कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव पाण्डव दोनों दल युद्ध के लिए एकत्र हो गये थे। सेनाओं ने व्यूह बना लिये थे। वीरों के धनुष चढ़ चुके थे। युद्ध प्रारम्भ होने में कुछ क्षणों की ही देर जान पड़ती थी। सहसा धर्मराज युधिष्ठिर ने अपना कवच उतारकर रथ में रख दिया। अस्त्र-शस्त्र भी रख दिये और रथ से उतर कर वे पैदल ही कौरव सेना में भीष्म पितामह की ओर चल पड़े। बड़े भाई को इस प्रकार शस्त्रहीन हो के शत्रु सेना की ओर पैदल जाते देखकर अर्जुन, भीमसेन, नकुल और सहदेव भी अपने रथों से उतर पड़े। वे लोग युधिष्ठिर के पास पहुँचे और उनके पीछे-पीछे चलने लगे। श्रीकृष्णचन्द्र भी पाण्डवों के साथ ही चल रहे थे। भीमसेन, अर्जुन आदि बड़े चिंतित हो रहे थे। वे पूछने लगेः"महाराज!आप यह क्या कर रहे हैं। युधिष्ठिर ने किसी को कोई उत्तर नहीं दिया। श्रीकृष्ण जी ने सबको शांत रहने का संकेत करके कहाः"धर्मात्मा युधिष्ठिर सदा धर्म का ही आचरण करते हैं। इस समय भी वे धर्माचरण में ही स्थित हैं।" उधर कौरव दल में बड़ा कोलाहल मच गया। लोग कह रहे थेः"युधिष्ठिर डरपोक हैं। वे हमारी सेना देखकर डर गये हैं और भीष्म की शरण में आ रहे हैं।"कुछ लोग यह संदेह भी करने लगे की पितामह भीष्म को अपनी ओर कर लेने की यह कोई चाल है सैनिक प्रसन्नतापूर्वक कौरवों की प्रशंसा करने लगे। युधिष्ठिर सीधे भीष्म पितामह के समीप पहुँचे और उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोलेः "पितामह!हम लोग आपके साथ युद्ध करने को विवश हो गये हैं। इसके लिए आप हमें आज्ञा और आशीर्वाद दें।" भीष्म बोलेः"भरतश्रेष्ठ!यदि तुम इस प्रकार आकर मुझसे युद्ध की अनुमति न माँगते तो मैं तुम्हे अवश्य पराजय का शाप दे देता। अब मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम विजय प्राप्त करो। जाओ, युद्ध करो। तुम मुझसे वरदान माँगो। पार्थ!मनुष्य धन का दास है, धन किसी का दास नहीं। मुझे धन के द्वारा कौरवों ने अपने वश में कर रखा है, इसी से मैं नपुँसकों की भाँति कहता हूँ कि अपने पक्ष में युद्ध करने के अतिरिक्त तुम मुझसे जो चाहो वह माँग लो, युद्ध तो मैं कौरवों के पक्ष से ही करूँगा।" युधिष्ठिर ने केवल पूछाः"आप अजेय है, फिर आपको हम लोग संग्राम में किस प्रकार जीत सकते हैं?" पितामह ने उन्हें दूसरे समय आकर यह बात पूछने को कहा। वहाँ से धर्मराज द्रोणाचार्य के पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम करके उनसे भी युद्ध के लिए अनुमति माँगी। आचार्य द्रोण ने भी वही बातें कहकर आशीर्वाद दिया परंतु जब युधिष्ठिर ने उनसे उनकी पराजय का उपाय पूछा, तब आचार्य ने स्पष्ट बता दियाः"मेरे हाथ में शस्त्र रहते मुझे कोई मार नहीं सकता परंतु मेरा स्वभाव है कि किसी विश्वसनीय व्यक्ति के मुख से युद्ध में कोई अप्रिय समाचार सुनने पर मैं धनुष रखकर ध्यानस्थ हो जाता हूँ। उस समय मुझे मारा जा सकता है।" युधिष्ठिर द्रोणाचार्य को प्रणाम करके कृपाचार्य के पास पहुँचे। प्रणाम करके युद्ध की अनुमति माँगने पर कृपाचार्य ने भीष्म पितामह के समान ही सब बातें कहकर आशीर्वाद दिया किंतु अपने उन कुलगुरु से युधिष्ठिर उनकी मृत्यु का उपाय पूछ नहीं सके। यह दारूण बात पूछते-पूछते दुःख के मारे वे अचेत हो गये। कृपाचार्य ने उनका तात्पर्य समझ लिया था। वे बोलेः"राजन्!मैं अवध्य हूँ, किसी के द्वारा भी मैं मारा नहीं जा सकता परंतु मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि नित्य प्रातःकाल भगवान से तुम्हारी विजय के लिए प्रार्थना करूँगा और युद्ध में तुम्हारी विजय का बाधक नहीं बनूँगा।" इसके बाद युधिष्ठिर मामा शल्य के पास प्रणाम करने पहुँचे। शल्य ने भी पितामह भीष्म की बातें दुहराकर आशीष दिया, साथ ही उन्होंने यह वचन भी दिया कि युद्ध में अपने निष्ठुर वचनों से कर्ण को हतोत्साहित करते रहेंगे। गुरुजनों को प्रणाम करके, उनकी अनुमति और विजय का आशीर्वाद लेकर युधिष्ठिर भाइयों के साथ अपनी सेना में लौट आये। उनकी इस विनम्रता ने भीष्म, द्रोण आदि के हृदय में उनके लिय ऐसी सहानुभूति उत्पन्न कर दी, जिसके बिना पाण्डवों की विजय अत्यंत दुष्कर थी। आज का समस्याओं से भरा जटिल जीवन आम आदमी को किसी संग्राम से कम प्रतीत नहीं होता। यदि इसमें सुख-शांति की सरिता बहानी हो तो सत्संग की इस ज्ञानधारा से, इस ऐतिहासिक प्रसंग से प्रेरणा लेकर हमें भी अपने गुरुजनों का, बड़ों का सम्मान करना सीख लेना चाहिए। स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 12,13, अंक 213 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