यह सदैव याद रहे कि जो व्यक्ति दुनिया की विपत्तियोँ से, लोगोँ की टीका-टिप्पणी से, निँदा स्तुति से नहीँ हिलता वह दुनिया को अवश्य हिला देगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ऋषियों-मुनियों ने भक्तिभाव बढ़ाने के लिए श्रीहरि के भजन-कीर्तन को उत्तम साधन बताया है। इससे मन पवित्र एवं निर्मल होता है। अनंत काल से प्रसुप्त आत्मा जाग्रत होती है। भक्तजनों ने इस सर्वश्रेष्ठ साधन से मन का समाधान पाना बड़ा सुगम माना है। संतजन भी कीर्तन को अंतःकरण को कोमल बनाने का प्रभावशाली साधन बताते हं। सचमुच, परमात्म-प्रेम से भीगे हुएपदों के कीर्तन में ऐसा स्वाद है, ऐसा रस है, ऐसा प्रभाव है जो दूसरे मार्ग में दुर्लभ है।खूब शांत भाव से, पूरे प्रेमपूर्ण अंतःकरण से प्रेममय पदों का पावन कीर्तन करना चाहिए। भावनापूर्ण हृदय से भक्तिपूर्ण गीत गाने चाहिए। भक्तिरस में सराबोर होकर, प्रेमावेश में गदगद होकर समानुरागरस में मग्न होना चाहिए।जिस कीर्तन को करते-करते तन रोमांचित हो उठे, मन प्रफुल्लित हो जाय, प्रेमाश्रु बहने लगें, प्रेमावेग आ जाय, वह कीर्तन पूरे तन, मन एवं स्नायुओं तथा समग्र अस्थि-जाल को प्रभावित करके पावन बना देता है। इससे सहज ही आत्मशांति मिलने लगती है। हृदय जब भक्तिभाव से सराबोर हो जाता है तब समाधि के सभी साधन सुगम हो जाते हैं।जिनकी वृत्ति स्थिर नहीं रहती, जिनमें श्रद्धा-भक्ति नहीं जगती, जिन्हें सन्मार्ग नहीं मिलता, जिनमें अचल निश्चय नहीं होता, उनका ध्यान-भजन भी भंग हो जाता है। यदि अन्तर्यामी प्यारे राम के पावनकारीनाम में मनोवृत्ति स्थिर हो जाय तो चित्त में उद्वेग अथवा उचाट न रहे। कामकाज करते हुए भी समता बनी रहे। कार्य करते हुए भी हरिस्मरण किया जा सकता है। ऐसे भक्त का मन कार्य करते हुए भी विषम नहीं होता। अतः प्यारे! मुख में रखो रामनाम और हाथों से करो सुन्दर काम। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ शास्त्रों में आता है कि संत की निन्दा, विरोध या अन्य किसी त्रुटि के बदले में संत क्रोध कर दें, शाप दे दें तो इतना अनिष्ट नहीं होता जितना अनिष्ट संतों की खामोशी व सहनशीलता के कारण होता है। सच्चे संतों की बुराई का फल तो भोगना ही पड़ता है। संत तो दयालु और उदार होते हैं। वे तो क्षमा कर देते हैं, परंतु प्रकृति कभी नहीं छोड़ती। इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि सच्चे संतों व महापुरुषों के निन्दकों को कैसे-कैसे भीषण कष्टों को सहते हुए बेमौत मरना पड़ा है और पता नहीं किन-किन नरकों को सड़ना पड़ा है। अतएव समझदारी इसी में है कि हम संतों की प्रशंसा करके या उनके आदर्शों को अपनाकर लाभ न ले सकें तो उनकी निन्दा करके पुण्य व शांति भी नष्ट नहीं करें। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया, मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो। 188· Share AtmGunjan 21 December at 11:14· । यदि तू निज स्वरुप का प्रेमी बन जाये तो आजीविका की चिन्ता, रमणियों का श्रवण-मनन और शत्रुओ का दुःखद स्मरण - यह सब छूट जाये। उदर-चिन्ता प्रिय-चर्चा विरही को जैसे खले। निज स्वरुप में निष्ठा हो तो ये सभी सहज में टले।