान का छद्म-एक्टिविज्म और आर्थिक लाभ वाली ‘खास’ पत्रकारिता
केन्द्रित रही है।
आम
आदमी पार्टी आज देश में राजनैतिक अस्थायित्वकरण का पर्याय बन चुकी है जो लोकतंत्र
के सिद्धांतों को धता बताकर, मीडिया के स्वछन्द-वर्ग के सामंजस्य से
देश के वैचारिक परिप्रेक्ष्य को फिजूल के विषयों में उलझा कर रखी हुई है तो ऐसे
में भारत को ‘धार्मिक संकीर्णता’ के
रंग में पोतने वाली, दूर-देश में बैठी सिविल सोसायटी और
मानवाधिकारवादी लीग द्वारा स्थानीय एनजीओ को आर्थिक मदद भेजने के पीछे निहित कारण
क्या हैं ? फिर किसी से भी दबे छिपे नहीं रह जाते
क्यूँ कि आम आदमी पार्टी जैसे राजनैतिक दलों की आधारशिला इन्हीं ऐसे ही
छद्म-पत्रकारों, कथित मसिजीवियों, नकाब
ओढ़े एनजीओ एक्टिविस्टों, देश-तोड़ने वाले सेक्युलर उदारवादी
शुभ-चिंतकों द्वारा रखी जाती है।
हिन्दू
संस्थानों के खिलाफ जाँच एजेंसियों का बेजा प्रयोग –
‘मानवाधिकार’, ‘सामाजिक
न्याय’, ‘रेशनालिस्म’ जैसे
टैग्स वाले छद्म-एनजीओ के कर्त्ता-धर्त्ताओं का देश की राजनीती में उबाल लाने का
एक खास पैटर्न है। जाहिर है कि ऐसे एनजीओ-कारोबारियों द्वारा प्रकरण और दुर्घटनाओं
को कैसे साम्प्रदायिकता का चोला पहनाया जाये? इसकी
भरसक कोशिश की जाती है। तमाम छाती कूटने वाले ऐसे लीग हिन्दू आतंकवाद, हिन्दूकट्टरपंथ
के नाम पर सरकार और प्रशासन पर अपने विरोधियों पर कार्यवाही करने का दबाब डालते
हैं और जाँच प्रक्रिया को प्रभावित करने की जुग्गत करते हैं। ऐसे में सनातन संस्था
जैसे हिन्दूअधिकारवादी संगठन क्यों न पिसें ? अभी
बीते कल की ही बात है कि मालेगांव ब्लास्ट केस में साध्वी प्रज्ञा, कर्नल
पुरोहित समेत तमाम अभियुक्तों के खिलाफ एनआईए जैसी भरोसेमंद जाँच एजेंसी का बेजा प्रयोग
हुआ और किस तरीके से राजनैतिक दखलंदाजी के चलते महाराष्ट्र एटीस ने झूठे सबूतों को
गढ़ा, यह एनआईए की अंतिम चार्जशीट में खुलकर आया। यह
बात सनातन संस्था उठा-उठाकर थक गयी कि निर्दोष हिन्दू कार्यकर्ताओं को बलि का बकरा
बनाया जा रहा है। किस प्रकार एटीस ने कर्नल पुरोहित के आवास पर आरडीएक्स के सैंपल
रखने का कार्य किया किया और कैसे एटीस अधिकारियों ने भोपाल में एक इंडियाबुल्स के
विमान का उपयोग कर कथित आतंकवादी को गिरफ्तार कर मुंबई लाने की एक झूठी कवायद
दिखाकर समीर कुलकर्णी नाम के निर्दोष शख्स को फंसाया, ऐसे
तमाम गोपनीय सबूतों को संस्था ने उजागर किया।
संस्था के प्रवक्ता अभय
वर्तक कहना है कि सरकारें बदलने के बावजूद भी संस्था के साथ हमेशा से ज्यादती होती
