भारत में छूआछूत का कलंक किसकी देन?
कुछ
लोगों का मानना है कि भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार बहुत ही सौहार्दपूर्ण
वातावरण में हुआ है। उनका यह भी कहना है की हिंदू समाज में छुआछात के कारण भारत
में हिन्दुओं ने बड़ी मात्रा में इस्लाम को अपनाया। उनके शब्दों में -
"हिंदुओं के मध्य फैले रूढिगत जातिवाद और छूआछात के कारणवश खासतौर पर कथित
पिछड़ी जातियों के लोग इस्लाम के साम्यभाव और भाईचारे की ओर आकृष्ट हुए और स्वेच्छापूर्वक
इस्लाम को ग्रहण किया।"
जिन लोगों ने अंग्रेजों द्वारा लिखे गए
व स्वतंत्र भारत के वामपंथी 'बुद्धिजीवियों' द्वारा
दुर्भावनापूर्वक विकृत किये गए भारतीय इतिहास को पढ़कर अपनी उपर्युक्त धारणाएँ बना
रखीं हैं, उन्हें इतिहास का शोधपरक अध्ययन करना चाहिए। उपर्युक्त कथन के विपरीत, सूर्य
जैसा जगमगाता हुआ सच तो यह है कि भारत के लोगों का इस्लाम के साथ पहला-पहला परिचय
युद्ध के मैदान में हुआ था।
अतः, इस
कथन में कोई सच्चाई नहीं है कि भारत के लोगों ने इस्लाम के कथित 'साम्यभाव
और भाईचारे' के दर्शन किये और उससे आकर्षित होकर स्वेच्छापूर्वक इस्लाम को ग्रहण
किया।
असल में, हिंदुत्व
और इस्लाम, दोनों बिलकुल भिन्न विचारधाराएँ हैं, बल्कि साफ़ कहा
जाए तो दोनों एक दूसरे से पूर्णतया विपरीत मान्यताओं वाली संस्कृतियाँ हैं, जिनके
मध्य सदियों पहले शुरू हुआ संघर्ष आज तक चल रहा है।
हाँ, इस्लामी
आक्रमण के अनेक वर्षों बाद भारत में कुछ समय के लिए सूफियों का खूब बोलबाला रहा।
सूफियों के उस 'उदारवादी' काल में निश्चित रूप से इस्लामी
क्रूरता भी मंद पड़ गयी थी। परन्तु, उस काल में भी
भारत के मूल हिंदू समाज ने कथित इस्लामी 'साम्यभाव' से
मोहित होकर स्वेच्छापूर्वक इस्लाम को अपनाने का कोई अभियान शुरू कर दिया था, इस
बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है।
हाँ, संघर्ष
की इस लम्बी कालावधि में स्वयं समय ने ही कुछ घाव भरे और अंग्रेजों के आगमन से
पहले तक दोनों समुदायों के लोगों ने परस्पर संघर्ष रहित जीवन जीने का कुछ-कुछ ढंग
सीख लिया था। उस समय इस्लामिक कट्टरवाद अंततः भारतीय संस्कृति में विलीन होने लगा
था।
यथार्थ में, भारत
के हिन्दुओं को इस्लाम के कथित 'साम्यभाव और भाईचारे' का
कभी भी परिचय नहीं मिल पाया। इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि मुसलमानों
ने भारत के सनातन-हिंदू-धर्मावलम्बियों के साथ किसी दूसरे कारण से नहीं, बल्कि
इस्लाम के ही नाम पर लगातार संघर्ष जारी रखा है। हिन्दुओं ने भी इस्लामी
आतकवादियों के समक्ष कभी भी अपनी हार नहीं मानी और वे मुसलमानों के प्रथम आक्रमण
के समय से ही उनके अमानवीय तौर-तरीकों के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करते आ रहे हैं।
महमूद गज़नबी हो या तैमूरलंग, नादिरशाह हो या औरंगजेब, जिन्ना
हो या जिया उल हक अथवा मुशर्रफ, कट्टरपंथी मुसलमानों के विरुद्ध
हिन्दुओं का संघर्ष पिछले 1200 वर्षों से लगातार चलता आ रहा है।
जिस इस्लाम के
कारण भारत देश में सदियों से चला आ रहा भीषण संघर्ष आज भी जारी हो, उसके
