एक आत्मनिष्ठ महापुरुष के सत्संग से प्रभावित होकर २ व्यक्तियों ने अपने जीवन को आत्मोन्नति के मार्ग पर ले जाने का निश्चय किया। एक दिन उन महापुरुष के श्रीचरणों में पहुँचकर उन्होंने निवेदन किया : ‘‘गुरुदेव ! हम आपके दैवी सेवाकार्य में जीवन अर्पित कर अपना कल्याण करना चाहते हैं। हमें स्वीकार कीजिये।
                            उन संत ने उन्हें शिष्य बनाने के पहले उनकी परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें अगले दिन एक निर्धारित समय पर आने को कहा।
                            दूसरे दिन संतश्री उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। पहला व्यक्ति गुरुजी के पास समय से पहुँचा परंतु रास्ते में मिली एक वृद्ध महिला की घास की गठरी उठवाने के आग्रह और एक बैलगाडीवाले की गाडी को दलदल से निकलवाने की प्रार्थना को ठुकराकर पहुँचा, जबकि दूसरा व्यक्ति थोडा विलम्ब से पहुँचा परंतु उसकी साँस फूल रही थी, कपडे कीचड से सने हुए थे और वह शालीनता के साथ आकर क्षमा माँग रहा था।
पहला व्यक्ति व्यंग्य कसते हुए बोला : ‘‘जो समय का मूल्य न समझे वह सेवा क्या करेगा !
                            उसका व्यंग्य कसना संतश्री को अच्छा नहीं लगा। वे बोले : ‘‘पर जो प्राप्त हुए सेवा के अवसरों की अवहेलना करे, दूसरों का कष्ट न समझ पाये तथा अपने वस्त्रों के गंदे होने की चिंता अधिक करे और सेवा का महत्त्व कम समझे वह किस काम का ?
                            व्यंग्य कसनेवाले को अपनी भूल समझ में आयी। दूसरे व्यक्ति को संतश्री ने अपने दैवी सेवाकार्यों में जिम्मेदारीवाले पद पर नियुक्त कर दिया तथा पहले व्यक्ति को सेवा-साधना द्वारा अपनी योग्यता बढाने हेतु अस्थायी आश्रमवास की अनुमति प्रदान की।