भक्तों
की सेवा करें भगवान
एक बार स्वामी विवेकानंद उत्तर भारत की यात्रा करने निकले । उन्होंने
अयाचक व्रत रखा था कि माँगेंगे नहीं, मिलेगा तो खायेंगे; जहाँ
रहना पड़े रह लेंगे, जहाँ नींद आयेगी सो लेंगे । यात्रा करते-करते
रेलगाड़ी बदलने के लिए वे 2-4 घंटे किसी जंक्शन पर ठहरे । उनके पास
तीसरे दर्जे की टिकट थी । पहले तीन दर्जे होते थे । गरीब लोग तीसरे दर्जे में
मुसाफिरी करते थे सस्ती टिकट पर । हमने भी तीसरे दर्जे में यात्रा की है ।
जब वे डिब्बे में जा के बैठे तो पहने हुए एक जोड़ी भगवे कपड़े और सिर्फ
टिकट के साथ उन्हें बैठा देख उनके पास बैठा हुआ एक व्यापारी उनका मजाक उड़ाता रहा ।
12-15 घंटे की यात्रा के बाद जहाँ दोनों को उतरना था वहाँ उतरे । जहाँ लोग
छाया में बैठे थे उधर जाकर विवेकानंदजी बैठने लगे तो उनकी वेशभूषा देखकर चौकीदार
ने भगाया : ‘‘उधर जाओ बाबा ! इधर नहीं, इधर
नहीं !’’
जब चौकीदार ने उनको विश्रामागार में नहीं बैठने दिया तो विश्रामागार
के बाहर जहाँ दीवाल की थोड़ी-सी छाया थी, वहाँ पर वे खम्भे को टेका देकर बैठ गये
। वह व्यापारी भी इनके सामने आकर छावनी में बैठ गया और जो कुछ मिठाई, जलेबी,
पकौड़े
आदि चरपरा लिया था वह उनको दिखा-दिखा के खाने लगा क्योंकि उनके पास तो कुछ खाने को
था नहीं । कइयों की ऐसी नीच बुद्धि होती है कि किसीको चिढ़ाकर, किसीको
दुःखी करके मजा लेना चाहते हैं । दूसरों को सताकर सुखी होना इसको मोहिनी प्रकृति
बोलते हैं । लेकिन विवेकानंदजी के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आयी ।
वह व्यापारी तो खा-पीकर जरा बैठा, विवेकानंदजी को
देखता रहा । इतने में एक स्वस्थ हलवाई हाथ में गठरी, मटकी, लोटा,
बगल
में चटाई और अन्य सामान लेकर उनके पास आया और प्रणाम करके बोला : ‘‘स्वामीजी
! भोजन करिये ।’’
स्वामी विवेकानंद बोले : ‘‘भाई ! मैं तो पहली बार इस स्टेशन पर
आया हूँ । दूसरा और कोई आपका स्वामीजी होगा तो उसके लिए ले जाओ ।’’
‘‘नहीं-नहीं,
मैं
हलवाई हूँ । मैं भोजन करके लेटा था । दोपहर को जरा झपकी लेता हूँ । तो रामजी ने
सपना दिया कि ‘मेरा संन्यासी साधु रेलवे स्टेशन पर आया है ।
वह भूखा है, जा, उठ!’ मैंने सोचा कि ‘यह
क्या पता क्या है ?’ मैं फिर से लेटा तो फिर मेरे रामजी ने कहा,
‘जा,
क्यों
सोता है ? आलस्य क्यों करता है ? मेरे संन्यासी को भूख लगी है ।’
तो
मैंने जल्दी-जल्दी भोजन बनवाया फिर दुकान से ये मिठाइयाँ ले के आया ।’’
वह व्यापारी सोचने लगा कि ‘मैं तो 1-2 मिठाई खाकर
अपने को बड़ा भाग्यशाली मानता था पर इनके लिए तो इतनी सारी मिठाइयाँ ! और ये
गरमागरम भोजन और चटाई ! और रामजी ने हलवाई को सपना दिया कि मेरा साधु भूखा है !!
मैं तो इनको साधारण समझकर इनका मजाक कर रहा था लेकिन ये तो भगवान और गुरु के रस
में ऐसे रसवान हैं कि इनके खाने-पीने की तो गुरु महाराज और भगवान ही व्यवस्था कर
रहे हैं !’