मूल निवासियों के बारे में यह कहना कि यहाँ के लोग उसी 'इस्लाम
के साम्यभाव और भाईचारे की ओर आकृष्ट हुए', एक निराधार
कल्पना मात्र है, जोकि सत्य से कोसों दूर है। भारत के इतिहास में ऐसा एक भी प्रमाण
नहीं मिलता जिसमे हिंदू समाज के लोगों ने इस्लाम में साम्यभाव देखा हो और इसके भाई
चारे से आकृष्ट होकर लोगों ने सामूहिक रूप से इस्लाम को अपनाया हो।
आइये, अब
हिन्दुओं के रूढ़िगत जातिवाद और छुआछूत पर भी विचार कर लें।
हिन्दुओं में
आदिकाल से गोत्र व्यवस्था रही है, वर्ण व्यवस्था भी थी, परन्तु
जातियाँ नहीं थीं। वेद सम्मत वर्ण व्यवस्था समाज में विभिन्न कार्यों के विभाजन की
दृष्टि से लागू थी। यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर सीधे-सीधे कर्म (कार्य) पर
आधारित थी।कोई भी वर्ण दूसरे को ऊँचा या नीचा नहीं समझता था।
उदारणार्थ- अपने
प्रारंभिक जीवन में शूद्र कर्म में प्रवृत्त वाल्मीकि जी जब अपने कर्मों में
परिवर्तन के बाद पूजनीय ब्राह्मणों के वर्ण में मान्यता पा गए तो वे तत्कालीन समाज
में महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। श्री राम सहित चारों भाइयों के विवाह के
अवसर पर जब जनकपुर में राजा दशरथ ने चारों दुल्हनों की डोली ले जाने से पहले देश
के सभी प्रतिष्ठित ब्राह्मणों को दान और उपहार देने के लिए बुलाया था, तो
उन्होंने श्री वाल्मीकि जी को भी विशेष आदर के साथ आमंत्रित किया था।
संभव है, हिंदू
समाज में मुसलमानों के आगमन से पहले ही जातियाँ अपने अस्तित्व में आ गयी हों, परन्तु
भारत की वर्तमान जातिप्रथा में छुआछूत का जैसा घिनौना रूप अभी देखने में आता है, वह
निश्चित रूप से मुस्लिम आक्रान्ताओं की ही देन है।
कैसे?
देखिए-आरम्भ से
ही मुसलमानों के यहाँ पर्दा प्रथा अपने चरम पर रही है। यह भी जगजाहिर है कि
मुसलमान लड़ाकों के कबीलों में पारस्परिक शत्रुता रहा करती थी। इस कारण, कबीले
के सरदारों व सिपाहियों की बेगमे कभी भी अकेली कबीले से बाहर नहीं निकलती थीं।
अकेले बाहर निकलने पर इन्हें दुश्मन कबीले के लोगों द्वारा उठा लिए जाने का भय
रहता था। इसलिए, ये अपना शौच का काम भी घर में ही निपटाती थीं। उस काल में कबीलों में
शौच के लिए जो व्यवस्था बनी हुई थी, उसके अनुसार घर
के भीतर ही शौच करने के बाद उस विष्टा को हाथ से उठाकर घर से दूर कहीं बाहर फेंककर
आना होता था।
सरदारों ने इस
काम के लिए अपने दासों को लगा रखा था। जो व्यक्ति मैला उठाने के काम के लिए
नियुक्त था, उससे फिर खान-पान से सम्बंधित कोई अन्य काम नहीं करवाते थे।
स्वाभाविक रूप से कबीले के सबसे निकम्मे व्यक्ति को ही विष्ठा उठाने वाले काम में
लगाया जाता था। कभी-कभी दूसरे लोगों को भी यह काम सजा के तौर पर करना पड़ जाता था।
इस प्रकार, वह मैला उठाने वाला आदमी इस्लामी समाज में पहले तो निकृष्ट/नीच घोषित
हुआ और फिर एकमात्र विष्टा उठाने के ही काम पर लगे रहने के कारण बाद में उसे अछूत
घोषित कर दिया गया।
वर्तमान में, हिंदू
समाज में जाति-प्रथा और छूआछात का जो अत्यंत निंदनीय रूप देखने में आता है, वह
इस समाज को मुस्लिम आक्रान्ताओं की ही देन है। आगे इसे और अधिक स्पष्ट करेंगे कि
कैसे?
