परम सुख की प्राप्ति कैसे ?

            ‘श्री योगवासिष्ठ महारामायणमें वसिष्ठजी महाराज कहते हैं : हे रामजी ! जो बोध से रहित किंतु चल ऐश्वर्य से बड़ा है उसको तुच्छ अज्ञान नाश कर डालता है, जैसे बल से रहित सिंह को गीदड़, हिरण भी जीत लेते हैं । इससे जो कुछ प्राप्त होता दृष्टि आता है वह अपने प्रयत्न से होता है । अपना बोधरूपी चिंतामणि हृदय में स्थित है, उससे विवेकरूपी फल मिलता है । जैसे जाननेवाला केवट समुद्र से पार करता है, अजान नहीं उतार सकता, तैसे ही सम्यक् बोध संसार-समुद्र से पार करता है और असम्यक् बोध जड़ता में डालता है ।
            पूज्य बापूजी : सम्यक् बोध और असम्यक् बोध... सम्यक् बोध माना सही ज्ञान, वह संसार से, दुःखों से पार कर देता है और असम्यक् बोध माना गलत ज्ञान, वह संसार के चक्र में फँसा देता है । सही ज्ञान क्या है ? कि हम सुख चाहते हैं, सदा चाहते हैं और स्वतंत्रता चाहते हैं । कुछ भी काम करें, हम सुख को पाने और दुःख को मिटाने के लिए करते हैं । और वह सुख सदा रहे यह भी मन में होता है । कोई कहे : भगवान करे कि आप दो घंटे सुखी रहो, बाद में दुःखी हो जाओतो अच्छा नहीं लगेगा । दो दिन सुखी रहो फिर दुःखी होना...’ - अच्छा नहीं लगेगा । दो साल आप सुखी रहो फिर दुःखी होना...’ - अच्छा नहीं लगेगा । यहाँ जीते-जी सुखी रहो फिर नरकों में जाना...’ - नहीं अच्छा लगता । तो आप सुख भी चाहते हैं और सदा के लिए भी चाहते हैं । अच्छा, सुखी तो रहो लेकिन बंधन में रहो...नहीं, बंधन नहीं चाहिए । तो आप स्वतंत्रता भी चाहते हैं । रामायणभी कहता है : पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ।
            ‘जो पराधीन होता है उसको तो स्वप्न में भी सुख नहीं है ।टुकड़े-टुकड़े के लिए जो जीव-जंतु भटकता है, उसको आप फँसाकर (कैद करके) फिर बढ़िया-से-बढ़िया खाने को दो तो वह खायेगा नहीं, बाहर निकलने को छटपटायेगा । अपनी मर्जी से आप घंटोंभर कमरा बंद करके बैठो, परवाह नहीं लेकिन बाहर से किसीने कुंडा-ताला लगा दिया तो छटपटाहटŸ होगी । तो आप बंधन भी नहीं चाहते और सदा व शाश्वत सुख चाहते हैं लेकिन गलती यह करते हैं कि जो स्वतंत्र सुख है, सदा सुख है, निर्बंध सुख है उधर का ज्ञान नहीं, उधर की प्रीति नहीं, उधर की रुचि नहीं और जो सदा रहनेवाला नहीं है, परतंत्रता देनेवाला है उधर चले जाते हैं ।
            जैसे दीये पर पतंगे आ जाते हैं, गाड़ियों की सामने की बत्ती (हेडलाइट) पर जंतु उड़ते-उड़ते आते हैं, तो आते सुख के लिए हैं, दुःख लेने को नहीं आते लेकिन गलत निर्णय है, गलत बुद्धि है तो दुःखी हो जाते हैं । जहाँ सुख नहीं है, केवल सुख का आभास है, वहाँ सुख समझ के जैसे पतंगे जिंदगी खो देते हैं ऐसे ही आम आदमी भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में छटपटा के जिंदगी पूरी कर देता है ।
            ‘गीता’ (2.70) में कहा है : स शान्तिमाप्नोति न कामकामी । शांति वह पाता है जो भोगों से विचलित नहीं होता । जिसको सम्यक् ज्ञान है, सत्य सुख का पता है, सत्य सुख की माँग है और सत्य सुख में ले जानेवाला सत्संग मिल गया है, वही आत्मसुख में संतुष्ट हो जाता है, भोगों को चाहनेवाला नहीं । श्रीकृष्ण कहते हैं : संतुष्टः सततं योगी...विषय-विकारों के भोग-सुखोंवाला न सदा सुखी रह सकता है, न सदा संतुष्ट रह सकता है । स शान्तिमाप्नोति... यह मिल जाय तो सुखी हो जाऊँ, यह हट जाय तो सुखी हो जाऊँ, यहाँ चला जाऊँ तो सुखी हो जाऊँ... हिन्दुस्तान से अमेरिका सेट हो जाऊँ तो सुखी हो जाऊँ...अमेरिकावाले कई आते हैं, बोले : वहाँ कुछ नहीं, अब तो भारत में सेट होना है ।बाबा, कहीं भी जाओ, जब तक सम्यक् ज्ञान में सजग नहीं हुए, शाश्वत सुखस्वरूप में सजग नहीं हुए, परिस्थितियाँ अपसेट करती रहेंगी और मृत्यु भी जन्म-मरण व चौरासी के चक्कर में अपसेट करती ही रहेगी । परिस्थितियों को अनुकूल बनाकर सुखी रहना चाहते हो यह बड़े-में-बड़ी गलती है । अपने सुखस्वरूप आत्मस्वभाव को भूलकर परिस्थितियों की अनुकूलता में सुखी रहना चाहते हैं यह भूल है । जहाँ परिस्थितियों की पहुँच नहीं, परिस्थितियों की दाल नहीं गलती वह सुखस्वरूप अपना आत्मा ज्यों-का-त्यों है, उसका ज्ञान पाओ ।
            बुद्धि में अज्ञान है - धन कमा के सुखी हो जाऊँ, धन छोड़ के सुखी हो जाऊँ...त्याग कर दिया एकदम लेकिन अकेले त्याग से भी परम सुख नहीं मिलता, अकेले संग्रह से भी परम सुख नहीं मिलता, अकेले रोने से भी नहीं मिलता, अकेले होने से भी नहीं मिलता, लोगों से मिलने से भी परम सुख नहीं मिलता । परम सुख पाने के लिए परम सुख का पता चाहिए, परम सुख की प्रीति चाहिए और परम सुख के अनुभवसम्पन्न महापुरुष का सान्निध्य चाहिए, बस !

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