साधन को जीवन न
मानें।
- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
शरीर साधन है जीवन को
जानने के लिए । हम साधन को जीवन मान लेते हैं और वास्तविक जीवन की खोज नहीं करते ।
वास्तव में हम शरीर नहीं बल्की शरीर हमारा साधन है । घर, दुकान, दफ्तर, रूपया-पैसा, कपड़ा, गहने – ये सब शरीर के साधन हैं ।
जब हम शरीर नहीं हैं तो उसके काम आनेवाली वस्तुएँ हमारी कैसे हो सकती हैं?
शरीररूपी साधन हमें सदुपयोग
करने के लिए मिला है । उसे सदा के लिए सँभालकर रखना संभव नहीं है । मुर्दे को फूँक
मारकर उठानेवालों को भी अपना साधन – यह शरीर तो छोड़ना ही
पड़ता है । चाहे औलिया हों, पीर-फकीर हों, श्रीराम या श्रीकृष्ण जैसे अवतार हों लेकिन उन्हें भी
अपनी लीला अथवा समाधि के बाद
शरीररूपी साधन छोड़ना ही पड़ा ।
यदि हम साधनों को साधन
समझें और उनका सदुपयोग करें तो सत्यस्वरूप जीवन की प्राप्ति हो जायेगी । जो साधनों
को एकत्रित करके दुखी होने की कोशिश करता है,
वह अपने जीवन में
अशांति, भय, चिंता, शोक और मुसीबतों को
बुलाता है । कई लोग ‘कोई बड़ी सत्ता मिल जाय
तो सुखी हो जाऊँगा... यह मिले तो सुखी हो जाऊँगा... वह मिले तो सुखी हो जाऊँगा...’ इस प्रकार के ख्वाब देखते रहते हैं । लेकिन खूब साधन मिलने
से वास्तविक जीवन की प्राप्ति हो जायेगी यह बात नहीं है । आपके पास जो भी साधन हैं
उनका अगर ठीक ढंग से सदुपयोग करोगे तो वास्तविक जीवन की प्राप्ति हो जायेगी ।
गरीब होना पाप नहीं है, कमजोर या पिछड़ा हुआ होना पाप नहीं है और धन, बल एवं सुविधाओं से सम्पन्न होना भी पाप नहीं है ।
बड़े-में-बड़ा पाप है मिले हुए साधन का दुरूपयोग करना । अगर इन वस्तुओं का, साधनों का सदुपयोग करें तो सत्यस्वरूप जीवन की प्राप्ति हो
सकती है ।
सत्यस्वरूप जीवन कोई दूर नहीं
है, पराया नहीं है । कालांतर
में अथवा लोकांतर में मिलेगा, ऐसा भी नहीं है । सत्यस्वरूप
जीवन तुम्हारा अपना आपा है ।
चार दोस्त बगीच में बैठे गपशप लगा रहे थे । उनमें एक सरदार, एक सिंधी, एक मारवाड़ी ओर एक जाट था
। यदि उनमें से कोई सोचे कि ‘यार ! मुझे मनुष्य का
दर्शन करना है ।’ तो अब जाट को मनुष्य से
मिलना हो तो कितनी देर लगेगी? सरदार को मनुष्य से मिलना
हो तो कितनी देर लगेगी? सिंधी या मारवाड़ी को
मनुष्य से मिलना हो तो कितनी देर लगेगी?
सरदार पहले मनुष्य है, बाद में सरदार है । सिंधी पहले मनुष्य है, बाद में सिंधी है । ऐसे ही पहले आपका सत्यस्वरूप जीवन है, बाद में यह शरीररूपी साधन है । इतना आसान है जीवन ! इतना
सरल है वह परमात्मा ! किंतु साधन को ‘मैं’ मानने से बुद्धि स्थूल हो गयी, समझ मोटी हो गयी इसलिए बड़े-बड़े भोग, बड़े-बड़े त्याग करने पर
भी वास्तविक जीवन के दर्शन नहीं होते ।
आप शरीररूपी साधन को जीवन मानते
हैं, इसीलिए शरीर की सुरक्षा
को अपनी सुरक्षा मानते हैं, उसके बुढ़ापे को अपना
अपना बुढ़ापा मानते हैं, उसके स्वास्थ्य को अपना
स्वास्थ्य मानते हैं, उसकी बीमारी को अपनी
बीमारी मानते हैं । इस प्रकार आप अपने को भूलने के काम में ही लगे रहते हैं । अपने
वास्तविक स्वरूप पर अज्ञान की परतें बढ़ाते ही चले जाते हैं ।
कुछ लोग बोलते हैं कि ‘आप जैसा कर्म करोगे वैसा फल आपको भोगना ही पड़ेगा ।’ कुछ बोलते हैं कि ‘यदि आप पुरुषार्थ करो तो
परमात्मा तक को पा सकते हो ।’ इस पर आपके मन में यह
प्रश्न उठ सकता है कि ‘अगर कर्म का फल प्रारब्ध
है तो अपना-अपना प्रारब्ध ही भोगें, फिर हम पुरुषार्थ क्यों
करें और ‘अगर पुरुषार्थ से ही सब
होता तो प्रारब्ध को क्यों मानें?’
