पुत्रि पबित्र किये कुल दोऊ।
                      एक परिवार में एक सेवानिवृत्त ईमानदार न्यायाधीश और उनकी पत्नी दोनों धार्मिक विचारों के सदगृहस्थ थे। उनकी एक पुत्री थी लक्ष्मी, जिसे बी.ए. तक आधुनिक शिक्षा के साथ हिन्दू धर्म व संस्कृति की ऊँची शिक्षा तथा बचपन से ही सत्संग का माहौल मिला था। जज साहब अपनी बेटी के लिए संस्कारी, ईमानदार और सत्संगी वर की तलाश में थे। एक दिन रास्ते में उनकी गाड़ी के इंजन में खराबी आ गयी। चालक द्वारा बहुत प्रयास करने पर भी वह ठीक नहीं हो रहा था और कार को धक्का लगाने के लिए भी कोई तैयार न था। तभी सादे पोशाक में एक नवयुवक वहाँ आया। चालक को स्टीयरिंग पकड़ने के लिए कहकर उसने अकेले ही भारी गाड़ी को धक्का देना चालू किया और गाड़ी चालू किया और गाड़ी चालू हो गयी। जज साहब उस पुरुषार्थी, नेक युवक को धन्यवाद देकर उसे उसके गंतव्य स्थान तक पहुँचाने हेतु अपनी गाड़ी में बिठा लिया। गाड़ी में जज साहब द्वारा परिचय पूछने पर उसने बतायाः "मैं विश्वविद्यालय का एक छात्र तथा गरीब परिवार का लड़का हूँ। प्रतिवर्ष प्रथम आने के कारण मुझे छात्रवृत्ति मिलती है, जिससे मैट्रिक से एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की है। अब सरकारी छात्रवृत्ति द्वारा आगे की शिक्षा प्राप्त करने हेतु दो महीने के भीतर परदेश जाऊँगा।" युवक की बुद्धिशीलता और अदबभरे व्यवहार से जज साहब बहुत प्रभावित हुए। 'भले ही इसके पास पैसे की पूँजी नहीं है, मगर संस्कारों की पूँजी तो है।' – यह सोचकर उन्होंने अपनी पुत्री लक्ष्मी का विवाह उस युवक के साथ कर दिया। जज साहब की इच्छा थी कि दामाद के परदेश जाने से पहले लक्ष्मी अपनी ससुराल हो आये। प्रस्ताव को सुनकर युवक बोलाः "मैं पहले गाँव जाकर घर ठीक-ठाक करा आऊँ फिर ले जाऊँगा।" क्योंकि लड़के का घर खंडहर था। युवक ने गाँव आकर अपने धनाढय चाचा से प्रार्थना की कि वे अपने घर को उसका बताकर लक्ष्मी को वहीं रख लें। चाचा मान गये। लक्ष्मी को ससुराल लाकर युवक 5-7 दिनों बाद परदेश चला गया। लक्ष्मी अपने मिलनसार स्वभाव के कारण 2-4 दिन में ही सबकी चहेती बन गयी।
                                  एक दिन एक महिला ने लक्ष्मी को ताना कसाः "क्या तुम्हारा बाप अँधा था जो बिना देखे तुझे दूसरे के घर में रहने को भेज दिया ?" लक्ष्मी ने आश्चर्य से पूछाः "क्या यह मेरा घर नहीं है ?" महिला ने एक खंडहर की ओर इशारा करते हुए कहाः "देखो, वह है तुम्हारा घर ! यह घर तो तुम्हारे पति के चाचे का है।" दुःखद परिस्थितियों में समता बनाये रखने की सुंदर सीख पायी हुई सत्संगी लक्ष्मी ने बिना रोये-धोये, खुशी-खुशी अपना सामान बाँधा और नौकर के हाथों उस खंडहर घर में सामान भिजवाने लगी। चाचा के समझाने पर उसने विनम्रता से कहाः" चाचा जी ! दोनों घर अपने ही हैं। मैं इसमें भी रहूँगी, उसमें भी रहूँगी। "उसकी सुंदर सूझबूझ से चाचा जी बहुत प्रसन्न हुए। अपने घर में आकर उसने सबसे पहले अपने ससुर के चरण छुए। फिर एक आदर्श गृहलक्ष्मी की तरह सारे घर को साफ-सुथरा करके सब कुछ एकदम व्यवस्थित कर दिया। रात को उस पढ़ी लिखी संस्कारी बहू ने अपनी स्थिति का वर्णन करते हुए माता-पिता को पत्र लिखाः 'आज मुझे आपके द्वारा मिले भारतीय संस्कृति के संस्कारों की पूँजी बहुत काम आयी। उन्हीं संस्कारों ने आज मुझे सभी परिस्थितियों का सामना कर हर हाल में खुश रहने की कला सिखायी है।... 'माता पिता को बेटी की समझ पर बड़ा गर्व हुआ। उन्होंने वहाँ से घर के निर्माण कार्य के सामान व कारीगरों के साथ एक पत्र भेजा, जिसमें एक पंक्ति लिखी थी, 'पुत्रि पबित्र किये कुल दोऊ।' लक्ष्मी उसे पढ़कर भावविभोर हो गयी। आये हुए कारीगरों ने कुछ ही समय में एक सुंदर मकान खड़ा कर दिया। परदेश गये अपने पति को लक्ष्मी ने अभी तक कुछ बताया नहीं था।
                         गृह-प्रवेश के दिन लक्ष्मी के माता-पिता व पति गाँव आये। बड़ी धूमधाम से सबसे पहले युवक के पिताजी को गृहप्रवेश कराया गया। इसके बाद सबने प्रवेश किया। इस कार्यक्रम को देखने हेतु आसपास की गरीब महिलाओं का एक झुंड अलग खड़ा था। बहू स्वयं एक-एक का हाथ पकड़कर उन्हें घरर के भीतर लायी और सबको भोजन कराया। सभी आदर्श बहू पर आशीर्वादों की वृष्टि करने लगे। पति तो यह परिवर्तन देखकर अवाक् सा रह गया। माता-पिता को भी अपनी पुत्री को देखकर आत्मसंतुष्टि हो रही थी कि सचमुच, आज सत्संग के कारण ही यह सम्भव हो पाया है। तत्पश्चात लक्ष्मी पति पुनः विदेश गया और कुछ दिनों बाद अपनी शिक्षा पूरी कर स्वदेश लौट आया और पूरा परिवार एक साथ रहने लगा। कैसी है भारत की दिव्य संस्कृति और संस्कार कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त छात्रा ने भी विपरीत परिस्थितियों में अपना धैर्य नहीं खोया बल्कि गृहस्थ-जीवन को सुखमय जीवन में बदल दिया, संयम-सदाचार, समत्व में सराबोर कर दिया।