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ क्या आप अपने-आपको दुर्बल मानते हो ? लघुताग्रंथी में उलझ कर परिस्तिथियों से पिस रहे हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठे हो ? …तो अपने भीतर सुषुप्त आत्मबल को जगाओ। शरीर चाहे स्त्री का हो, चाहे पुरुष का, प्रकृति के साम्राज्य में जो जीते हैं वे सब स्त्री हैं और प्रकृति के बन्धन से पार अपने स्वरूप की पहचान जिन्होंने कर ली है, अपने मन की गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर जिन्होंने फेंक दी हैं, वे पुरुष हैं। स्त्री या पुरुष शरीर एवं मान्यताएँ होती हैं। तुम तो तन-मन से पार निर्मल आत्मा हो। जागो…उठो…अपने भीतर सोये हुये निश्चयबल को जगाओ। सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को विकसित करो। आत्मा में अथाह सामर्थ्य है। अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके। अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके। भौतिक जगत में वाष्प की शक्ति, ईलेक्ट्रोनिक शक्ति, विद्युत की शक्ति, गुरुत्वाकर्षण की शक्ति बड़ी मानी जाती है लेकिन आत्मबल उन सब शक्तियों का संचालक बल है। आत्मबल के सान्निध्य में आकर पंगु प्रारब्ध को पैर मिल जाते हैं, दैव की दीनता पलायन हो जाती हैं, प्रतिकूल परिस्तिथियाँ अनुकूल हो जाती हैं। आत्मबल सर्व रिद्धि-सिद्धियों का पिता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ईच्छा के शमन से परम पद की प्राप्ति होती है। ईच्छारहित हो जाना यही निर्वाण है और ईच्छायुक्त होना ही बंधन है। अतः यथाशक्ति ईच्छा को जीतना चाहिये। भला इतना करने में क्या कठिनाई है? जन्म, जरा, व्याधि और मृत्युरूपी कंटीली झाड़ियों और खैर के वृक्ष–समूहों की जड़ भी ईच्छा ही है। अतः शमरूपी अग्नि से अंदर-ही-अंदर बीज को जला ड़ालना चाहिये। जहाँ ईच्छाओं का अभाव है वहाँ मुक्ति निश्चित है। विवेक वैराग्य आदि साधनों से ईच्छा का सर्वथा विनाश करना चाहिये। ईच्छा का संबंध जहाँ-जहाँ है वहाँ-वहाँ पाप, पुण्य, दुखराशियाँ और लम्बी पीड़ाओं से युक्त बंधन को हाज़िर ही समझो। पुरुष की आंतरिक ईच्छा ज्यों-ज्यों शान्त होती जाती है, त्यों-त्यों मोक्ष के लिये उसका कल्याणकारक साधन बढ़ता जाता है। विवेकहीन ईच्छा को पोसना, उसे पूर्ण करना यह तो संसाररूपी विष वृक्ष को पानी से सींचने के समान है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ गुरु का स्थान हमारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है. हम संसारी जीवों कि बात ही क्या करें, जब स्वयं प्रभु रूप धारण करते हैं, चाहे वो राम रूप हो या श्याम रूप, उन्हें भी गुरु धारण करने ही पड़ते है. भगवान कहते हैं कि वो हर जगह व्यक्तिगत रूप से हाज़िर नहीं हो सकते, इसलिए उन्होंने गुरु को बनाया जो भक्तों का परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ सके. भक्त और भगवान इस भव सागर के दो किनारे हैं और इन दो किनारों को जोड़ने का काम गुरुदेव का होता है. हम ये बात बड़े ध्यान से समझे कि गुरु भगवन नहीं होते और जो ये कहे कि मै भगवन हूँ, वो गुरु भी नहीं है. पर ये बात भी सत्य है कि गुरु यदि इश्वर नहीं हैं तो वो व्यक्ति भी नहीं हैं, गुरु तो केवल परमात्मा कि अभिव्यक्ति हैं. प्रभु ने अपना प्रतिनिधि बनाकर गुरु को अपने भक्तों के बीच में भेजा है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