ऐसा ऊँचा सुख जिससे आगे कोई गति नहीं
आसोज सुद दो दिवस, संवत् बीस इक्कीस ।
नवरात्रि का दूसरा दिन... इस दिन क्या हुआ था ?
मध्यान्ह ढाई बजे, मिला ईस से ईस ।।
देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार ।
हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार ।।
मनुष्य-जीवन में बडे-में-बडा करने योग्य काम यह है कि जिसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता, जिसको जानने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहता और जिससे बढकर कोई बडा सुख नहीं है, उस परम सुख को पा लें । समझो कोई महीने के १० हजार कमाता है तो २० हजार की कमाईवाले के आगे वह विचलित हो जायेगा । तहसीलदार जिलाधिकारी (कलेक्टर) के पद के आगे विचलित हो जायेगा । किसी तहसीलदार को बोलो कि ‘चलो, तुम पद से इस्तीफा दो, जिलाधिकारी बन जाओ । तो वह तैयार हो जायेगा । जिलाधिकारी को बोलो, ‘चलो, मंत्री बनने का मौका है, इस्तीफा दो । तो वह इस्तीफा दे देगा । ऐसे ही मंत्री मुख्यमंत्री-पद के लिए, मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री-पद के लिए और प्रधानमंत्री स्वर्ग के वैभव के लिए, स्वर्ग के वैभववाला इन्द्र-पद के लिए - इस प्रकार अपने से ऊँचे पद के लिए, ऊँचे सुख के लिए लालायित हो जायेंगे परंतु एक ऐसा ऊँचा सुख है कि जिससे आगे कोई गति नहीं । वह है आत्मा-परमात्मा का सुख । भगवान कहते हैं :
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।।
‘परमात्मा की प्राप्तिरूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्था में स्थित योगी बडे भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता (उसको जानना चाहिए) । (गीता : ६.२२)
मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनने के बाद भी चुनाव आते हैं तो तनाव आ जाता है और बीच में क्या-क्या होता है तथा इन्द्रलोक में भी क्या-क्या होता रहता है लेकिन अपने आत्मा-परमात्मा को एक बार पहचान लें बस...
देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया ।
न छेडो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया ।।
कोई बाहर की गद्दी या कुर्सी नहीं, कोई बाहर की पदवी नहीं, चाहे फिर शरीर को लाखों-करोडों लोग मानें, पूजें अथवा कोई निंदा करे पर वह समझता है कि ‘मरनेवाला शरीर मैं नहीं हूँ, बदलनेवाली काया मैं नहीं हूँ । इस काया के पहले जो था, अभी जो है और बाद में भी रहेगा वह मैं अमर आत्मा, चैतन्य, विभु, व्यापक हूँ । वह ऐसा जान लेता है, ब्रह्मस्वरूप हो जाता है ।
आत्मसाक्षात्कार के लिए आवश्यक ३ बातें
श्रीमद् आद्य शंकराचार्यजी कहते हैं :
दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् ।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः ।।
‘भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान पुरुषों का संश्रय (सान्निध्य) - ये तीनों दुर्लभ हैं । (विवेक चूडामणि : ३)
इनमें से दो तो बैठ जाते हैं, तीन एक साथ जल्दी नहीं बैठते । मनुष्यत्व (मनुष्य-जन्म) तो बैठे, एक आँकडा तो बैठा-ही-बैठा है । मुमुक्षुत्व और मनुष्यत्व ये दो चीजें नहीं मिलतीं और दो मिली तो महापुरुष नहीं मिलते । मनुष्यत्व है और महापुरुष मिलें तो मोक्ष की इच्छा नहीं । ये तीनों चीजें एक साथ अत्यंत दुर्लभ हैं । चलो मनुष्यत्व भी है, मोक्ष की इच्छा भी है और महापुरुष भी मिल गये लेकिन ‘‘बाबाजी ! अब बरेली जाना है । उलटे बाँस बरेली जाय ।... तो मोक्ष की इच्छा की जो तीव्रता चाहिए वह नहीं है । चौरासी के चक्कर से बाहर निकलने के सिवाय कोई इच्छा न रहे, तब है मुमुक्षुत्व की पूर्णता । बाकी की चीजें तो दुआ से, इससे-उससे हो जाती हैं लेकिन आत्मसाक्षात्कार वर या शाप से नहीं होता, ये तीन सिद्धांत पूरे होते हैं तभी होता है ।
बोले, गुरुकृपा होती है । लेकिन मनुष्यत्व और मुमुक्षुत्व ये दो कृपा साथ में हों तो गुरुकृपा पचे, फले । मरुभूमि में वृक्ष होना कठिन है लेकिन अतिवृष्टि होती है तो मरुभूमि में भी हरियाली हो जाती है, ऐसे ही अति सत्संग और साधन-भजन मिलता रहता है तो मरुभूमि जैसे हृदय में भी सत्संग-रसरूपी हरियाली तो हो ही जाती है ।