रही है। अब तक ८०० से भी ज्यादा संस्था
के साधकों के पूछताछ हो चुकी है, रात-बेरात जबरन तलाशी ली जा चुकी है।
यही
काम मडगांव ब्लास्ट केस में देखने को मिला जहां संस्था के साधक जबरन प्रताड़ित हुए
और बाद में कोर्ट द्वारा निर्दोष साबित हुए हैं। जब अगस्त २०१३
में नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या हुई सनातन संस्था ने खुद आगे आकर स्पष्ट कर दिया था
कि इस हत्या से उनका कोई लेना-देना नहीं है लेकिन फिर भी संस्था को केंद्र में
रखकर कार्यवाही हुई क्यूंकि संस्था ने दाभोलकर के दोहरे मापदंडों और इसी ‘रेशनलिस्म’ के
कारोबार को बेनकाब किया हुआ था। ठीक यही पानसरे हत्याकांड में देखने मिला जहां
कामरेड गैंग के दबाब में संस्था के खिलाफ केस तैयार करने के मद्देनजर ढेरों
कयासभरे सबूतों के आधार पर और दोनों घटनाओं में समानता ठहराकर समीर गायकवाड को
गिरफ्तार किया गया। संस्था के प्रवक्ता अभय वर्तक कहना है कि सरकारें बदलने के
बावजूद भी संस्था के साथ हमेशा से ज्यादती होती रही है। अब तक ८०० से
भी ज्यादा संस्था के साधकों के पूछताछ हो चुकी है, रात-बे-रात
जबरन तलाशी ली जा चुकी है। जब से दाभोलकर केस सीबीआई के आधीन हुआ तभी से संस्था
जाँच में सहयोग कर रही थी। यहाँ तक कि सीबीआई अधिकारी नंदकुमार नायर जिनकी पिछली
झूठी जाँच-पड़तालों के कारण मद्रास हाईकोर्ट सीबीआई के लिए अयोग्य ठहराने की
टिप्पणी कर चुका है, द्वारा संस्था के प्रवक्ता और
कार्यकारियों को सतत धमकाया जा रहा था। अब जब एकाएक डॉ। वीरेंद्र तावडे की
अभूतपूर्व गिरफ़्तारी हुई है तो साफतौर पर यह संस्था के विरुद्ध इसी ‘फोर्स्ड-विचहंटिंग’ का
ही नतीजा है। यही आशीष खेतान जो दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के चीफ-सेक्रेटरी पर
सीबीआई द्वारा रेड डाली जाती है तो सीबीआई को प्रधानमंत्री मोदी का गुलाम बताते
हैं, सीबीआई जाँच अधिकारी आनंद जोशी को खुलेआम
धमकाते हैं। लेकिन इस मामले में आशीष खेतान डॉ। तावडे की गिरफ़्तारी से ठीक पहले
सीबीआई के दस्तावेजों के हवाले से सनातन के साधकों का दाभोलकर की हत्या में हाथ
होने का खुलासा एक टीवी चैनल पर आकर करते हैं, जाहिर
है कि जाँच पक्षपाती और गैर-दखलअंदाजी के बिना हो ही नहीं सकती। दूसरी तरफ पानसरे
केस को भी ले तो यही एक्टिविस्ट लीग पुलिस के तादात्म्य चार्जशीट दाखिल होने को
विलम्ब करती रही है और अब ट्रायल को लेटलतीफ करने के लिए तुली हुई है।
सनातन
बनी हुई है गले की फाँस ?
