लालबहादुर ही क्यों? (लालबहादुर शास्त्री जयंतीः 2 अक्टूबर) लालबहादुर शास्त्री जी के बाल्यकाल की एक घटना है। एक दिन वे सोचने लगे कि परिवार में सभी लोगों का नाम प्रसाद व लाल पर है लेकिन माँ ने मेरा नाम 'बहादुर' क्यों रखा। बालक माँ के पास गया और बोलाः "माँ! मेरा नाम लालबहादुर क्यों रखा है, जबकि हमारे यहाँ तो किसी का नाम बहादुर पर नहीं है? अपने रिश्तेदारों में भी तो सभी लाल या प्रसाद हैं, फिर मेरा नाम इतना खराब क्यों है?मुझे यह नाम अच्छा नहीं लगता।" पास ही बैठे उनके मामा ने कहाः"क्यों नहीं है, देखो इलाहाबाद के नामी वकील है तेज बहादुर।" तभी माँ रामदुलारी देवी हँसी और बोलीं-"नन्हें का नाम'वकील बहादुर'बनने के लिए तुम्हारे जीजा जी ने नहीं रखा है बल्कि उन्होंने'कलम बहादुर'बनाने के लिए और मैंने अपने नन्हें को'करम बहादुर'बनाने के लिए इसका नाम लालबहादुर रखा है। मेरा लाल'बहादुर'बनेगा अपनी हिम्मत व साहस का....।" और इतना कहते-कहते उनकी आँखें डबडबा आयीं। पति की स्मृति उनके मानस-पटल पर आ गयी। उन्होंने अपने'लाल बहादुरि'को गोद में बैठाकर अनेकानेक आशीष दे डाले। ये ही आशीर्वाद जेल-जीवन की यातनाओं तथा पारिवारिक समस्याओं में उनका साहस बढ़ाते रहे। माता के आशीर्वाद फलीभूत हुए और इतिहास साक्षी है कि वे सहनशीलता, शालीनता, विनम्रता और हिम्मत में कितने बहादुर हुए। उनका धैर्य, साहस, संतोष तथा त्याग असीम था। बाल्यावस्था बहुत नाजुक अवस्था होती है, इसमें बच्चों को आप जैसा बनाना चाहते हैं, वे वैसे बन जायेंगे। आवश्यकता है तो बस अच्छे संस्कारों के सिंचन की। लालबहादुर एक बार बालमित्रों के साथ मेला देखने जा रहे थे। उनके पास नाविक को देने के लिए पैसे नहीं थे। स्वाभिमान के धनी'लाल'यह बात किसी को कैसे बताते!वे गंगा जी की वेगवती धारा में कूद पड़े और तैरकर ही उस पार पहुँच गये। एक बार लालबहादुर शास्त्री इलाहाबाद की नैनी जेल में थे। घर पर उनकी बेटी पुष्पा बीमार थी और गम्भीर हालत में थी। साथियों ने उन पर दबाव डाला कि'आप घर जाकर बेटी की देखभाल करें।'वे राजी भी हो गये। उनका पेरोल भी मंजूर हो गया परंतु उन्होंने उस पेरोल पर छूटने से मना कर दिया क्योंकि उसके अनुसार उन्हें यह लिखकर देना था कि वे जेल के बाहर आन्दोलन के समर्थन में कुछ न करेंगे। उधर बेटी जीवन और मौत की लहरों में गोते खाने लगी, इधर शास्त्री जी अपने स्वाभिमान पर दृढ़ थे। आखिर जिलाधीश इनकी नैतिक, चारित्रिक दृढ़ता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने इन्हें बिना किसी शर्त के मुक्त कर दिया। शास्त्रीजी घर पहुँचे पर उसी दिन बेटी ने शरीर छोड़ दिया। शास्त्री जी अग्नि संस्कार करके लौटे। घर के भीतर किसी से मिलने भी नहीं गये, सामान उठाकर ताँगे में बैठ गये। लोगों ने बहुत कहाः''अभी तो पेरोल बहुत बाकी है।"शास्त्री जी ने उत्तर दियाः"मैं जिस कार्य के लिए पेरोल पर छूटा था, वह खत्म हो गया है। अतः सिद्धान्ततः अब मुझे जेल जाना चाहिए।"और वे जेल चले गये। स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 10, अंक 213 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