क्या कहती है ये तस्वीर...

मुझे नहीं पता कि इस तस्वीर के पहले की कहानी क्या है। मगर बहुत मुमकिन है कि जिस घर में इस बकरे की बलि ली गई, कुछ रोज़ पहले ही इसे वहां लाया गया हो। बच्ची उससे खेलती भी हो। उसे एक-आध बार पानी भी पिलाया हो। और जब आज उसने उसका सिर यूं फर्श पर पड़े देखा, तो उसे लगा हो कि ये हरकत क्यूं नहीं कर रहा? ख्याल आया होगा कि कहीं इसे प्यास तो नहीं लगी। और उसी मासूमियत में उसने उसके आगे पानी कर दिया ताकि प्यास लगी हो, तो वो पानी पी ले।

अब सवाल ये है कि जो सहज मानवीय संवेदना एक 3 साल के बच्चे में है वो बड़ों में कहां गायब हो गई? और जवाब ये है कि बच्ची ने जो किया वो स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया थी, वो प्रतिक्रिया जो अभी किसी धार्मिक नियम कायदे के हाथों भ्रष्ट नहीं हुई है। और जिन बड़ों का ऐसा करते भी दिल नहीं पसीजा, वो इसलिए क्योंकि वो उसे धार्मिक आस्था के तहत नेक काम मानकर करते हैं। और धर्म तो ऐसी दलील है जो बड़ी से बड़ी हिंसा को पवित्रता प्रदान कर देती है। जिसमें बजाए अपनी हिंसा पर शर्मिंदा होने के, आप अपनी ही मूर्खता पर गौरवान्वित होते हैं।

कुछ रोज़ पहले मैंने पहले मैंने एक विडियो देखा जिसमें हाथी का एक छोटा बच्चा तालाब में गिर जाता है, उसे बचाने के लिए आसपास के सभी हाथी एकजुट हो जाते हैं। उसे बचाने के लिए सब परेशान हो जाते हैं। वो समझ जाते हैं जल्द ही इसे बाहर नहीं निकाला गया तो ये मर सकता है और जल्द ही सबकी कोशिशों से बच्चे को बचा लिया जाता है।

मेरा साफ मानना है कि जान चाहे इंसान की हो या जानवर की, उस पर पहला हक़ सिर्फ और सिर्फ उसे जन्म देने वाले का होता है। दुनिया में किसी भी राजनीतिक विवाद या धार्मिक आस्था को ये हक नहीं कि वो कैसी भी हिंसा कर एक मां से उसका बच्चा छीन लें। आस्था अनदेखी है और जीवन प्रत्यक्ष। किसी अनदेखे की खातिर प्रत्यक्ष की बलि लेना कहां तक जायज़ है, मुझे नहीं पता।