संस्था के ऐसे
क्रियाकलापों की एक लम्बी फेरहिस्त है जिसके चलते संस्था विरोधियों के लिए गले की
फाँस ही साबित हो रही है। संस्था ने नरेन्द्र दाभोलकर के एनजीओ परिवर्तन समेत कई
चर्च समर्थित, मानवाधिकारवादी, तथाकथित बुद्धिजीवियों
के एनजीओ के खिलाफ भंडाफोड़ किया हुआ है।
लेकिन
इन सब के बीच सवाल यह है कि सनातन संस्था क्यूँ निशाने पर है? इसकी
एक बड़ी वजह संस्था का हिन्दू मुद्दों के लिए नो कोम्प्रोमाइज वाला हार्डलाइनर वाला
स्टैंड रहा है। संस्था ने कई सामाजिक और देशहित के मुद्दों को कानूनसंगत तरीके से
उठाया है और घोर संघर्ष के साथ लड़ा है। जाहिर है मालेगांव, मडगांव
ब्लास्ट समेत कई केसेज को संस्था की लीगल विभाग ने खुद देखा है। संस्था ने पंढरपुर
और कोल्हापुर महालक्ष्मी जैसे महाराष्ट्र के कई बड़े मंदिरों हो रहे करोड़ों रुपयों
के भ्रष्टाचार को उजागर किया है। हाल ही में संस्था ने एनजीओ को अवैध रूप से आवंटन
हुई हजारों एकड भूमि को निरस्त कराया है। संस्था अवैध स्लॉटर हाउसेज से हो रहे
प्रदूषण के मामलों को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण लेकर गयी। मीडिया के विरुद्ध कानून
नोटिस भेजें हैं और कई कानून व सरकारी नीतियों के खिलाफ जनहित याचिकाओं से अदालती
लड़ाईयां लड़ी हैं। नासिक कुम्भ में सरकार की अनदेखी को उजागर किया है। मुंबई के
आजाद मैदान के मुस्लिम दंगाइयों के द्वारा तोड़-फोड़ और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान
पहुँचाने का हर्जाना दंगाइयों से वसूल करवाकर दिया। संस्था के ऐसे क्रियाकलापों की
एक लम्बी फेरहिस्त है जिसके चलते संस्था विरोधियों के लिए गले की फाँस ही साबित हो
रही है। संस्था ने नरेन्द्र दाभोलकर के एनजीओ परिवर्तन समेत कई चर्च समर्थित, मानवाधिकारवादी, तथाकथित
बुद्धिजीवियों के एनजीओ के खिलाफ भंडाफोड़ किया हुआ है और देश-तोड़ने वाली, कुत्सित
राजनीति पर पलने वाली इन एनजीओ एक्टिविस्ट्स के दोहरे चरित्र के खिलाफ संस्था ने
आक्रामक रुख अपनाया हुआ है जो संस्था के विरोधियों के पनपने एकमात्र कारण है।
संस्था ने सीधे तौर पर हिन्दू विरोधी कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस
को हिन्दू संस्थाओं के खिलाफ षड़यंत्र रचने के लिए कई बार आड़े हाथो लिया है इसीलिए
यहीं कारण हैं कि क्षेत्रीय अख़बार और मराठी चैनल जो कि इन्हीं पार्टियों के निवेश
से संचालित हैं, सनातन के विरोध में ख़बरों से अटे पड़े
रहते हैं।
‘रेशनलिज्म’ का
कारोबार
क्या
बात है कुछ लोग याकूब मेमन की फांसी को रोकने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलातें हैं
और आधी रात को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाते हैं? वही
लोग देश की बर्बादी और टुकड़े करने के नारे लगाने वाले जेएनयू के छात्रों की
तरफदारी करते नजर आते हैं। कभी आतंकी इशरतजहां उनके लिए मासूम बेटी हो जाती है तो
कभी देश के वातावरण में धार्मिक असहिष्णुता का बवंडर खड़ा कर देते हैं। ये आज़ाद
मैदान में मुस्लिम दंगाइयों की भीड़ के कारनामों को नजरअंदाज कर देते हैं और जब
धरपकड़ होती है तो कानूनी मदद के लिए आ उतरते हैं और धर्मविशेष के खिलाफ ज्यादतियां
