भूतपूर्व वैयाकरणज्ञ
                   एक समय था, जब भारत सम्पूर्ण विश्व में प्रत्येक क्षेत्र सबसे आगे था । प्राचीन काल में सभी भारतीय बहुश्रुत,वेद-वेदाङ्गज्ञ थे । राजा भोज को तो एक साधारण लकडहारे ने भी व्याकरण में छक्के छुडा दिए थे ।व्याकरण शास्त्र की इतनी प्रतिष्ठा थी की व्याकरण ज्ञान शून्य को कोई अपनी लड़की तक नही देता था ,यथा :- “अचीकमत यो न जानाति,यो न जानाति वर्वरी।अजर्घा यो न जानाति,तस्मै कन्यां न दीयते”

                   यह तत्कालीन लोक में ख्यात व्याकरणशास्त्रीय उक्ति है ‘अचीकमत, बर्बरी एवं अजर्घा इन पदों की सिद्धि में जो सुधी असमर्थ हो उसे कन्या न दी जाये” प्रायः प्रत्येक व्यक्ति व्याकरणज्ञ हो यही अपेक्षा होती थी ताकि वह स्वयं शब्द के साधुत्व-असाधुत्व का विवेकी हो,स्वयं वेदार्थ परिज्ञान में समर्थ हो, इतना सम्भव न भी हो तो कम से कम इतने संस्कृत ज्ञान की अपेक्षा रखी ही जाती थी जिससे वह शब्दों का यथाशक्य शुद्ध व पूर्ण उच्चारण करे :-
यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥

                   अर्थ : ” पुत्र! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो ताकि ‘स्वजन’ ‘श्वजन’ (कुत्ता) न बने और ‘सकल’ (सम्पूर्ण) ‘शकल’ (टूटा हुआ) न बने तथा ‘सकृत्’ (किसी समय) ‘शकृत्’ (गोबर का घूरा) न बन जाय। ”

                   भारत का जन जन की व्याकरणज्ञता सम्बंधित प्रसंग “वैदिक संस्कृत” पेज के महानुभव ने भी आज ही उद्धृत की है जो महाभाष्य ८.३.९७ में स्वयं पतञ्जलि महाभाग ने भी उद्धृत की हैं ।

                   सारथि के लिए उस समय कई शब्द प्रयोग में आते थे । जैसे—सूत, सारथि, प्राजिता और प्रवेता ।

                   आज हम आपको प्राजिता और प्रवेता की सिद्धि के बारे में बतायेंगे और साथ ही इसके सम्बन्ध में रोचक प्रसंग भी बतायेंगे । रथ को हाँकने वाले को “सारथि” कहा जाता है । सारथि रथ में बाई ओर बैठता था, इसी कारण उसे “सव्येष्ठा” भी कहलाता थाः—-देखिए,महाभाष्य—८.३.९७ सारथि को सूत भी कहा जाता था , जिसका अर्थ था—-अच्छी प्रकार हाँकने वाला । इसी अर्थ में प्रवेता और प्राजिता शब्द भी बनते थे । इसमें प्रवेता व्यकारण की दृष्टि से शुद्ध था , किन्तु लोक में विशेषतः सारथियों में “प्राजिता” शब्द का प्रचलन था । भाष्यकार ने गत्यर्थक “अज्” को “वी” आदेश करने के प्रसंग में “प्राजिता” शब्द की निष्पत्ति पर एक मनोरंजक प्रसंग दिया है । उन्होंने “प्राजिता” शब्द का उल्लेख कर प्रश्न किया है कि क्या यह प्रयोग उचित है ? इसके उत्तर में हाँ कहा है ।

कोई वैयाकरण किसी रथ को देखकर बोला, “इस रथ का प्रवेता (सारथि) कौन है ?”
सूत ने उत्तर दिया, “आयुष्मन्, इस रथ का प्राजिता मैं हूँ ।”
वैयाकरण ने कहा, “प्राजिता तो अपशब्द है ।”
                   सूत बोला, देवों के प्रिय आप व्याकरण को जानने वाले से निष्पन्न होने वाले केवल शब्दों की ही जानकारी रखते हैं, किन्तु व्यवहार में कौन-सा शब्द इष्ट है, वह नहीं जानते । “प्राजिता” प्रयोग शास्त्रकारों को मान्य है ।”
इस पर वैयाकरण चिढकर बोला, “यह दुरुत (दुष्ट सारथि) तो मुझे पीडा पहुँचा रहा है ।”
                   सूत ने शान्त भाव से उत्तर दिया, “महोदय ! मैं सूत हूँ । सूत शब्द “वेञ्” धातु के आगे क्त प्रत्यय और पहले प्रशंसार्थक “सु” उपसर्ग लगाकर नहीं बनता, जो आपने प्रशंसार्थक “सूत” निकालकर कुत्सार्थक “दुर्” उपसर्ग लगाकर “दुरुत” शब्द बना लिया । सूत तो “सूञ्” धातु (प्रेरणार्थक) से बनता है और यदि आप मेरे लिए कुत्सार्थक प्रयोग करना चाहते हैं, तो आपको मुझे “दुःसूत” कहना चाहिए, “दुरुत” नहीं ।

                   उपर्युक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि सारथि, सूत और प्राजिता तीनों शब्दों का प्रचलन हाँकने वाले के लिए था । व्याकरण की दृष्टि से प्रवेता शब्द शुद्ध माना जाता था । इसी प्रकार “सूत” के विषय में भी वैयाकरणों में मतभेद था ।