दुर्गासप्तशती का कैसे हुआ प्रागट्य?

मोह सकल व्याधिंह कर मूला।
तिन्ह से पुनि उपजहिं बहु सूला।।

                               ‘सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से-शूल उत्पन्न होते हैं।
                               जिव को जिन चीजों में मोह होता है, देर-सवेर वे चीजे ही जिव को रुलाती हैं। जिस कुटुम्ब में मोह होता है, जिन पुत्रों में मोह होता है, उनसे ही कभी-न-कभी धोखा मिलता है लेकिन अविद्या का प्रभाव इतना गहराहै की जहाँ से धोखा मिलता है वहन से थोडा ऊब तो जाता है परंतु उससे छुटकारा नही पा सकता और वहीं पर चिपका रहता है।
                                    कलिंग देश के वैश्य रजा विराध के पौत्र और दुर्मिल के पुत्र समाधिवैश्य को भी धन-धान्य, कुटुम्ब में बहुत आसक्ति थी, बहुत मोह था। लेकिन उसी कुटुम्बियों ने, पत्नी और पुत्र ने धन की लालच में उसे घर से बाहर निकाल दिया। वह इधर-उधर भटकते-भटकते जंगलों-झाड़ियों से गुजरते हुए मेधा ऋषि के आश्रम में पहुँचा।
                                     ऋषि का आश्रम देखकर उसके चित्त को थोड़ी-सी शांति मिली। अनुशासनबद्ध, संयमी और सादे रहन-सहनवाले, साधन-भजन करके आत्मशांति की प्राप्ति की ओर आगे बढ़े हुए, निश्चिंत जीवन जीनेवाले साधकों को देखकर समाधिवैश्य के मन में हुआ कि इस आश्रम में कुछ दिन तक रहूँगा तो मेरे चित्त कि तपन जरुर मिट जाएगी।
                                       सुख, शांति ओर चैन इन्सान कि गहरी माँग है। अशांति कोई नही चाहता, दुःख कोई नही चाहता लेकिन मजे कि बात यह है कि जहाँ से तपन पैदा होती है वहन से इन्सान सुख कहता है ओर जहाँ से अशांति मिलती है वहन से शांति चाहता है। मोह की महिमा ही ऐसी है।
                                     यह मोह जब तक ज्ञान के द्वारा निवृत नही होता है तब तक कंधे बदलता है, एक कंधे का बोझ दुसरे कंधे पर धृ देता है। एसा बोझ बदलते-बदलते जिन बदल जाता है। अरे ! मौत भी बदल जाती है। कभी पशु का जीवन तो कभी पक्षी का। कभी कैसी मौत आती है तो कभी कैसी। अगर जीवन ओर मौत के बदलने से पहले अपनी समझ बदल लें तो बेडा पार हो जाये। समाधिवैश्य का कोई सौभाग्य होगा, कुछ पुन्य होंगे, इश्वर की कृपा होगी, वह मेधा ऋषि के आश्रम में रहने लगा।
                                उसी आश्रम में राजा सुरथ भी आ पहुंचा। राजा सुरथ को भी राजगद्धी के अधिकारी बनने से रोकने के लिए कुटुम्बियों ने सताया था ओर धोखा दिया था। उसके कपटी व्यवहार से उद्ध्विघं हो कर शिकार के बहाने वह राज्य से भाग निकला था। उसे संदेह हो गया था की किसी न किसी षड्यंत्र में फँसाकर वे मुझे मार डालेंगे। अत: उसकी अपेक्षा राज्य का लालच छोड़ देना अच्छा है।
                                  इस तरह समाधिवैश्य ओर राजा सुरथ दोनों ऋषि के आश्रम में रहने लगे। दोनों एक ही प्रकार के दुःख से पीड़ित थे। आश्रम में तो रहते थे लेकिन मोह नष्ट करने के लिए नही आये थे, इश्वर-प्राप्ति के लिए नहीं आये थे। अपने कुटुम्बियों ने, रिश्तेदारों ने धोखा दिया था, संसार से जो ताप मिला था उसकी तपन बुझाने आये थे। उनके मन में आसक्ति ओर भोगवासना तो थी ही। इसलिए सोच रहे थे की तपन मिट जाये फिर बाद में चले जायेंगे।