होना जताते हैं। वही लोग कभी तीस्ता सीतलवाड के ट्रस्ट पर गबन के आरोपों पर
कार्यवाही होती है, सरकार को बदले की भावना से कार्यवाही
करने के आरोप लगाने के लिए एक हो लेते हैं। ब्राहमणवाद, मनुवाद
से मुक्ति से लेकर माओवाद की रक्तक्रांति के दिवास्वप्न के मर्ज से पीड़ित ये लोग
सामाजिक कार्यकर्त्ता, लेखक, प्रोफेसर, फिल्मकार, पत्रकार, वकील, साहित्यकार
तमाम पेशों में पसरे हैं। इस कथित प्रबुद्ध अभिजात्य वर्ग ने देश की दशा और दिशा
को विचलित करने के लिए ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’, ‘मानवाधिकार’, ‘महिलावाद’, ‘धार्मिक
सहिष्णुता’, ‘रेशनालिस्म’ ‘क्षेत्रीय
पृथकतावाद’ आदि का ऐसा प्रपंच बुना है जो लगातार
बड़े विदेशी चंदे से पोषित किया जा रहा है। देखा जाये तो अकेले महाराष्ट्र में
सलाना १००० करोड़ रूपये का विदेशी चंदा इन्हीं
कारोबारियों की एनजीओ को पहुँचता है। नरेन्द्र दाभोलकर का रेशनलिस्ट मूवमेंट इसी
कारोबार से पृथक नहीं है। नरेन्द्र दाभोलकर की संस्थाएं अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति
और परिवर्तन ट्रस्ट में कई वित्तीय हेरफेर निकल कर आते रहे हैं। उनकी इन संस्थाओं
द्वारा एफसीआरए के तहत मिलने वाले विदेशी डोनेशन के वार्षिक लेखा-जोखे दाखिल करने
में अनियमितता बरती गयीं और आय व खर्चों से सम्बंधित जानकारियां को छुपाया गया है।
गौरतलब है कि वर्ष २००६ से लेकर २०१२ तक
महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति को लगभग १७
लाख रूपये विदेशी चंदे से प्राप्त हुए। वर्ष २०१२
आगे के वार्षिक विवरण संस्था द्वारा दाखिल नहीं किया गया। ऐसे ही उनके दूसरे
ट्रस्ट परिवर्तन को, वर्ष २००६ से
लेकर २०१५ तक लगभग १
करोड़ ४७ लाख रुपये विदेशी चंदे के रूप में मिले। यह तो
विदेशों से मिलने वाली रकम है इससे तो कहीं देश में उनकी संस्थाओं द्वारा इकठ्ठा
किये जाना वाला चंदा तो कई करोड़ों में बैठता है। उदाहरण के लिए वर्ष २०१४
में टाटा ट्रस्ट द्वारा परिवर्तन को लगभग ३ करोड़ का अनुदान मिला। दाभोलकर की
संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी चंदे में बड़ा हिस्सा स्विट्जरलैंड की क्रिस्चियन
संस्था ‘स्विसएड’ और
अमेरिका स्थित महाराष्ट्र फाउंडेशन से प्राप्त होता रहा है। बल्कि परिवर्तन ट्रस्ट
ने जो केवल उनके परिवार के सदस्यों द्वारा डि-एडिक्शन इंस्टिट्यूट के रूप में
रजिस्टर्ड है, स्विसएड से फण्ड संस्था ने अपने
उद्देश्यों के विपरीत जाकर आर्गेनिक फार्मिंग के लिए हासिल किया। यही नहीं, दोनों
संस्थाओं के मुंबई चैरिटी कमिश्नर के यहाँ दाखिल पिछले कुछ वर्षों की वार्षिक
रिपोर्ट को देख जाये तो सीधे तौर पर कई धांधलियां निकलकर आती है और मिलने वाले
विदेश फंड का डायवर्जन ना केवल निजी गाड़ी खरीदने जैसे व्यक्तिगत प्रयोग के लिए हुआ
है बल्कि ऐसे मदों के लिए भी हुआ है जो एफसीआरए के उन प्रावधानों का सरासर उल्लंघन
करते हैं जिनके अंतर्गत किसी संपादक अथवा अखबार/मैगजीन को विदेशी फंड मिलना अवैध
होता है। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के स्वामित्व में बड़े स्तर पर छपने वाली
मैगजीन ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन वार्तापत्र’ के