अपने लम्बे
संघर्ष के बाद चंद जयचंदों के पाप के कारण जब इस्लाम भारत में अपनी घुसपैठ बनाने
में कामयाब हो ही गया, तो बाद में कुतर्क फ़ैलाने में माहिर
मुसलमान बुद्धिजीविओं ने घर में बैठकर विष्टा करने की अपनी ही घिनौनी रीत को हिंदू
समाज पर थोप दिया और बाद में हिन्दुओं पर जातिवाद और छुआछात फ़ैलाने के उलटे आरोप
मढ़ दिए।
यह अकाट्य सत्य है
कि मुसलमानों के आने से पहले घर में शौच करने और मैला ढोने की परम्परा सनातन हिंदू
समाज में थी ही नहीं। जब हिंदू शौच के लिए घर से निकल कर किसी दूर स्थान पर ही
दिशा मैदान के लिए जाया करते थे, तो विष्टा उठाने का तो प्रश्न ही नहीं
उठता। जब विष्टा ढोने का आधार ही समाप्त हो जाता है, तो हिंदू समाज
में अछूत कहाँ से आ गया?
हिन्दुओं के
शास्त्रों में इन बातों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि व्यक्ति को शौच के
लिए गाँव के बाहर किस दिशा में कहाँ जाना चाहिए तथा कब, किस
दिशा की ओर मुँह करके शौच के लिए बैठना चाहिए आदि-आदि।
प्रमाण-
नैऋत्यामिषुविक्षेपमतीत्याभ्यधि
कमभुवः I (पाराशरo)
"यदि खुली जगह मिले तो गाँव से नैऋत्यकोण (दक्षिण और पश्चिम के बीच)
की ओर कुछ दूर जाएँ।"
दिवा
संध्यासु कर्णस्थब्रह्मसूत्र उद्न्मुखः I
कुर्यान्मूत्रपुरीषे
तु रात्रौ च दक्षिणामुखः II (याज्ञ
o१ I १६,
बाधूलस्मृ o८)
"शौच के लिए बैठते समय सुबह, शाम और दिन में उत्तर की ओर मुँह करें तथा रात में दक्षिण की
ओर"
(सभी प्रमाण जिस नित्यकर्म पूजाप्रकाश, गीताप्रेस
गोरखपुर, संवत २०५४, चोदहवाँ संस्करण, पृष्ठ
१३ से उद्धृत किये गए हैं, वह पुस्तक एक सामान्य हिंदू के घर में
सहज ही उपलब्ध होती है)।
इस्लाम की
विश्वव्यापी आँधी के विरुद्ध सत्वगुण संपन्न हिंदू समाज के भीषण संघर्ष की गाथा
बड़ी ही मार्मिक है।
'दीन' के
नाम पर सोने की चिड़िया को बार-लूटने के लिए आने वाले मुसलमानों ने उदार चित्त
हिन्दुओं पर बिना चेतावनी दिए ही ताबड़तोड़ हमले बोले। उन्होंने हिंदू ललनाओं के
शील भंग किये, कन्याओं को उठाकर ले गए। दासों की मण्डी से आये बर्बर अत्याचारियों
ने हारे हुए सभी हिंदू महिला पुरुषों को संपत्ति सहित अपनी लूट की कमाई समझा और
मिल-बाँटकर भोगा। हजारों क्षत्राणियों को अपनी लाज बचाने के लिए सामूहिक रूप से
जौहर करना पड़ा और वे जीवित ही विशाल अग्नि-कुण्डों में कूद गयीं।
हिन्दुओं को
इस्लाम अपनाने के लिए पीड़ित करते समय घोर अमानवीय यंत्रनाएँ दीं गयीं। जो लोग टूट
गए, वे मुसलमान बन जाने से इनके भाई हो गए और अगली लूट के माल में हिस्सा
पाने लगे। जो जिद्दी हिंदू अपने मानव धर्म पर अडिग रहे तथा जिन्हें बलात्कारी
लुटेरों का साथी बनना नहीं भाया, उन्हें निर्दयता से मार गिराया गया। अपने
देश में सोनिया माइनो के कई खास सिपाहसालार तथा मौके को देखकर आज भी तुरंत पाला
