बुधवार विशेष: गणेश जी
के कटे सर की यहाँ की जाती है पूजा !
हिन्दू
धार्मिक मान्यता के अनुसार बुधवार के दिन को विशेष रूप से गणेश जी की पूजा के लिए
मुख्य माना जाता है। हिन्दू सनातन धर्म में गणेश जी को प्रथम पूज्य देवता माना
जाता है, सभी शुभ अवसरों पर मुख्य रूप से गणेश जी की पूजा सबसे पहले की जाती
है। शुभ लाभ के दाता भगवान श्री गणेश को भगवान् शिव और माता पार्वती का संतान माना
जाता है। आज हम आपको गणेश जी के कटे सर के रहस्य के बारे में बताने जा रहे हैं।
आइये जानते हैं कहाँ स्थापित है गणेश जी का कटा सर और क्या है इसके पीछे का रहस्य।
यहाँ आज भी स्थापित है
गणेश जी का कटा सर
पौराणिक
कथा के अनुसार शिव जी ने युद्ध के दौरान गणेश जी का सर धर से अलग कर दिया था। कहते
हैं की उस समय उन्हें मालूम नहीं था की गणेश जी उनके पुत्र हैं। माना जाता है कि, गणेश
जी को विशेष रूप से पार्वती माता ने मिट्टी के प्रयोग से बनाया था। गणेश जी का
सृजन करने के बाद माता पार्वती उन्हें मुख्य द्वार पर पहरा देने का आदेश देकर
स्नान करने चली जाती है। इसी बीच भगवान् शिव वहां आते हैं और और पार्वती माता से
मिलने के लिए महल के अंदर प्रवेश करना चाहते हैं। लेकिन बाल गणेश शिव जी को अंदर
जाने से रोक देते हैं, इसी बात पर शिव जी को गुस्सा आता है और
दोनों के बिच युद्ध छिड़ जाता है। अंत में गुस्से में आग बबूला शिव जी गणेश जी का
सर धर से अलग कर देते हैं। ये बात जब माता पार्वती को मालूम चलती है तो वो शिव जी
से अपने बेटे को तुरंत ही जिन्दा करने की मांग करती हैं। गणेश जी को हाथी का सर
लगाने के बाद शिव जी उन्हें फिर से जिंदा कर देते हैं।
यहाँ आज भी की जाती है
गणेश जी के कटे सर की पूजा
धार्मिक
मान्यता के आधार पर शिव जी ने गणेश जी के इंसानी सर को काटने के बाद उसे एक गुफा
में रख दिया था। आपको बता दें कि, शिव जी ने जहाँ पर गणेश जी का कटा सर
रखा था वो जगह है उत्तराखंड का पिथौरागढ़। प्राचीन कल में इस जगह को मुख्य रूप से
पातळ भुवनेश्वर के नाम से जाना है। स्कंद पुराण से मिले तथ्यों के अनुसार गणेश जी
के कटे सर को भगवान शिव ने इसी जगह पर सबसे छुपा कर रखा था। उत्तराखंड के पातळ
भुवनेश्वर गुफ़ा में रखें गए गणेश जी के सर को विशेष रूप से आदिगणेश के नाम से जाना
जाता है और उसी रूप में उनकी पूजा की जाती है। इस गुफा के 90 फ़ीट
अंदर गणेश जी का शिला रूप में मस्तक स्थापित है। मान्यता है कि, इस
गुफ़ा की खोज शंकराचार्य ने की थी।
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