भूतकाल में आपने जो
पुरुषार्थ किया है उसीके फलस्वरूप आपके पास यह शरीररूपी मुख्य साधन है । अभी आप उस
साधन का चाहे सदुपयोग करो या दुरूपोयोग, आप पूर्ण स्वतंत्र हो ।
साधन का सदुपोयोग करना ही पुरुषार्थ है और दुरूपयोग करना नासमझी है, अज्ञान है, पलायनवादिता है ।
समझो, आप गरीब हैं तो इस मिली हुई गरीबी का भी सदुपयोग करो । गरीब
या निर्बल मनुष्य को धैर्य बँधाने के लिए बोला जाता हैः निर्बल के बल राम ।
तात्पर्य यह है कि गरीब या निर्बल के रक्षक,
आधार भगवान हैं – ऐसा समझकर आप अपने को गरीब न मानें । ‘मैं निर्बल हूँ लेकिन भगवान का हूँ । जब में भगवान का हुआ
तो भगवान किसके हुए ? भगवान मेरे हुए?’ ऐसा चिंतन करके भी आप
साध्य की तरफ, सत्यस्वरूप की तरफ जा
सकते हैं ।
यदि आपने गरीबी और निर्बलता का
सदुपयोग कर लिया तो आपको सत्यस्वरूप परमात्मा की सहायता मिलेगी, आनंद मिलेगा । सत्यस्वरूप का आनंद मिलेगा तो उसके आगे बाह्य
गरीबी का दुःख क्या मायना रखेगा? जब आपका यह शरीर ही सच्चा
नहीं है तो इसकी बीमारी वास्तविक हो सकती है क्या? शरीर की
तंदुरूस्ती वास्तविक है क्या? गरीबी या अमीरी वास्तविक
है क्या ?
वास्तविक जीवन तो शाश्वत
है, नित्य है, शुद्ध है । यदि आपने उस शाश्वत तत्त्व का चिंतन-स्मरण किया
और उसके ज्ञान की तरफ दृढ़ता से लगे रहे तो समझो, आपने साधन का
सदुपयोग किया । शरीर, मन, बुद्धि का सदुपयोग करने से आप सत्य को समझ जायेंगे ।
सत्यस्वरूप आत्मा के करीब आ जायेंगे ।
यदि कोई बलवान है, सत्तावान है और अपने को निर्बल नहीं मानता है तो ठीक है ।
बलवान या सत्तावान होना कोई बुरा नहीं, स्वस्थ होना कोई बुरा
नहीं किंयु ये भी आपके साधन हैं । इन साधनों का भी सदुपयोगी करें ।
अगर आपका शरीर बलवान है
तो उसके बल का सदुपयोग सेवाकार्य में कर लो । ऐसे ही धन-बल को सेवाकार्य में लगा
दो । मनोबल का सदुपयोग सबके हितचिंतन में
कर लो । बुद्धि को ‘वास्तविक जीवन क्या है?’ इससे जानने मैं लगा दो ।
जो बलवान हैं वे शरीररूपी
साधन को ‘मैं’ मानने की बेवकूफी छोड़ दें और उसका सदुपयोग कर लें । वैसे
भी शरीर, धन आदि छोड़कर ही मरना
पड़ेगा । जो मरनेवाला या नष्ट होनेवाला है,
उससे ममता हटा
लें और अपने सत्यस्वरूप आत्मदेव से प्रीति करें । अपने अमर आत्मस्वभाव का बार-बार
सत्संग व सुमिरन करें ।
[ऋषि प्रसाद अंक - 139]
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