बदल जाने वाले अनेकानेक मतान्तरित मुसलमान उन्हीं सुविधाभोगी तथाकथित हिन्दुओं की
संतानें हैं, जो पहले कभी हिंदू ही थे तथा जिन्होंने जान बचाने के लिए अपने शाश्वत
हिंदू धर्म को ठोकर मार दी। उन लोगों ने अपनी हिफाज़त के लिए अपनी बेटियों की लाज
को तार-तार हो जाने दिया और उन नर भेड़ियों का साथ देना ही ज्यादा फायदेमंद समझा।
बाद में ये नए-नए मुसलमान उन लुटेरों के साथ मिलकर अपने दूसरे हिंदू रिश्तेदारों
की कन्याओं को उठाने लगे।
किसी कवि की दो
पंक्तियाँ हैं, जो उस काल के हिन्दुओं के चरित्र का सटीक चित्रण करती हैं-
जिनको
थी आन प्यारी वो बलिदान हो गए,
जिनको
थी जान प्यारी, मुसलमान हो गए I
विषय के विस्तार
से बचते हुए, यहाँ, अपनी उस बात को ही और अधिक स्पष्ट करते हैं कि कैसे मुसलमानों ने ही
हिन्दुओं में छुआछूत के कलंक को स्थापित किया। अल्लाह के 'दीन' को
अपने 'ईमान' से दुनिया भर में पहुँचाने के अभियान पर निकले निष्ठुर कठमुल्लों ने
हिंदू को अपनी राह का प्रमुख रोड़ा मान लिया था। इसलिए, उन्होंने
अपने विश्वास के प्रति निष्ठावान हिंदू पर बेहिसाब जुल्म ढहाए। आततायी मुसलमान
सुल्तानों के जमाने में असहाय हिंदू जनता पर कैसे-कैसे अत्याचार हुए, उन
सबका अंश मात्र भी वर्णन कर पाना संभव नहीं है।
मुसलमानों के
अत्याचारों के खिलाफ लड़ने वाले हिन्दू
वीरों की तीन प्रकार से अलग-अलग परिणतियाँ हुईं।
पहली परिणति -
जिन हिंदू वीरों को धर्म के पथ पर लड़ते-लड़ते मार गिराया गया, वे
वीरगति को प्राप्त होकर धन्य हो गए। उनके लिए सीधे मोक्ष के द्वार खुल गए।
दूसरी परिणति -
जो हिन्दू मौत से डरकर मुसलमान बन गए, उनकी चांदी हो
गई। अब उन्हें किसी भी प्रकार का सामाजिक कष्ट न रहा, बल्कि
उनका सामाजिक रुतबा पहले से कहीं अधिक बढ़ गया। अब उन्हें धर्म के पक्के उन जिद्दी
हिन्दुओं के ऊपर ताल्लुकेदार बनाकर बिठा दिया गया, जिनके यहाँ कभी
वे स्वयं चाकरी किया करते थे। उन्हें करों में ढेरों रियायतें मिलने लगीं, जजिये
की तो चिंता ही शेष न रही।
तीसरी परिणति -
हज़ार वर्षों से भी अधिक चले हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का यह सबसे अधिक मार्मिक और
पीड़ाजनक अध्याय है।
यह तीसरे प्रकार
की परिणति उन हिंदू वीरों की हुई, जिन्हें युद्ध में मारा नहीं गया, बल्कि
कैद कर लिया गया। मुसलमानों ने उनसे इस्लाम कबूलवाने के लिए उन्हें घोर यातनाएँ
दीं। चूँकि, अपने उदात्त जीवन में उन्होंने असत्य के आगे कभी झुकना नहीं सीखा था, इसलिए
सब प्रकार के जुल्मों को सहकर भी उन्होंने इस्लाम नहीं कबूला। अपने सनातन हिंदू
धर्म के प्रति अटूट विश्वास ने उन्हें मुसलमान न बनने दिया और परिवारों का जीवन
घोर संकट में था, अतः उनके लिए अकेले-अकेले मरकर मोक्ष पा जाना भी इतना सहज नहीं रह