                                    ऋषि आत्मज्ञानी थे। उनके शिष्य भी सेवाभावी थे। परंतु समाधिवैश्य और राजा सुरथ की तो हालत कुछ और थी। उन दोनों ने मिलकर मेधा रिही के चरणों में प्रार्थना की : स्वामीजी ! हहम आश्रम में रह तो रहे हैं लेकिन हमारा मन व्ही संसारिक सुक चाहता है। हम समझते हैं क संसार स्वार्थ से भरा हुआ हा। कितने ही लोग मरकर सब कुछ इधर छोडकर चले गये हैं। धोखेबाज सगे-सबंधियों नी तो हमे जीते-जी छुड़ा दिया है। फिर भी ऐसी इच्छा होती रहती है कि स्वामीजी आगया दें तो हम उधर जाये और आशीर्वाद भी दें कि हमारी पत्नी और बच्चे हमे स्नेह करें……..धन-धान्य बढ़ता रहे और हम मजे से जियें।
                                ऋषि उनके अंत:करण की सत्यनिष्ठा देखकर बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा : इसीका नाम माया है।
                 इसी मया की दो शक्तियाँ हैं : आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति।चाहे सौ-सौ जूते खायें तमाशा घुसकर देखेंगे।
                  तमाशा क्या देखते हैं ? जूते खा रहे हैं ……. धक्का-मुक्की सह रहे हैं……हुईसो……हुईसो ……चल रहा है……फिर भी मुंडो तो मारवाड़।कहेंगे बहुत मजा है इस जीवन में। लेकिन ऐसा मजा लेने में जीवन पूरा कर देनेवाला जीवन के अंत में देखता है कि संसार में कोई सार नही है। ऐसा करते-करते सब चले गये। दादा-परदादा चले गये और हम-तुम भी चले जायेंगे। हम इस संसार से चले जाये उसके पहले इस संसार कि अमरता को समझकर एकमात्र सारस्वरूप परमात्मा में जाग जायें तो कितना अच्छा !
                 समाधिवैश्य और सुरथ राजा ने कहा : स्वामीजी ! यह सब हम समझते हैं फिर भी हमारे चित्त में इश्वर के प्रति प्रीटी नही होती और संसार से वैराग्य नही आता। इसका क्या कारण होगा ? संसार कि नश्वरता और आत्मा की शाश्वतता के बारे में सुनते हैं लेकिन नश्वर संसार का मोह नही छूटता और शाश्वत परमात्मा में मन नही लगता है। ऐसा क्यों ?”
                   मेधा ऋषि ने कहा : इसीको सनातन धर्म के ऋषियों ने माया कहा है। वह जीवको संसार में घसीटती रहती है। ईश्वर सत्य है, परब्रह्म परमात्मा सत्य है, परंतु माया के कारण असत संसार, नाशवान जगत सच्चा लगता है। इस माया से बचना चाहिए। माया से बचने के लिए ब्रह्मविद्या का आश्रय लेना चाहिए। वही संसार-सागर से पार करानेवाली विद्या है। इस ब्रह्मविद्या की आराधना-उपासना से बुद्धि का विकास होगा और आसुरी भाव काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकार मिटते जाएँगे। ज्यों-ज्यों विकार मिटते जाएँगे त्यों-त्यों दैवी स्वभाव प्रकट होने लगेगा और उस अंतर्यामी परमात्मा में प्रीति होने लगेगी। नश्वर का मोह छूटता जायेगा और उस परमदेव को जानने की योग्यता बढती जाएगी।
                 फिर उन कृपालु ऋषिवर ने दोनों के पूछने पर उन्हें भगवती की पूजा-उपासना की विधि बतायी। ऋषिवर ने उस महामाया की आराधना करने के लिए जो उपदेश दिया, वही शाक्तों का उपास्य ग्रन्थ दुर्गासप्तशतीके रूप में प्रकट हुआ। तिन वर्ष तक आराधना करने पर भगवती साक्षात् प्रगट हुई और वर माँगने के लिए कहा।
                   राजा सुरथ के मन में संसार की वासना थी अत: उन्होंने संसारी भोग ही माँगे, किन्तु समाधिवैश्य के मन में किसी सांसारिक वस्तु की काना नही रह गयी थी। संसार की दुःखरूपता, अनित्यता और असत्यता उनकी समझ में आ चुकी थी अत: उन्होंने भगवती से प्रार्थना की कि : देवि ! अब ऐसा वर दो कि यह मैं हूँऔर यह मेरा हैइस प्रकार की अहंता-ममता और आसक्ति को जन्म देनेवाला अज्ञान नष्ट हो जाये और मुझे विशुद्ध ज्ञान की उपलब्धी हो।
                 भगवती ने बड़ी प्रसन्नता से समाधिवैश्य को ज्ञान दान किया और वे स्वरूपस्थिति होकर परमात्मा को प्राप्त हो गये।