आय-व्यय की प्रविष्टियाँ विसंगत और संदिग्ध ही निष्कर्षित होती हैं (जैसे वर्ष २००६
में वार्तापत्र की आय का महज कुछ हजार से एकाएक आठ लाख हो जाना और फिर अगले वर्ष
की आय का उल्लेख न करना)। इसके आलावा मैगज़ीन के आय के स्रोतों जैसे बिक्री संख्या, विज्ञापन
और सब्क्रिप्शन आदि जानकारी को छुपाया गया है। साथ ही इस आरएनआई रजिस्टर्ड
वार्तापत्र के वार्षिक रिपोर्ट्स को न्यूजपेपर्स रजिस्ट्रार के यहाँ दाखिल नहीं
किया गया है। यह ठीक उसी तरह का मामला बनता है जैसे तीस्ता सीतलवाड ने विदेशी चंदे
की रकम का गबन कर अपने व्यक्तिगत कार्यों और सबरंग कम्युनिकेशन में प्रयोग किया और
जिस पर केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने कार्यवाही करते हुए तीस्ता के ट्रस्ट का एफसीआरए
का लाईसेन्स रद्द कर दिया है।
नरेन्द्र दाभोलकर की
संस्थाएं अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति और परिवर्तन ट्रस्ट में कई वित्तीय हेरफेर
निकल कर आते रहे हैं। उनकी इन संस्थाओं द्वारा एफसीआरए के तहत मिलने वाले विदेशी
डोनेशन के वार्षिक लेखा-जोखे दाखिल करने में अनियमितता बरती गयीं और आय व खर्चों
से सम्बंधित जानकारियां को छुपाया गया है।
साथ
ही इन संस्थाओं ने बाम्बे ट्रस्ट एक्ट के मुताबिक दो प्रतिशत दान की राशी को कर
स्वरुप भुगतान करने के नियम को भी पालन नहीं किया है। यही नहीं, संस्था
ने कथित रेशनालिस्म के प्रपंच को बढाने के लिए विदेशी चंदे से आपराधिक पृष्ठभूमि
वाले, केरोसिन माफिया सरीखे लोगों को अवार्ड्स से भी
नवाजा और स्कूल-कॉलेजों में ‘वैज्ञानिक जनीवा प्रकल्प’ के
नाम पर शिक्षा विभाग की बिना अनुमति के कार्यक्रम आयोजित कर चंदा भी एकत्रित किया।
संस्था अपनी किताबों के माध्यम से विदेशी फंड और सरकारी अनुदान मिलने को झुठलाती
रही लेकिन वास्तविकता यह है कि संस्था के जरिये नरेन्द्र दाभोलकर द्वारा लिखित
निजी प्रकाशकों की किताबों बड़ी तादाद में बेचीं जाती रहीं हैं जिनकी रॉयल्टी
व्यक्तिगत रूप से नरेन्द्र दाभोलकर और उनके परिवार को मिलती है और इस बिक्री से
होनी आय का संस्था ने अपने लेखा-जोखों में कभी जिक्र ही नहीं किया। समाज सेवा के
इस ढोंग में चौकाने वाली बात ये भी है कि अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के नक्सलवादी
संगठनों से सम्बन्ध भी उजागर हुए। नक्सलवादी गतिविधियों के आरोपों के चलते मुकदमों
में संस्था के कार्यकारी नरेश बंसोड और शलेश वाकडे का नरेन्द्र दाभोलकर बचाव करते
रहे। हालाँकि इन मामलों की भरसक प्रयास कर मीडिया में उछलने से दबा दिया गया। सन २०१३
में सनातन संस्था ने नरेद्र दाभोलकर के इसी वित्तीय भष्टाचार को उजागर किया और
इनकम टैक्स विभाग से इन घोटालों की जाँच करने के लिए गुहार भी लगायी। परिणामस्वरुप
सनातन संस्था को दाभोलकर की हत्या के संदेह पर जाँच के दायरे में लाना क्यूँ नहीं
होगा, बावजूद इसके कथित सेक्युलर जमात का रूदन भी तो
है।
नरेंद्र
दाभोलकर के नाम की राजनीति क्यों ?
हिन्दू एक्टिविस्ट्स की
सरेआम हत्याओं पर मोर्चा निकलने से इन कारोबारियों के राजनैतिक मंसूबे पूरे नहीं
होते। इसीलिए इन हिन्दू एक्टिविस्टों की मौत और अत्याचारों पर बेबस परिजनों के
रूदन और अश्रुओं का क्या मोल?
