काँवरियों की सेवा हो जाय तो मुझे बहुत आनंद होगा पूज्य संत श्री आशाराम बापू जी।

(श्रावण मासः 20 जुलाई 2016 से 18 अगस्त 2016 तक)
                      अहंकार लेने की भाषा जानता है और प्रेम देने की भाषा जानता है। अहंकार को कितना भी हो, और चाहिए, और चाहिए…. और प्रेमी के पास कुछ भी नहीं हो फिर भी दिये बिना दिल नहीं मानता। शिवजी की जटाओं से गंगा निकलती है फिर भी प्रेमी भक्त काँवर में पानी लेकर यात्रा करते हैं और शिवजी को जल चढ़ाते हैं।
                            पुष्कर में एक बार मैं सुबह अजमेर के रास्ते थोड़ा सा पैदल घूमने गया तो कई काँवरिये मिले। उनको देखकर मेरा हृदय बहुत प्रसन्न हुआ कि 15-17-20 साल के बच्चे जा रहे थे पुष्कर से जल ले के। मैं खड़ा हुआ तो पहचान गये, “अरे ! बापू जी हैं।
मैंने कहाः कब आये थे।
बोलेः रात को आये थे।
कहाँ सोये थे ?”
वहाँ पुष्करराज में सो गये थे ऐसे ही। सुबह जल भर कर जा रहे हैं।
कहाँ चढ़ाओगे ?”
अजमेर में भगवान को चढ़ायेंगे।
                           उन बच्चों को पता नहीं है कि वे काँवर से जल उठाकर जा के देव को चढ़ाते हैं, देव को तो पानी की जरूरत नहीं है लेकिन इससे उनका छुपा हुआ देवत्व कितना जागृत होता है ! बहुत सारा फायदा होता है। अगर वे युवक को पुष्करराज में नहीं आते तो रात को सोते और कुछ गपशप लगाते। जो शिवजी को जल चढ़ा रहे हैं कि चलो पुष्कर अथवा चलो गंगा जीतो भाव कितना ऊँचा हो रहा है ! पहले काँवरिये इतने नहीं थे जितने मैं देख रहा हूँ। मुझे तो लगता है भारत का भविष्य उज्जवल होने के दिन बड़ी तेजी से आयेंगे। तो यह संतों का संकल्प है कि भारत विश्वगुरु बनेगा। जिस देश में काँवरिये बच्चे या भाई लोग नहीं दिखाई देते उस देश के लेडी-लेडे (युवक-युवतियाँ) तो चिपके रहते हैं, सुबह देर तक सोये रहते हैं, परेशान रहते हैं फिर नींद की गोलियाँ खाते हैं, न जाने क्या-क्या करते हैं ! इससे तो हमारे काँवरियों को शाबाश है ! मैं सोचता हूँ हमारे युवा सेवा संघ के युवक ऐसा कुछ करें कि जहाँ भी काँवरिये जाते हों, रोक के उनको आश्रम की टॉफियाँ, आश्रम का काई प्रसाद दे दें, कोई पुस्तक दे दें। सावन महीने में काँवरियों की सेवा हो जाय तो मुझे तो बहुत आनंद होगा। बड़े प्यारे लगते हैं, ‘नमः शिवाय, नमः शिवाय…..’ करके जाते हैं न, तो लगता है कि उन्हें गले लगा लूँ ऐसे प्यारे लगते हैं मेरे को।
                            ‘बं बं बं…… ॐ नमः शिवाय…..’ इस प्रकार कीर्तन करने से कितना भाव शुद्ध, पैदल चलने से क्रिया शुद्ध होती है। और उनमें कोई व्यसनी हो तो उसे समझाना कि काँवर ली तो पान-मसाला नहीं खाना बेटे ! सुपारी नहीं खाना। गाली सुनाना नहीं, सुनना नहीं। इससे और मंगल होगा।
                           भाव शुद्ध व क्रिया शुद्ध होने का फल है कि हृदय मंदिर में ले जाने वाले कोई ब्रह्मज्ञानी महापुरुष मिल जायें, उनका सत्संग मिल जाय। जो मंदिर मस्जिद मंन नहीं जाते, तीर्थाटन नहीं करते उनकी अपेक्षा वहाँ जाने वाले श्रेष्ठ हैं किंतु उनकी अपेक्षा हृदय-मंदिर में पहुँचने वाले साधक प्रभु को अत्यंत प्रिय हैं। जिसको हृदय-मंदिर में पहुँचाने वाले कोई महापुरुष मिल जाते हैं, उसका बाहर के मंदिर में जाना सार्थक हो जाता है।

घरमां छे काशी ने घरमां मथुरा,
घरमां छे गोकुळियुं गाम रे।
मारे नथी जावुं तीरथ धाम रे।।
                            घर का मतलब तुम्हारा चार दीवारों वाला घर नहीं बल्कि हृदयरूपी घर। उसमें यदि तुम जा सकते हो तो फिर तीर्थों में जाओ-न-जाओ, कोई हरकत नहीं। यदि तुम भीतर जा सके, पहुँच गये, किसी बुद्ध (आत्मबोध को उपलब्ध) पुरुष के वचन लग गये तुम्हारे दिल में तो फिर तीर्थों से तुम्हें पुण्य न होगा, तुमसे तीर्थों को पवित्रता मिलेगी। तीर्थ तीर्थत्व को उपलब्ध हो जायेंगे।

                            तीर्थयात्रा से थोड़ा फल होता है लेकिन उससे ज्यादा फल भगवान के नाम में है। उससे ज्यादा गुरुमंत्र में है और उससे ज्यादा गुरुमंत्र का अर्थ समझकर जप करने में है। भगवान को अपना और अपने को भगवान का, गुरु को अपना और अपने को गुरु का मानने वाले को…… मदभक्तिं लभते पराम्। (गीताः 18.54) पराभक्ति व तत्तव ज्ञान का सर्वोपरि लाभ होता है।

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते।
आत्मसुखात परं सुखं न विद्यते।

आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते।