उसीका जीना सार्थक है...
संत तुलसीदासजी कहते हैं :
जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु भाइ ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ ।।
‘वह सम्पत्ति, घर, सुख, मित्र, माता, पिता, भाई जल जाय जो श्रीराम-पद के सम्मुख होने में (परमात्म-प्राप्ति में) हँसते हुए (प्रसन्नतापूर्वक) सहायता न करे ।
(श्री रामचरित. अयो.कां. : १८५)
वह सम्पत्ति किस काम की जो भगवान के सम्मुख नहीं करती ? वह सम्पत्ति नहीं वरन् विपत्ति है । वह संबंध किस काम का जो चैतन्यस्वरूप परमात्मा से विमुख करे ?
सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ ।
जहँ न राम पद पंकज भाऊ ।।
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू ।
जहँ नहीं राम पेम परधानू ।।
(श्री रामचरित. अयो.कां. : २९०.१)
वे सुख, कर्म-धर्म सब जल जायें जो भगवान के श्रीचरणों की प्रीति में अडचनरूप हैं । वह ज्ञान अज्ञान है जो भगवान के स्वरूप में नहीं बिठाता और वह योग कुयोग है जहाँ भगवत्प्रेम की प्रधानता नहीं है ।
योग का सामथ्र्य जहाँ से आता है उस परमात्मा में प्रीति हो जाय तो योग सुयोग हो जाता है लेकिन ‘मैं बडा योगी हूँ - यह अहंकार आ जाय तो वह योग नहीं अपितु कुयोग है ।
योग से बल तो आता है किन्तु परिच्छिन्नता नहीं मिटती, परिच्छिन्नता तो केवल आत्मज्ञान से ही मिटती है । १४०० वर्ष के चाँगदेव ने योगबल से शेर को सवारी के रूप में उपयोग में लिया, जहर उगलनेवाले साँप को चाबुक के रूप में लिया । अपने कई शिष्यों को लेकर आलंदी (महाराष्ट में पुणे के नजदीक) में ज्ञानेश्वर महाराज के पास पहुँचे । (उस क्षेत्र में संत श्री आशारामजी आश्रम भी है ।) चाँगदेव योगसिद्ध थे तो संत ज्ञानेश्वर महाराज ज्ञानसिद्ध । ज्ञानेश्वरजी अपने आत्मज्ञान में टिके थे तभी तो योगसम्पन्न १४०० वर्ष के चाँगदेव भी उनके श्रीचरणों में ज्ञान पाने के लिए गये ।
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू ।
जहँ नहीं राम पेम परधानू ।।
वह योग कुयोग है, वह ज्ञान अज्ञान है, वह सम्पदा विपदा है, वह संबंध व्यर्थ है जिसमें राम का प्रेम नहीं है । सच्चा संबंध तो वह है जो भगवान की तरफ ले जाय । वे ही हमारे माता-पिता हैं, वे ही हमारे बंधु-सखा हैं जो हमें ईश्वर की ओर ले जाते हैं । जो हमें ईश्वर से दूर करते हैं वे भले हमारे माता-पिता, भाई, स्नेही, अरे ! गुरु भी क्यों न हों... ईश्वर से अगर दूर करते हैं तो वे गुरु हमारे गुरु नहीं हैं, पिता पिता नहीं, माता माता नहीं, बंधु बंधु नहीं, सखा सखा नहीं, सम्पत्ति सम्पत्ति नहीं, योग योग नहीं और ज्ञान ज्ञान नहीं है लेकिन जो ईश्वर के सुख में, ज्ञान में, माधुर्य और आनंद में ले जाता है वह दुःख भी हमारा मित्र है । उस शत्रु को भी धन्यवाद है जिसके व्यंग्य-कटाक्ष से व्यथित होकर वैराग्य से युक्त हो के हम ईश्वर के रास्ते पर चल पडें ।
राणा व अन्य परिजनों द्वारा भगवद्भक्ति में व्यवधान डाले जाने पर मीराबाई ने मार्गदर्शन हेतु गोस्वामी तुलसीदासजी को पत्र लिखा । प्रत्युत्तर में गोस्वामीजी ने लिखा :
जाके प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम,
जद्यपि परम सनेही ।।
जिनकी भगवच्चरणों में प्रीति नहीं है वे भले ही कोई भी क्यों न हों, उन्हें वैरी जानकर त्याग देना चाहिए ।
ऋषभदेवजी ने भी अपने पुत्रों को समझाते हुए कहा है : ‘पिता न स स्यात्... वे पिता पिता नहीं हैं, माता माता नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं हैं जो भक्ति-ज्ञान देकर संसार से पार होने में हमारी मदद नहीं करते हैं ।
पिछले अनेक जन्मों में भी माता-पिता, पुत्र-परिवार थे, अनेक जन्मों में अनेक वस्तुएँ मिलीं और छूट गयीं, अनेक शरीर मिले और छूट गये... यह शरीर भी एक दिन छूट जायेगा । यह शरीर छूट जाय उसके पहले अछूट आत्मा के ज्ञान का जो विचार करता है वह धनभागी है, अछूट आत्मा में जो आता है वह बडभागी है, भगवच्चरणों, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के चरणों में जो प्रीति करता है उसीका जीना सार्थक है ।