गया था।
ऐसी विकट
परिस्थिति में मुसलमानों ने उन्हें जीवन दान देने के लिए उनके सामने एक घृणित
प्रस्ताव रख दिया तथा इस प्रस्ताव के साथ एक शर्त भी रख दी गई। उन्हें कहा गया कि
यदि वे जीना चाहते हैं, तो मुसलमानों के घरों से उनकी विष्टा
(टट्टी) उठाने का काम करना पड़ेगा। उनके परिवारजनों का काम भी साफ़-सफाई करना और
मैला उठाना ही होगा तथा उन्हें अपने जीवन-यापन के लिए सदा-सदा के लिए केवल यही एक
काम करने कि अनुमति होगी।
१९ दिसम्बर १४२१
के लेख के अनुसार, जाफर मक्की नामक विद्वान का कहना है कि "हिन्दुओं के इस्लाम
ग्रहण करने के मुखय कारण थे, मृत्यु का भय, परिवार
की गुलामी, आर्थिक लोभ (जैसे-मुसलमान होने पर पारितोषिक, पेंशन
और युद्ध में मिली लूट में भाग), हिन्दू धर्म में घोर अन्ध विश्वास और
अन्त में प्रभावी धर्म प्रचार।"
इस प्रकार, समय
के कुचक्र के कारण अनेक स्थानों पर हजारों हिंदू वीरों को परिवार सहित जिन्दा रहने
के लिए ऐसी घोर अपमानजनक शर्त स्वीकार करनी पड़ी। मुसलमानों ने पूरे हिंदू समाज पर
एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की रणनीति पर काम किया और उन्होंने वीर क्षत्रियों को
ही अपना मुख्य निशाना बनाया। मुस्लिम आतंकवाद के पागल हाथी ने हिंदू धर्म के वीर
योद्धाओं को परिवार सहित सब प्रकार से अपने पैरों तले रौंद डाला। सभी तरह की
चल-अचल संपत्ति पहले ही छीनी जा चुकी थी। घर जला दिए गए थे।
परिवार की महिलाओं और कन्याओं पर असुरों की गिद्ध-दृष्टि
लगी ही रहती थी। फिर भी, अपने कर्म सिद्धांत पर दृढ़ विश्वास
रखने वाले उन आस्थावान हिन्दुओं ने अपने परिवार और शेष हिंदू समुदाय के दूरगामी
हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी नियति को स्वीकार किया और पल-पल अपमान के घूँट
पीते हुए अपने राम पर अटूट भरोसा रखा। उपासना स्थलों को पहले ही तोड़ दिया गया था, इसलिए
उन्होंने अपने हृदय में ही राम-कृष्ण की प्रतिमाएँ स्थापित कर लीं। परस्पर अभिवादन
के लिए वेद सम्मत 'नमस्ते' को तिलांजली दे डाली और 'राम-राम' बोलने
का प्रचार शुरू कर दिया। समय निकला तो कभी आपस में बैठकर सत्संग भी कर लिया।
छुप-छुप कर अपने सभी उत्सव मनाते रहे और सनातन धर्म की पताका को अपने हृदयाकाश में
ही लहराते रहे।
उनका सब कुछ
खण्ड-खण्ड हो चुका था, परन्तु, उन्होंने धर्म
के प्रति अपनी निष्ठा को लेशमात्र भी खंडित नहीं होने दिया। धर्म परिवर्तन न करने
के दंड के रूप में मुसलमानों ने उन्हें परिवारसहित केवल मैला ढोने के एकमात्र काम
की ही अनुमति दी थी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी वही करते चले गए। कई पीढ़ियाँ बीत जाने पर अपने कर्म
में ही ईश्वर का वास समझने वाले उन कर्मनिष्ठ हिन्दुओं के मनो में से नीच कर्म का
