संत ज्ञानेश्वर महाराज पुण्यतिथि - गुरुसेवा समस्त भाग्यों की जन्मभूमि। श्री ज्ञानेश्वर महाराज की गुरुभक्ति की गहराई निम्नांकित वर्णन में प्रगट हुई है : ‘‘गुरुसेवा समस्त भाग्यों की जन्मभूमि है क्योंकि गुरुसेवा ही शोकग्रस्त जीव को ब्रह्मस्वरुप बनाती है ।‘‘ विरहिणी पतिव्रता स्त्री जिस प्रकार पति का ही चितन करती है उसी प्रकार मैं अविरत गुरु के विचारों में ही रहता हूँ । इतना ही नहीं, गुरु जिस दिशा में रहते हैं उस दिशा से आनेवाले पवन को सामने जाकर नमस्कार करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ : ‘हे पावन पवनदेव ! मेरे घर पधारकर मेरा घर पवित्र करें । जिस दिशा में गुरु रहते हैं उस दिशा के साथ पागल की नार्इं वार्तालाप करता हूँ और गुरु-दर्शन के लिए तडपता रहता हूँ । वियोग का एक-एक क्षण एक-एक युग से बडा लगता है । गुरु के गाँव से या गुरु के दर्शन करके आये हुए व्यक्ति के मिलने से मुझे ऐसा लगता है मानो मृत्युशय्या पर पडे हुए रोगी को जीवनदान मिला हो । श्री ज्ञानेश्वरजी महाराज गुरुसेवा पर अधिकाधिक जोर देते हुए एवं सत्शिष्य कैसा हो उसकी विशद व्याख्या करते हुए बताते हैं : ‘‘जिसकी भावना में गुरुभक्ति है, जिसके मन में धैर्य है, जो दिन-रात देखे बिना गुरुसेवा में निमग्न रहता है... ‘अब सेवा बहुत हो गई- ऐसा मन में सोचता तक नहीं है और अपने जीवन को भी दाँव पर लगाने में झिझकता नहीं है, जो अपने को गुरुआज्ञा का निवासस्थान बनाता है, जो अपनी कुलीनता गुरुभक्ति में ही मानता है, जो अपने गुरुभाइयों के साथ सौजन्यता का बर्ताव कर सुजन बनता है और गुरुसेवारूपी व्यसन से ही अविरत व्यसनी बनकर रहता है, जो गुरुसेवा को नित्य-नैमित्तिककर्म के रूप में स्वीकार करता है, जिसका तीर्थक्षेत्र गुरु, देवता गुरु, माता गुरु, पिता गुरु, सब गुरु हैं एवं जो गुरुसेवा के सिवाय अन्य कुछ जानता ही नहीं है, गुरु का द्वार ही जिसके लिए सर्वधर्मों का सार है और गुरुसेवक जिसे भाई से भी अधिक प्यारा है, जिसकी जिह्वा पर दिन-रात गुरुनाम का जप चलता रहता है और गुरुवाक्य ही जिसके लिए शास्त्र है, श्रीगुरु के उच्छिष्ट प्रसाद के आगे समाधि-सुख भी जिसे तुच्छ लगता है, गुरु के स्पर्श से पवित्र हुआ जल जिसे त्रिलोक के समस्त तीर्थों के जल से भी अधिक पावन लगता है, गुरु चलते हों तब जो चरणरज उडती है उसे जो मस्तक पर चढाकर अपने को धन्य मानता है और जिसे इस लाभ के आगे मोक्ष का सुख भी तुच्छ लगता है वही सच्चा सत्शिष्य है । (ऋषि प्रसाद, जुलाई १९९८ से)