विपरीत से विपरीत परिस्थिति भी आये तब भी धर्म को न छोड़ो, धैर्य को न छोड़ो, ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित होकर, उतावलेपन में एवं घबराकर कोई कदम न उठाओ। यह धृति ही धर्म है। मान लो कि व्यापार में कुछ नुकसान हो गया तो उससे घबराकर कोई दूसरा कदम न उठाओ, नहीं तो ज्यादा नुकसान कर बैठोगे। जो नुकसान हुआ उसे धैर्यपूर्वक सहन कर लो एवं सोच विचारकर धीरजपूर्वक निर्णय करके आगे बढ़ो। यह धृति है, धर्म है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ गौ माता की चरण रज मस्तक और ललाट पर लगाने से सौभाग्य की वृद्धि होती है गौ माता की पूजा करने से मनुष्य इश्वर की भी प्राप्ति कर सकता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ भगवान व भगवान को पाये हुए संत करूणा से अवतरित होते हैं इसलिए उनका जन्म दिव्य होता है। सामान्य आदमी स्वार्थ से कर्म करता है और भगवान व संत लोगों के मंगल की, हित की भावना से कर्म करते हैं। वे कर्म करने की ऐसी कला सिखाते हैं कि कर्म करने का राम मिट जाय, भगवदरस आ जाय, मुक्ति मिल जाय। अपने कर्म और जन्म को दिव्य बनाने के लिए ही भगवान व महापुरुषों का जन्मदिवस मनाया जाता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ आलसी व्यक्ति का धन, यश, वैभव और ऐश्वर्य क्षीण हो जाता है। आलस दरिद्रता का मूल है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ निन्दा और अपमान की परवाह न करें। निर्भय रहें। प्रसन्न रहें। अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहें। जो डरता है उसी को दुनिया डराती हैं। यदि आपमें डर नहीं है, आप निर्भय हैं तो काल भी आपका बाल बाँका नहीं कर सकता। जो आत्मदेव में श्रद्धा रखकर निर्भयता से व्यवहार करता है वह सफलतापूर्वक आगे बढ़ता जाता है। उसे कोई रोक नहीं सकता। वह अपनी मंजिल तय करके ही रहता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मैं विद्वान, मैं धनी, मैं पापी, मैं पुण्यात्मा..ये “मैं” जो है ना बड़ी मुसीबत पैदा करता है.. “मैं” तो भगवान में मिल जाए बास !…तब होता है कल्याण.. भगवान को अपना मानने से भगवान में अपना मैंआसानी से मिल जाता है..और भगवान से अलग ‘मैं’ रावण का भी ठीक नही रहा..भगवान से अलग ‘मैं’ हीरण्यकश्यपू का भी ठीक नही रहा..और शबरी भीलण का ‘मैं’ गुरुजी की कृपा से भगवान में मिला तो शबरी भीलण महान हो गयी..मीरा का ‘मैं’ भगवान में मिला तो मीरा महान हो गयी..रहिदास का ‘मैं’ भगवान में मिला तो महान हो गये..जनक राजा का ‘मैं’ भगवान में मिला तो जनक राजा भी महान हो गये… जिस का ‘मैं’ भगवान के सिवाय किसी बात बात में फँसा है वो चाहे कितना बुध्दिमान हो, कितना धनवान हो, कितना सत्तावान हो फिर भी अभागा तो है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ गुरु शरीर से भले ही दूर हो पर वो हम से कभी भी दूर नही होते, वो तो सदा हमारे साथ हमारे पास होते है, हमे सही कार्य के लिए,ईश्वरप्राप्ति के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते है, और गलत कार्यो से बचने की प्रेरणा देते है।हमे ईश्वर के रास्ते अग्रसर होता देख गुरु अत्यंत प्रसन्न होते है, परन्तु जब शिष्य ईश्वर के रास्ते अग्रसर न हो कर पतन की खाई में गिरता हुआ देखते है तो उसे किसी न किसी तरह पतन से बचा ही लेते है।