वैदिक धर्म क्यों महान है?
संसार में अनेक मत-मतान्तर
प्रचलित हैं जो विगत पांच सौ से पांच हजार वर्षों में उत्पन्न हुए हैं। इन मतों ने
अपने से पूर्व प्रचलित अवैदिक मतों वा वैदिक धर्म के प्रचलित कुछ सिद्धान्तों व
मान्यताओं को भी अपनाया है। वैदिक धर्म संसार का सबसे प्राचीन मत है। सृष्टि के
आरम्भ में परमात्मा ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य
तथा अंगिरा को चार वेदों का ज्ञान दिया था। इन चार ऋषियों ने इस ज्ञान को ब्रह्मा
जी नाम के ऋषि को दिया। ब्रह्मा जी से ही वेदों के प्रचार की परम्परा आरम्भ हुई।
वेद सर्वांगीण धर्म ग्रन्थ है
अर्थात् इसमें मनुष्य के लिए आवश्यक व उपयोगी सभी विषयों का ज्ञान है। वेद का
अध्ययन कर मनुष्य का आध्यात्मिक एवं भौतिक सभी प्रकार का विकास होता है। वेदों का
अध्ययन कर तथा वेद की शिक्षाओं को अपनाकर मनुष्य का जीवन आदर्श जीवन बनता है। इससे
वह स्वस्थ एवं निरोग रहता है और जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम
व मोक्ष को प्राप्त होता है। अन्य मतों में तो मतों में धर्म की परिभाषा भी स्पष्ट
नहीं है। अन्य मत अपने अपने आचार्य, गुरु व मत के
संस्थापक की शिक्षाओं के पालन को ही अपना कर्तव्य मानते हैं। वह अपने मत की
मान्यताओं के सत्यासत्य होने की परीक्षा नहीं करते। हमारे ऋषि-मुनि वेदों की
मान्यताओं को सत्य की कसौटी पर कस कर ही उनका प्रचार करते थे और उन वैदिक
परम्पराओं से ही समाज तथा मानव मात्र का कल्याण व हित सिद्ध होता आया है। अनेक मत
ऐसे हैं जिनका उद्देश्य येन केन प्रकारेण अपने मत के अनुयायियों की संख्या बढ़ाना
है। वोट के भिक्षुक राजनीतिक दल इस प्रवृत्ति पर आंखें मूंदे रहते हैं। भारत में
जो वेदेतर मतानुयायी हैं वह सब इसी प्रकार से मतान्तरित वा धर्मान्तरित होकर
अस्तित्व में आये हैं। सभी मतों में अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों की गुणवत्ता व
दोषों को जानकर असत्य के त्याग तथा उनमें संशोधन कर उन्हें समयानुकूल उपयोगी व
जनहितकारी बनाने पर ध्यान नहीं दिया जाता। वह सब वर्तमान में भी उसी स्थिति में
हैं, जो उनके प्रचलन व आरम्भ के समय में थी।
विचार करने पर अनुभव किया जाता है
कि धर्म व विज्ञान की मान्यताओं को परस्पर पूरक होना चाहिये। किसी मत व धर्म कि जो
मान्यतायें ज्ञान व विज्ञान के विरुद्ध होती हैं वह अज्ञान व अन्धविश्वासों से
युक्त होती हैं। अज्ञान व अन्धविश्वास मनुष्य की उन्नति में बाधक होते हैं जो
मनुष्य को पतन के मार्ग पर ले जाते हैं। भारत की पराधीनता व पतन का कारण भी
धार्मिक अज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त सामाजिक परम्परायें ही थीं। ज्ञान व
विज्ञान मनुष्य को जगत के सत्य नियमों से परिचित कराते हैं। पांच हजार वर्ष पूर्व
हुए महाभारत युद्ध के बाद विज्ञान का आरम्भ विगत तीन चार सौ वर्ष पूर्व माना जा
सकता है और इस अल्प अवधि में विज्ञान के प्रायः सभी सिद्धान्तों व मान्यताओं में
उत्तरोत्तर आवश्यकतानुसार परिवर्तन व संशोधन हुआ है। किसी मान्यता व सिद्धान्त में
चाहे व धर्म हो या विज्ञान, इसके प्रवर्तकों का अल्पज्ञ होना है।
विज्ञान का आरम्भ व उन्नति मनुष्यों ने अपने ज्ञान, अनुभूतियों तथा
तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार की है। सभी परवर्ती वैज्ञानिकों ने पूर्व खोजे
गये वैज्ञानिक रहस्यों वा सिद्धान्तों की परीक्षा की और उनमें अपेक्षित सुधार व
संशोधन किये। यह क्रम वर्तमान में भी जारी है। वैज्ञानिक जगत में कोई नया या
पुराना, अनुभवहीन व अनुभवी वैज्ञानिक यह नहीं कहता कि पूर्व का अमुक
वैज्ञानिक बहुत बड़ा वैज्ञानिक था इसलिये उसके खोजे गये किसी सिद्धान्तों में