व्यापारी का मन पानी-पानी हो गया । बार-बार संत-दर्शन करने का उसका
पुण्य फला और उसने स्वामी विवेकानंद के चरणों की रज अपने सिर पर लगायी और कहा कि ‘‘महाराज
! मुझे माफ कर दो ।’’
तो जो भगवद्रस में रहते हैं उन्हें संसार की सुख-सुविधाओं का महत्त्व
नहीं रहता । भगवद्रस के प्रभाव से उनकी आवश्यकता पूरी हो जाती है ।
(ऐसी ही घटनाएँ बापूजी के जीवन में भी
घटी हैं । एक बार जब पूज्यश्री सब कुछ छोड़कर एक जंगल में दुर्गम स्थान पर जा के
बैठ गये थे किः
सोचा मैं न कहीं
जाऊँगा, यहीं बैठकर अब खाऊँगा ।
जिसको गरज होगी
आयेगा,
सृष्टिकर्ता खुद
लायेगा ।।
ज्यों
ही उनके मन में यह विचार आया त्यों ही सिर पर साफा बाँधे दो किसान हाथ में
खाद्य-पेय लेकर वहाँ आ पहुँचे और पूज्यश्री के चरणों में प्रणाम करके बोले : ‘‘महाराजजी
! स्वीकार करो ।’’
पूज्यश्री
बोले : ‘‘भाई ! लगता है तुम लोग रास्ता भूल गये हो । यहाँ कोई तुम्हारे दूसरे
महाराजजी रहते होंगे, जिनके लिए तुम खाद्य-पेय लेकर आये हो । यह
उन्हें खिलाओ ।’’
वे बोले : ‘‘नहीं,
यह
सब हम आपके लिए ही लाये हैं । हमने रात को सपने में आपको जंगल में बैठे हुए देखा
और साथ ही यहाँ पहुँचने का रास्ता भी । हमें ऐसी प्रेरणा हुई कि प्रातः जल्दी ही
आपश्री की सेवा में पहुँच जाना चाहिए । हमारे गाँव में और कोई संत नहीं हैं ।’’
पूज्य बापूजी के प्रवचनों में ऐसी ही
एक अन्य घटना का उल्लेख मिलता है । पूज्यश्री के ही शब्दों में :
आज
से 40 साल पहले हम गंगोत्री गये थे । मैं था और मेरे साथ चार भक्त थे । उस
समय गंगोत्री की गुफाओं में, पहाड़ियों में जाना बड़ा दुर्गम था ।
पैदल की यात्रा थी, वहाँ बसें नहीं जाती थीं । हम चलते-चलते एक रात
कहीं रुके फिर दूसरे दिन चले, दोपहर ढाई-तीन बजे के आसपास हम
गंगोत्री पहुँचे । तो योग निकेतन के एक लम्बी जटाओंवाले, स्वस्थ, अच्छे
ऊँचे कद के बड़े विलक्षण योगी महाराज सामने से आये, इशारा किया : ‘खाने
चलो, भोजन तैयार है ।’
हम गये तो गरमागरम भोजन बना हुआ था, पहाड़ी हरी सब्जी
तो चूल्हे पर सीझ रही थी । चावल, दाल, रोटी, हलवा
बना था । उस साधु ने हमको परोसा । हमने खाया । साधु को हमने कहा : ‘‘स्वामीजी
! आप भी खाइये ।’’ फिर उन्होंने खाया । वे मौनी संत थे । चेतनानंद
या चेतन गिरि ऐसा कुछ नाम था ।
हमने पूछा : ‘‘आपने इतना भोजन कैसे बना रखा था ?
और
इस समय गरमागरम भोजन ! हमारा आपका तो परिचय भी नहीं है ।’’
उन्होंने स्लेट पर लिख दिया कि ‘बारहों महीने हम
यहाँ रहते हैं । रोज 10.30-11 बजे के बीच भोजन पा लेता हूँ । आज
चावल बनाते-बनाते छः आदमी के बन गये । सब्जी बनाते-बनाते इतने आदमियों की बनाने की
प्रेरणा मिली । फिर आटा निकाला तो आटा भी छः आदमी का गूँध लिया । भोजन बनाते-बनाते
2-2.30 बज गये । मैंने सोचा, ‘अब जब आटा तुम (ईश्वर) गुँधवाते हो,
बनवाते
हो तो खानेवाले आयेंगे ।’ मैंने बना के तैयार किया, हाथ
धोकर बाहर देखा कि ‘तू किसको भेजता है ?’ तो देखा कि आप
पाँच हैं, छठा मैं हूँ । मैं समझ गया कि आपके लिए हुआ है । हमने बुलाया और आपने
पा लिया ।’
तो ऐसा कौन है कि हम भूखे हैं, कब सामान
खोलेंगे, कब लकड़ियाँ चुनेंगे, कब बनायेंगे - इसका खयाल रखकर इतने बड़े
संत को प्रेरणा करता है ? ईश्वर कैसा ध्यान रखता है !
जब भी दुःख, चिंता आदि आयें तो विचारो कि ‘उनको
देखनेवाला कौन है ? मैं । मैं कौन हूँ ? मैं शरीर तो
नहीं हूँ । मन, बुद्धि, अहंकार भी नहीं
हूँ, इन सबको जाननेवाला हूँ । ॐ शांति... ॐ...’ तो संसार के
थपेड़ों से आप मुक्तात्मा होने लगेंगे ।
फिर आपका वह तत्त्वस्वरूप जो सर्वव्यापक परमात्मा है, उसका परम सुख और
परम सामर्थ्य आपकी सेवा में लग जायेगा ।
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