गुरु चाहे मिलों दूर ही क्यों न बैठे हो फिर भी शिष्य के हर अच्छे - बुरे कार्यो पर गुरु की नजर हमेशा ही रेहती है। तो कोई भी कार्य करते समय एक बार रूक कर ये ज़रुर सोचना की क्या इस कार्य से मेरे गुरु मुझ से प्रसन्न होंगे की नाराज़ होंगे?, फिर ही कोई कार्य करो।प्रणाम है... ऐसे सदगुरुदेव के श्री चरणों में जो कहीं भी रेह कर भी अपने शिष्य की सम्भाल लेते है।गुरु हमेशा निराकाररुप में अपने शिष्य के हृदय में बसते है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ श्रद्धा बहुत ऊँची चीज है। विश्वास और श्रद्धा का मूल्यांकन करना संभव ही नहीं है। जैसे अप्रिय शब्दों से अशांति और दुःख पैदा होता है ऐसे ही श्रद्धा और विश्वास से अशांति शांति में बदल जाती है, निराशा आशा में बदल जाती है, क्रोध क्षमा में बदल जाता है, मोह समता में बदल जाता है, लोभ संतोष में बदल जाता और काम राम में बदल जाता है। श्रद्धा और विश्वास के बल से और भी कई रासायनिक परिवर्तन होते हैं। श्रद्धा के बल से शरीर का तनाव शांत हो जाता है, मन संदेह रहित हो जाता है, बुद्धि में दुगनी-तिगुनी योग्यता आती है और अज्ञान की परतें हट जाती हैं। श्रद्धापूर्वाः सर्वधर्मा... ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तुम्हारे स्वरूप के भय से चाँद-सितारे भागते हैं, हवाएँ बहती हैं, मेघ वर्षा करते हैं, बिजलियाँ चमकती हैं, सूरज रात और दिन बनाता है, ऋतुएँ समय पर अपना रंग बदलती हैं। उस आत्मा को छोड़कर औरों से कब तक दोस्ती करोगे? अपने घर को छोड़कर औरों के घर में कब तक रहोगे? अपने पिया को छोड़कर औरों से कब तक मिलते रहोगे....? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ वेदांत का यह सिद्धांत है कि हम बद्ध नहीं हैं बल्कि नित्य मुक्त हैं। इतना ही नहीं, ‘बद्ध हैं’ यह सोचना भी अनिष्टकारी है, भ्रम है। ज्यों ही आपने सोचा कि ‘मैं बद्ध हूँ…, दुर्बल हूँ…, असहाय हूँ…’ त्यों ही अपना दुर्भाग्य शुरू हुआ समझो। आपने अपने पैरों में एक जंजीर और बाँध दी। अतः सदा मुक्त होने का विचार करो और मुक्ति का अनुभव करो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ हो उद्यमी संतुष्ट तू, गम्भीर धीर उदार हो। धारण क्षमा उत्साह कर, शुभ गुणन का भंडार हो॥ कर कार्य सर्व विचार से, समझे बिना मत कार्य कर। शम दम यमादिक पाल तू, तप कर तथा स्वाध्याय कर॥ जो धैर्य नहीं हैं धारते, भय देख घबरा जाय हैं। सब कार्य उनका व्यर्थ है, नहीं सिद्धि वे नर पाय हैं॥ चिंता कभी मिटती नहीं, नहीं दुःख उनका जाय है। पाते नहीं सुख लेश भी, नहीं शांति मुख दिखलाय है॥ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ राग, द्वेष छोड़कर बड़प्पन का घमण्ड छोड़कर निर्दोष भाव से सेवा करो, बाकी सब ईश्वर और गुरु पर छोड़ दो, आप जरुर उन्नत होंगे। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ नित्य अन्तरमुख रहने से सारे पाप, ताप, शोक, संताप शीघ्र ही दूर हो जाते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ‘सम्पूर्ण विश्व मेरा शरीर है’ ऐसा जो कह सकता है वही आवागमन के चक्कर से मुक्त है। वह तो अनंत है। फिर कहाँ से आयेगा और कहाँ जायेगा ? सारा ब्रह्माण्ड़ उसी में है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