परिवर्तन नहीं किया जा सकता। हम विज्ञान व वैज्ञानिकों को अपने नियमों व
सिद्धान्तों पर सतत विचार, चिन्तन-मनन व परीक्षण करने तथा उसमें
किसी पूर्व वैज्ञानिक की त्रुटि या न्यूनता ज्ञात होने पर उसकी उपेक्षा न करने के
स्वभाव वा प्रवृत्ति की प्रशंसा करते हैं और उनके प्रति नतमस्तक हैं। किसी वेदेतर
वा अर्वाचीन मत में ऐसे विचार, मनन, परीक्षण एवं
सशोधन की परम्परा नहीं है। यदि वह ऐसा करें तो उनके अस्तित्व पर ही खतरा बन सकता
है। वैदिक धर्म ही अपने अनुयायियों को विचार, चिन्तन, मनन, परीक्षण
एवं आवश्यकता पड़ने पर संशोधन का अधिकार देता है। इस कारण से वैदिक घर्म पुरातन व
आधुनिक दोनों समयों में सबके लिये ग्राह्य एवं पालनीय धर्म बना हुआ है।
सत्यार्थप्रकाश में प्राकशित यही वैदिक सद्धर्म भविष्य के सभी मनुष्यों का धर्म हो
सकता है वा होगा। इसका कारण यह है कि इसकी नींव सत्य पर, ईश्वर
के ज्ञान पर तथा प्रकृति के अनुकूल ज्ञान व विज्ञान के नियमों पर आधारित है।
वैदिक धर्म अपनी ज्ञान-विज्ञान युक्त
मान्यताओं के कारण ही संसार के सब मनुष्यों के लिये महान धर्म है। वेदों की
शिक्षायें किसी एक मत-विशेष, उसके आचार्य व अनुयायियों के लिये न
होकर मानव मात्र के लिये हैं और यह सभी मनुष्यों एवं प्राणीमात्र के लिये हितकारी
एवं कल्याणप्रद भी हैं। वेदों की कोई मान्यता सत्य नियमों व वैज्ञानिक सिद्धान्तों
के विपरीत नहीं है। वेद और विज्ञान दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। वेद की शिक्षाओं
से मनुष्यों का सर्वांगीण विकास व उन्नति होती है। वेद-धर्म का पालन करने से ही
मनुष्य का अभ्युदय अर्थात् सांसारिक उन्नति होने सहित पारलौकिक उन्नति अर्थात्
मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। मोक्ष के विषय में वेदेतर मतों को ज्ञान ही नहीं
है। वेदेतर मतों में स्वर्ग की कल्पना है परन्तु उसका ज्ञान व विज्ञान पर आधारित
स्वरूप जिसे आत्मा व बुद्धि स्वीकार करे, उपलब्ध नहीं
होता। वेदों में स्वर्ग नाम का कोई स्थान इस अनन्त ब्रह्माण्ड में कहीं नहीं है।
स्वर्ग सुख विशेष को कहते हैं जो हमें इस मनुष्य जीवन में सत्य धर्म का आचरण करने
से प्राप्त होता है। स्वर्ग का अर्थ सुख या सुख विशेष होता है। जो व्यक्ति दुःखों
से रहित है वही सुखी है व स्वर्ग में है। जो व्यक्ति रोग आदि तथा अन्य मानसिक
पीड़ाओं से पीड़ित हैं, वह दुःखी व्यक्ति नरक में पड़े हुए कहे
जाते हैं। परमात्मा हमारे मनुष्य योनियों के कर्मो के सुख व दुःख रूपी फलों को
देते हैं। ईश्वर हमारे पुनर्जन्म में हमारे कर्मों के अनुसार जाति, आयु
व भोग की व्यवस्था करते हैं। यदि परमात्मा हमें मनुष्येतर योनि में भेजता है तो
वहां हम अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल भोगते हैं। मनुष्येतर सभी योनियां नरक का
धाम कही जा सकती हैं। उन योनियों में मनुष्य योनि के समान सुख की उपलब्धि नहीं
होती। मनुष्य योनि में भी यदि दुःख अधिक व सुख कम हैं तो उसे भी नरक व स्वर्ग
दोनों से युक्त माना जाता व माना जा सकता है। मोक्ष स्वर्ग व नरक की दोनों
अनुभूतियों से भिन्न पूर्णानन्द की अवस्था होती है जिसमें जीवात्मा जन्म व मरण के
बन्धन से छूट कर ईश्वर के सान्निध्य में आनन्द का लाभ प्राप्त करता है। मोक्ष की
अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों होती है। यह ईश्वर का एक वर्ष होता है जिसे परान्तकाल
कहते हैं। इस अवधि में जीवात्मा जन्म मरण से छूट कर आनन्द की अवस्था में रहता है।
इसका विस्तृत वर्णन ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में है। वहां
मोक्ष के विषय को पढ़कर लाभ उठाया जा सकता है।
