विदेशी भाषा का घातक बोझ सबसे बड़ा दोष है !


राष्ट्रभाषा हिन्दी ही क्यों ?

      एक प्रांत का दूसरे प्रांत से संबंध जोड़ने के लिए एक सर्वसामान्य भाषा की आवश्यकता है । ऐसी भाषा तो हिन्दी-हिन्दुस्तानी ही हो सकती है ।

      मराठी, बंगाली, सिंधी और गुजराती लोगों के लिए तो यह बड़ा आसान है, कुछ महीनों में वे हिन्दी पर अच्छा काबू करके राष्ट्रीय कामकाज उसमें चला सकते हैं । मुझे पक्का विश्वास है कि किसी दिन द्राविड़ भाई-बहन गम्भीर भाव से हिन्दी का अभ्यास करने लग जायेंगे । आज अंग्रेजी पर प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए वे जितनी मेहनत करते हैं, उसका 8वाँ हिस्सा भी हिन्दी सीखने में करें तो बाकी हिन्दुस्तान के जो दरवाजे आज उनके लिए बंद हैं वे खुल जायें और वे इस तरह हमारे साथ एक हो जायें जैसे पहले कभी न थे ।

      हम किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं को नुकसान पहुँचाना या मिटाना नहीं चाहते । हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिए हम हिन्दी भाषा सीखें । ऐसा कहने से हिन्दी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता । हिन्दी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं । वह राष्ट्रीय होने के लायक है । वही भाषा राष्ट्रीय बन सकती है जिसे अधिक संख्या में लोग जानते-बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो । अंग्रेजी राष्ट्रभाषा कभी नहीं बन सकती ।

      जितने साल हम अंग्रेजी सीखने में बरबाद करते हैं, उतने महीने भी अगर हम हिन्दुस्तानी सीखने की तकलीफ न उठायें तो सचमुच कहना होगा कि जनसाधारण के प्रति अपने प्रेम की जो डींगें हम हाँका करते हैं वे निरी डींगें ही हैं ।

देश के नौजवानों के साथ सबसे बड़ा अन्याय

      हमें जो कुछ उच्च शिक्षा अथवा जो भी शिक्षा मिली है वह केवल अंग्रेजी के ही द्वारा न मिली होती तो ऐसी स्वयंसिद्ध बात को दलीलें देकर सिद्ध करने की कोई जरूरत न होती कि किसी भी देश के बच्चों को अपनी राष्ट्रीयता टिकाये रखने के लिए नीची या ऊँची सारी शिक्षा उनकी मातृभाषा के जरिये ही मिलनी चाहिए ।

      यह स्वयंसिद्ध बात है कि जब तक किसी देश के नौजवान ऐसी भाषा में शिक्षा पाकर उसे पचा न लें जिसे प्रजा समझ सके, तब तक वे अपने देश की जनता के साथ न तो जीता-जागता संबंध पैदा कर सकते हैं और न उसे कायम रख सकते हैं । आज इस देश के हजारों नौजवान एक ऐसी विदेशी भाषा और उसके मुहावरों पर अधिकार पाने में कई साल नष्ट करने को मजबूर किये जाते हैं जो उनके दैनिक जीवन के लिए बिल्कुल बेकार है और जिसे सीखने में उन्हें अपनी मातृभाषा या उसके साहित्य की उपेक्षा करनी पड़ती है । इससे होनेवाली राष्ट्र की अपार हानि का अंदाजा कौन लगा सकता है ? इससे बढ़कर कोई वहम कभी था ही नहीं कि अमुक भाषा का विकास हो ही नहीं सकता या उसके द्वारा गूढ़ अथवा वैज्ञानिक विचार समझाये ही नहीं जा सकते । भाषा तो अपने बोलनेवालों के चरित्र और विकास का सच्चा प्रतिबिम्ब है ।

अंग्रेजी भाषा के दुष्परिणाम

      विदेशी शासन के अनेक दोषों में देश के नौजवानों पर डाला गया विदेशी भाषा के माध्यम का घातक बोझ इतिहास में एक सबसे बड़ा दोष माना जायेगा । इस माध्यम ने राष्ट्र की शक्ति हर ली है, विद्यार्थियों की आयु घटा दी है, उन्हें आम जनता से दूर कर दिया है और शिक्षण को बिना कारण खर्चीला बना दिया है । अगर यह प्रक्रिया अब भी जारी रही तो वह राष्ट्र की आत्मा को नष्ट कर देगी । इसलिए शिक्षित भारतीय जितनी जल्दी विदेशी माध्यम के भयंकर वशीकरण से बाहर निकल जायें उतना ही उनका और जनता का लाभ होगा ।

इसे सहन नहीं किया जा सकता

      अंग्रेजी के ज्ञान के बिना ही भारतीय मस्तिष्क का उच्च-से-उच्च विकास सम्भव होना चाहिए । हमारे लड़कों और लड़कियों को यह सोचने का प्रोत्साहन देना कि अंग्रेजी जाने बिना उत्तम समाज में प्रवेश करना असम्भव है’ - यह भारत के पुरुष-समाज और खास तौर पर नारी-समाज के प्रति हिंसा करना है । यह विचार इतना अपमानजनक है कि इसे सहन नहीं किया जा सकता । इसलिए उचित और सम्भव तो यही है कि प्रत्येक प्रांत में उस प्रांत की भाषा का और सारे देश के पारस्परिक व्यवहार के लिए हिन्दी का उपयोग हो । हिन्दी बोलनेवालों की संख्या करोड़ों की रहेगी किंतु (ठीक ढंग से) अंग्रेजी बोलनेवालों की संख्या कुछ लाख से आगे कभी नहीं बढ़ सकेगी । इसका प्रयत्न भी करना जनता के साथ अन्याय करना होगा ।

पहली और बड़ी-से-बड़ी समाज-सेवा

      अंग्रेजी के ज्ञान की आवश्यकता के विश्वास ने हमें गुलाम बना दिया है । उसने हमें सच्ची देशसेवा करने में असमर्थ बना दिया है । अगर आदत ने हमें अंधा न बना दिया होता तो हम यह देखे बिना न रहते कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण आम जनता से हमारा संबंध टूट गया है, राष्ट्र का उत्तम मानस उपयुक्त भाषा के अभाव में अप्रकाशित रह जाता है और आधुनिक शिक्षा से हमें जो नये-नये विचार प्राप्त हुए हैं उनका लाभ सामान्य लोगों को नहीं मिलता । पिछले 60 वर्षों से हमारी सारी शक्ति ज्ञानोपार्जन के बजाय अपरिचित शब्द और उनके उच्चारण सीखने में खर्च हो रही है । हमारी पहली और बड़ी-से-बड़ी समाजसेवा यह होगी कि हम अपनी प्रांतीय भाषाओं का उपयोग शुरू करें तथा हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में उसका स्वाभाविक स्थान दें ।


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