आध्यात्मिक ज्ञान गुरु-परम्परा का विषय है-पूज्य बापू जी।
जो
लोग कैसेटों के द्वारा सोफा पर बैठे-बैठे जूते पहन के घुटने हिलाते-हिलाते चाय या
कॉफी की चुस्की लेते हुए सत्संग सुनते हैं, वे नहीं सुनने
वालों की अपेक्षा तो अच्छे है, ठीक है, उन्हें धन्यवाद
है लेकिन आदरपूर्वक और गुरुओं का सान्निध्य पाकर जो सत्संग सुना जाता है और पचाया
जाता है, उसका प्रभाव निराला होता है। पहले के जमाने में
विद्यार्थी बड़े-बड़े प्रमाणपत्रों के पीछे नहीं पड़ते थे, गुरुओं
के सान्निध्य में रहते थे। प्रतिकूलता में भी प्रसन्न और अनुकूलता में अनासक्त
रहकर अपने आत्मस्वरूप के चिंतन व आत्मस्वभाव में निमग्न रहते हुए परमानंद का
प्रसाद पा लेते थे। और प्रमाणपत्र क्या थे ? कि ‘यह
फलाने महापुरुष का शिष्य….।’ वही पहचान होती
थी। आज विद्यार्थी नाम रखा गया किंतु रोटी-अर्थी हो गये बस, प्रमाणपत्रार्थी
हो गये।
आप
गाना तो रेडियो से सीख सकते हैं लेकिन संगीतज्ञ रेडियो के द्वारा नहीं होंगे। किसी
उस्ताद के पास सीखेंगे, उसकी हाँ से हाँ मिलाकर ताल से ताल
मिलायेंगे, उतार-चढ़ाव आदि सीखेंगे तब संगीतज्ञ होंगे। ऐसे
ही सूचनाएँ अथवा किस्से-कहानियाँ और कथाएँ सुनकर थोड़ा पुण्य तो आप घर बैठे पा
सकते हैं लेकिन अंतःकरण उँडेल दे ऐसा वातावरण और ऐसी योग्यता तो व्यासपूर्णिमा
जैसे उत्सवों और ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के सान्निध्य द्वारा ही प्राप्त होती है।
बड़े-बड़े राजा-महाराजा राजपाट छोड़कर सिर में खाक डाल के हाथ में भिक्षापात्र
लिये गुरुओं के द्वार खटखटाते थे। अध्यात्म मार्ग के पथिकों को, जिज्ञासुओं
को समर्थ सदगुरु की खोज करनी चाहिए और ईश्वर से आर्तभाव से प्रार्थना करनी चाहिए, जिससे
ईश्वरानुग्रह से सदगुरु की प्राप्ति हो जाय। क्योंकि श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ
महापुरुष भगवत्कृपा से ही प्राप्त होते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान गुरु-परम्परा का
विषय है। यह ज्ञान सदगुरु द्वारा शिष्य को प्रदान किया जाता है।
हमारा
इतिहास बड़ा पुराना है, बहुत ऊँचा है। भगवान आदिनारायण की नाभि
से ब्रह्माजी और ब्रह्मा जी से ऋषि-मुनि….. ऐसे करते-करते
भगवान वेदव्यासजी और वेदव्यासजी के सुपुत्र, सत्शिष्य शुकदेव
जी और शुकदेव जी के सत्शिष्य गौड़पादाचार्य, गौड़पादाचार्य
के सत्शिष्य गोविंदपादाचार्य, गोविंदपादाचार्य के आद्य शंकराचार्य और
शंकराचार्य ने दसनामियों की स्थापना की- गिरी, पुरी, सरस्वती
आदि। इन साधु संतों में से दादू दयाल सम्प्रदाय के अमुक संत, उनमें
से अमुक संत…. और उनके सत्शिष्य स्वामी केशवानंद जी और
केशवानंद जी के सत्शिष्य लीलाशाह जी बापू और लीलाशाहजी बापू के हम – यह
अनादिकाल से चली आ रही गुरु-शिष्य परम्परा की, ब्रह्म-परमात्मा
से जुड़ी हुई बात है।
यह
ज्ञान कोई किताबों से नहीं आता, पुस्तकों से
सूचनाएँ मिल जाती हैं, शब्दजाल मिल जाता है लेकिन ज्ञान तो…. ज्योति
से ज्योति जगती है। दीया भी है, तेल भी है, बाती
भी है लेकिन जले हुए दीये के सम्पर्क में जब तक वह अनजला दीया नहीं आया तब तक
प्रकाश नहीं होता है। श्रीकृष्ण के सान्निध्य से अर्जुन को हृदय प्रकाश हुआ और
अर्जुन, जो विषादयोग में पड़ा था, कई
संदेहों में पड़ा था, गीता ने उसको कर्म करते हुए निर्लेप
बना दिया। यह ब्रह्मविद्या है। इस विद्या की जितनी सराहना करो, इस
विद्या के लिए जितनी कुछ समय-शक्ति लगाओ उतनी कम है। इस विद्या के विषय में बोलने
वाले संत जितना भी बोलते हैं, लगता है कि कम है, कम
है…. अभी और ……।
इस ब्रह्मविद्या
के उपदेश, सत्संग से इतना ज्ञान, शांति, माधुर्य
मिलता है तो यह जीव अगर आत्मानुभूति की यात्रा की पूर्णता तक पहुँच जाय तो कितना
कुछ होता होगा ! और चाहे किसी भी जाति या समाज का, किसी भी
उपलब्धिवाला व्यक्ति हो, देर-सवेर उसको आत्मज्ञान तो पाना ही
पड़ेगा। उसके सिवाय तो जन्मो-मरो, इकट्ठा करो, बस।
‘मेरा बेटा, यह, वह….’ कर
कराके रखा। मृत्यु का झटका लगा, सब पराया हुआ, फिर
गये लोक-लोकान्तर में झख मार के। फिर चन्द्रमा की किरणों से आकर अन्न में, फल
में रहे। किसी ने वह खाया, फिर वह पुरुष के द्वारा नारी के शरीर
में गया, गर्भ मिला तो ठीक, न
मिला तो नाली में बह गया। यह दुःख, दुर्भाग्य तो
बना ही रहता है।
कभी न छूटे पिंड दुःखों से
जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।
जब तक ब्रह्म-परमात्मा
का ज्ञान नहीं होगा, तब तक दुःखों से पिंड नहीं छूट सकता, फिर
चाहे आप स्वयं प्रधानमंत्री ही क्यों न बन जायें। सुविधाएँ तो मिल जायेंगी लेकिन
सब दुःखों का अंत न हो सकेगा। समस्त दुःखों का अंत तो तभी होगा जब ब्रह्म-परमात्मा
का ज्ञान पाओगे, अपने आत्मस्वरूप को पहचानोगे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून
2017, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 294
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
0 टिप्पणियाँ