जो पुरुष अपनी गलती पूर्ण रूप से स्वीकारता है वही मनुष्य इश्वर को उपलब्ध होता है बाकि के चतुराई में संसार में पिसते रहते हैँ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मानवमात्र की सफलता का मूल उसकी आत्मश्रद्धा में निहित है। आत्मश्रद्धा का सीधा संबंध संकल्पबल के साथ है। तन-बल, मन-बल, बुद्धि-बल एवं आत्मबल ऐसे कई प्रकार के बल हैं, उनमें आत्मबल सर्वश्रेष्ठ है। आत्मबललल में अचल श्रद्धा यह विजय प्राप्त करने की सर्वोत्तम कुंजी है। जहाँ आत्मबल में श्रद्धा नहीं है वहीं असफलता, निराशा, निर्धनता, रोग आदि सब प्रकार के दुःख देखने को मिलते हैं। इससे विपरीत जहाँ आत्म बल में अचल श्रद्धा है वहाँ सफलता, समृद्धि, सुख, शांति, सिद्धि आदि अनेक प्रकार के सामर्थ्य देखने को मिलते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जैसे-जैसे मनुष्य अपने सामर्थ्य में अधिकाधिक विश्वास करता है, वैसे-वैसे वह व्यवहार एवं परमार्थ दोनों में अधिकाधिक विजय हासिल करता है। अमुक कार्य करने का उसमें सामर्थ्य है, ऐसा विश्वास और श्रद्धा-यह कार्यसिद्धि का मूलभूत रहस्य है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मनुष्य अपनी उन्नति शीघ्र नहीं कर पाता इसका मुख्य कारण यही है कि उसे अपने सामर्थ्य पर संदेह होता है। वह 'अमुक कार्य मेरे से न हो सकेगा' ऐसा सोच लेता है। जिसका परिणाम यह आता है कि वह उस कार्य को कभी करने का प्रयत्न भी नहीं करता। आत्मश्रद्धा का सीधा संबंध संकल्पबल के साथ है। आत्मबल में अविश्वास प्रयत्न की सब शक्तियों को क्षीण कर देता है। प्रयत्न के बिना कोई भी फल प्रगट नहीं होता। अतः प्रयत्न को उत्पन्न करने वाली आत्मश्रद्धा का जिसमें अभाव है उसका जीवन निष्क्रिय, निरुत्साही एवं निराशाजनक हो जाता है। जहाँ-जहाँ कोई छोटा-बड़ा प्रयत्न होता है वहाँ-वहाँ उसके मूल में आत्मश्रद्धा ही स्थित होती है और अंतःकरण में जब तक आत्मश्रद्धा स्थित होती है तब तक प्रयत्नों का प्रवाह अखंड रूप से बहता रहता है। आत्मश्रद्धा असाधारण होती है तो प्रयत्न का प्रवाह किसी भी विघ्न से न रुके ऐसा असाधारण एवं अद्वितिय होता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ "ज्ञानी बोलते हुए भी नहीं बोलते, लेते हुए भी नहीं लेते, देते हुए भी नहीं देते। यह ज्ञानवानों का नित्य मौन है। इसको ‘वेदान्ती मौन’ कह सकते हैं। आत्मस्वरूप में, ब्रह्मस्वरूप में जागे हुए बोधवान् ज्ञानी पुरुष खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते सब कुछ करते हुए भी भली प्रकार समझते हैं किः 'बोला जाता है वाणी से, लिया-दिया जाता है हाथ से, चला जाता है पैर से, संकल्प-विकल्प होते हैं मन से, निर्णय होते हैं बुद्धि से। मैं इन सबको देखनेवाला, अचल, कूटस्थ, साक्षी हूँ। मैंने कभी कुछ किया ही नहीं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ दुःख में दुःखी होओगे तो दुःख बढ़ जायेगा। सुख आये तो समझो कि मैंने दूसरे को सुख दिया है उसका परिणाम है। अतः सुख चाहते हो तो सुख बाँटते रहो। सुख भोगोगे तो दुःखी होगे। सौ मन दूध में विष की एक बूँद भी सौ मन दूध