अहसास करने वाली भावना ही खो गई। अब तो उन्हें अपने अपमान का भी बोध न रहा।
मुसलमानों की
देखा-देखी हिन्दुओं को भी घर के भीतर ही शौच करने में अधिक सुविधा लगने लगी तथा अब
वे मैला उठाने वाले लोग हिन्दुओं के घरों में से भी मैला उठाने लगे। इस प्रकार, किसी
भले समय के राजे-रजवाड़े मुस्लिम आक्रमणों के कुचक्र में फंस जाने से अपने धर्म की
रक्षा करने के कारण पूरे समाज के लिए ही मैला ढोने वाले अछूत और नीच बन गए।
उक्त शोधपरक लेख
न तो किसी पंथ विशेष को अपमानित करने के लिए लिखा गया है और न ही दो पंथिक
विचारधाराओं में तनाव खड़ा करने के लिए। केवल ऐतिहासिक भ्रांतियों को उजागर करने
के लिए लिखे गये इस लेख में प्रमाण सहित घटनाओं की क्रमबद्धता प्रस्तुत की गयी है।
वर्ण और जाति में भारी अंतर है तथा यह
लेख मूलतः छूआछूत के कलंक के उदगम को ढूँढने का एक प्रयास है।
मुसलमानों ने
मैला ढोने वालों के प्रति अपने परम्परागत आचरण के कारण और उनके हिंदू होने पर उनके
प्रति अपनी नफरत व्यक्त करने के कारण उन्हें अछूत माना तथा मुसलमान गोहत्या करते
थे, इसलिए मुसलमानों से किसी भी रूप में संपर्क रखने वाले (भले ही उनका
मैला ढोने वाले) लोगों को हिंदू समाज ने अछूत माना। इस प्रकार, दलित
बन्धु दोनों ही समुदायों के बीच घृणा की चक्की में पिसते रहे।
इस लेख में कहीं
भी हिंदू समाज को छूआछूत को बढ़ावा देने के आरोप से मुक्त नहीं किया गया है।
प्रमाण के रूप
में कुछ गोत्र प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जो समान रूप से
क्षत्रियों में भी मिलते हैं और आज के अपने अनुसूचित बंधुओं में भी। genome के
विद्वान् अपने परीक्षण से सहज ही यह प्रमाणित कर सकते हैं कि ये सब भाई एक ही
वंशावली से जुड़े हुए हैं।
उदाहरण- चंदेल, चौहान, कटारिया, कश्यप, मालवण, नाहर, कुंगर, धालीवाल, माधवानी, मुदई, भाटी, सिसोदिया, दहिया, चोपड़ा, राठौर, सेंगर, टांक, तोमर
आदि-आदि-आदि।
जरा सोचिये, हिंदू
समाज पर इन कथित अछूत लोगों का कितना बड़ा ऋण है। यदि उस कठिन काल में ये लोग भी
दूसरी परिणति वाले स्वार्थी हिन्दुओं कि तरह ही तब मुसलमान बन गए होते तो आज अपने
देश की क्या स्थिति होती? और सोचिये, आज
हिन्दुओं में जिस वर्ग को हम अनुसूचित जातियों के रूप में जानते हैं, उन
आस्थावान हिन्दुओं की कितनी विशाल संख्या है, जो मुस्लिम दमन
में से अपने राम को सुरक्षित निकालकर लाई है।
क्या अपने सनातन
हिंदू धर्म की रक्षा में इनका पल-पल अपमानित होना कोई छोटा त्याग था? क्या
इनका त्याग ऋषि दधिची के त्याग की श्रेणी में नहीं आता?
स्वामी
विवेकानंद ने कहा है कि जब किसी एक हिंदू का मतान्तरण हो जाता है, तो
न केवल एक हिंदू कम हो जाता है, बल्कि हिन्दुओं का एक शत्रु भी बढ़
जाता है।
0 टिप्पणियाँ