दाभोलकर
ने जीते-जी तो चर्चों में हो रहे दलित भेदभाव, धर्मांतरण
के लिए ढोंगी हथकंडों और दकियानूसी संतत्व-नवाजी परम्पराओं व आयोजनों के विरोध में
कभी आवाज नहीं उठाई और ना ही कभी वे मुस्लिम समुदाय के बेसिर-पैर के स्त्रीदमन और
उत्पीडन के धर्मांध सिद्धातों पर बोले। शायद इसलिए कि चर्च के खिलाफ बोलने पर मिलने
वाली आर्थिक मदद को खोना पड़ता और कदाचित मुस्लिम संप्रदाय पर बोलने की हिम्मत न
जुटा सके। उनका हिन्दू समाज की अन्धविश्वास की कुरीतियों जिन्हें विशुद्ध हिन्दू
समाज खुद ही अव्यावहारिक मानता है, का
उन्मूलन तो एक मुखौटा मात्र था बल्कि इससे भी आगे अपने स्वत: संतुष्ट तर्कों के
लपेटे में अनीश्वरवाद का जहर समाज में घोलना था। उन्हें तो केवल अंधश्रद्धा के नाम
पर हिन्दू आस्था के आयामों पर कुर्तक करना ही पसंद आया। आस्था के वे सिद्धांत जो
हमारी वैचारिक विरासत के द्योतक रहे हैं। संत तुकाराम, संत
ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम आदि संतों द्वारा खड़ी की
गयी महाराष्ट्र भक्ति आन्दोलन प्रणीत वारकरी परम्परा को आडम्बर ठहराकर दाभोलकर ने
अपने कथित आंदोलनों के लिये चुना। अपनी अभिलाषा रहित सरल और साधारण वारकरी साधक
जिनकी सत्य-शपथ की गवाही को सामाजिक जीवन में महाराष्ट्र के ग्रामीण अंचल में अंतिम
आदर्श माना जाता है, उन वारकारियों की आस्था पर नरेन्द्र
दाभोलकर ने अपने कथित अंधश्रद्धा निर्मूलन आडम्बर से कुठारघात किया। दाभोलकर जिस ‘विज्ञान-निर्भयता-नीति’ से
प्रगति की बात करते रहे, उसी विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में
दाभोलकर हितैषी तथाकथित एनजीओ ने विदेश चंदे और विदेशी मालिकों के इशारे पर बिजली
उत्पादन, इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण, तेल-खनिज
निष्कर्षण आदि सरकारी परियोजनाओं के आड़े आकर क्या कुछ बखेड़ा खड़ा नहीं किया है? सच
ही है जिस हिंदुत्व के अंग योग और अध्यात्म को सारी दुनिया विज्ञान मानती है, इस
कथित रेशनालिस्म के चश्मे से थोड़ी ही दिखेगा ! इसीलिए नरेन्द्र दाभोलकर के इस
स्याहपक्ष को छुपाकर एक प्रखर परिवर्तनकारी की छवि में दिखाने के पीछे सियासती भरी
पड़ी है क्यूँ कि उनकी मौत के जरिये सहानभूति बटोर कर उनके पीछे खड़ी जमात राजनीतिक
रोटी सेक सकती है, हिन्दू कट्टरपंथ के दावों के साथ पैरवी
कर सकती है, सनातन को हिन्दू आईएसआईएस ठहरा सकती
है। लेकिन यही जमात मुस्लिम मदरसों में हथियार मिलने पर अपने होठ सिल बैठती है।
आये दिन हो रही हिन्दू एक्टिविस्ट्स की सरेआम हत्याओं पर मोर्चा निकलने से इन
कारोबारियों के राजनैतिक मंसूबे पूरे नहीं होते। इसीलिए इन हिन्दू एक्टिविस्टों की
मौत और अत्याचारों पर बेबस परिजनों के रूदन और अश्रुओं का क्या मोल?
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