को बिगाड़ने के लिए पर्याप्त है। उसी प्रकार विकार को समझो। विकार चाहे कितना भी छोटा हो, वह जीवन को बिगाड़ देगा। विकार को साँप के जहर से भी ज्यादा भयानक समझो। धन, कुटुम्ब आदि पर जो तुम गर्व कर रहे हो कि वे तुम्हारे हैं, वे तुम्हें छोड़ जायेंगे या तो तुम उन्हें छोड़ जाओगे। गर्व करने में कोई सार नहीं। गर्व करना ही हो तो अपने अमर आत्मा-परमात्मा का करो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जिनके पास ज्ञान की शलाका आ गई है, उनको रोम-रोम में रमनेवाले रामतत्त्व का अनुभव हो जाता है। वे राम के दीवाने हो जाते हैं। राम के दीवाने कैसे होते हैं? राम के दीवानों को जग के सुख की चाह नहीं। मुसीबतों के पहाड़ टूटे मुँह से निकलती आह नहीं।। स्वामी रामतीर्थ बोलते थेः "हे भगवान ! आज मुसीबत भेजना भूल गये क्या? हम रोज ताजी मुसीबत चाहते हैं। आज कोई मुसीबत नहीं आयी? कोई प्रोब्लेम नहीं आया?" रामतीर्थ के लिए कई कुप्रचार फैलाये जाते थे, कई अफवाहें चलती थीं। राम बादशाह तो ॐ....ॐ....ॐ..... आनन्द.... मैं ब्रह्म हूँ....' इस प्रकार आत्मानंद में, ब्रह्मानंद में मस्त रहते, हँसते रहते, नाचते रहते। तथा कथित सयाने लोग उनकी आलोचना करते की ऐसा कोई संत होता है ? उन्माद हो गया है उन्माद। ऐसी चिट्ठियाँ भी लोग लिख देते थे। स्वामी राम कहतेः "मुझे सीख देने वाले ! मुझे तो भले उन्माद हो गया है लेकिन तुम्हें तो उन्माद नहीं हुआ है। जाओ, तुम्हें रमणियाँ बुलाती हैं। उनके हाड़ मांस तुम्हें बुला रहे हैं। जाओ, चाटो.... चूसो। मैं तो मेरे राम की मस्ती में हूँ। मुझे तो यही उन्माद काफी है। तुम भले रमणियों के उन्माद में खुशी मनाओ। लेकिन सावधान ! वह उन्माद बाबरा भूत है ! दिखता है अच्छा, सुन्दर, सुहाना लेकिन ज्यों ही आलिंगन किया तुरन्त सत्यानाश होगा। राम रस के उन्माद का अनुभव एक बार करके देखो, फिर जन्मों के उन्माद दूर हो जायेंगे।" किसी ने रामतीर्थ को खत लिखा कि, "आपके निकटवर्ती शिष्य एन. एस. नारायण ने संन्यासी के वस्त्र उतार कर पेन्ट कोट पहन लिया, संन्यासी में से गृहस्थी हो गया ज्ञानी का शिष्य, साधु बना और फिर गुलाम बन गया, नौकरी करता है ! उसको जरा सुधारो।" रामतीर्थ ने जवाब दियाः "राम बादशाह आप में ही समाता नहीं है। राम बादशाह कोई गङरिया नहीं है कि भेड़-बकरियों को सँभालता रहे। वह अपनी इच्छा से मेरे पास आया, अपनी मरजी से साधु बना, उसकी मरजी। सब सबकी सँभाले, राम बादशाह अपने आप में मस्त हैं।" ज्ञानी को सब समेट लेने में कितनी देर लगती है? शिष्यों को सुधारने के लिए पाँच-दस बार परिश्रम कर लिया, अगर वे नहीं सुधरते तो जायें। ज्ञानी उपराम ही जाते हैं तो घाटा उन्हीं मूर्खों को पड़ेगा। ज्ञानी को क्या है? वैसे मूर्खों को हम आज नहीं जानते लेकिन स्वामी रामतीर्थ को लाखों लोग जानते हैं, करोड़ों लोग जानते हैं। आप भी कृपा करके राम की मस्ती की ओर उन्मुख बनें। उन सौभाग्यशाली साधकों के अनुभव की ओर चलिए किः राम के दीवानों को जग के सुख की चाह नहीं । मुसीबतों के पहाड़ टूटे मुँह से निकलती आह नहीं ।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