वैदिक धर्म हमें सन्ध्या व ध्यान
आदि साधनों सहित वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कराकर ईश्वर से मिलाता
है। सन्ध्या व अग्निहोत्र यज्ञ करने से जीवात्मा को जो सुख व सन्तोष मिलता है वह
अन्य भौतिक साधनों, परोपकार व दान आदि से मिलने वाले सुखों से कुछ भिन्न व महत्वपूर्ण
होता है। ऋषि दयानन्द ने देश भर में जाकर अविद्या का नाश करने हेतु वेदों का
प्रचार किया था। वह अपने अधिकांश समय धर्म प्रचार, लेखन तथा लोगों
से भेंट करने में व्यस्त रहते थे। इस पर भी वह ईश्वर का ध्यान व उपासना के लिये
समय निकालते थे। उपासना से जहां आत्मा की शक्तियों में वृद्धि होती है वहीं उसे
ईश्वर की कृपा, मार्गदर्शन व बल भी प्राप्त होता है। वैदिक धर्म का आचरण इस
आध्यात्मिक सुख को दिलाने के लिये महान सिद्ध होता है। इस सुख की प्राप्ति में
मनुष्य का कोई धन व साधन नहीं लगता अपितु इन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर मन व
आत्मा से परमात्मा का ध्यान व चिन्तन ही करना होता है। योगदर्शन में ध्यान व समाधि
पर प्रकाश डाला गया है। यह प्रसन्नता की बात है कि विश्व में योग का प्रचार वृद्धि
को प्राप्त हो रहा है। ध्यान तथा ईश्वरोपासना से मनुष्य का स्वास्थ्य भी अनुकूल
रहता है और अनेक छोटे-मोटे रोग भी नियंत्रित रहते हैं। योग भी वेद की ही देन है।
योगदर्शनकार ऋषि पतंजलि वेद के ऋषि व अनुयायी थे। वेदों का अध्ययन कर ही उन्होंने
हजारों वर्षों पूर्व येागदर्शन का प्रणयन किया था। वेदज्ञान व योग की सहायता से ही
मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न अवश्य
करने चाहिये।
वेद मनुष्य को कर्म का महत्व
बताता है। कर्म मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं जिन्हें शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व
पाप कर्म कहते हैं। पुण्य कर्मों से सुख व आत्मा की उन्नति होती है और पाप कर्मों
का फल दुःख, आत्मा की अवनति तथा परजन्मों में भी दुःख होता है। यह ज्ञान हमारे
मत-मतान्तरों के आचार्यों व अनुयायियों के पास नहीं है। कुछ मतों में तो अनेक
प्रकार के पापाचार की अनुमति प्रतीत होती है। वेद निर्दोष पशुओं की अकारण वा
मांसाहार के लिये हत्या को उचित नहीं मानते। विचार करने पर पशुओं की हत्या, उनका
किसी भी प्रकार से उत्पीड़न एवं मांस भक्षण पाप कर्म की कोटि में आता है। वेद के
अनुयायी इसे पाप कर्म होने के कारण न तो स्वयं करते हैं और न दूसरों को करने की
अनुमति देते हैं। हमारे सभी ऋषि-मुनि, योगी एवं राम, कृष्ण, दयानन्द, आचार्य
चाणक्य आदि शाकाहारी थे जो दुग्ध, अन्न, फल आदि से जीवन
निर्वाह करते थे। उन्होंने इस शाकाहार से विश्व में अनेक आश्चर्यजनक कार्य किये
है। हजारों वर्ष बीत जाने पर भी उनका यश स्थिर है।
वेदों का शाकाहार और पशुओं के
प्रति प्रेम, दया एवं उनकी रक्षा का सन्देश भी वेदों को महान सिद्ध करता है। वेद
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना के प्रेरक हैं। वेदों के अनुसार मनुष्य जन्म से नहीं
अपितु अपने श्रेष्ठ कर्मों से महान बनता है। हमने सुना व पढ़ा है कि वैदिक कर्म फल
सिद्धान्त से प्रभावित होकर कुछ डाकू भी वैदिक धर्मी बने हैं और उन्होंने जीवन भर
ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र-यज्ञ सहित परोपकार एवं दान आदि के पुण्य के कामों को
किया है। सभी मतों से तुलना करने पर भी वेद सबसे महान सिद्ध होते हैं। ऋषि दयानन्द
का बनाया सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ इसका प्रमाण है। इसी के साथ लेख को विराम देते
हैं।
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