हे साधक ! ईश्वर न दूर है न दुर्लभ। आज दृढ़ संकल्प कर कि ‘मैं परमात्मा का साक्षात्कार करके ही रहूँगा।‘ तू केवल एक कदम उठा, नौ सौ निन्यानवे कदम वह परमात्मा उठाने को तैयार है। कातरभाव से प्रार्थना करते-करते खो जा, जिसका है उसी का हो जा ! ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ कामी का साध्य कामिनी होता है, मोही का साध्य परिवार होता है, लोभी का साध्य धन होता है लेकिन साधक का साध्य तो परमात्मा होते हैं। जीवभाव की जंजीरों में जकड़ा साधक जब संसार की असारता को कुछ-कुछ जानने लगता है तो उसके हृदय में विशुद्ध आत्मिक सुख की प्यास जगती है। उसे पाने के लिए वह भिन्न-भिन्न शास्त्रों व अनेक साधनाओं का सहारा लेता है परंतु जब उसे यह अनुभव होता है कि उसका भीतरी खालीपन किसी प्रकार दूर नहीं हो रहा है तो वह अपने बल का अभिमान छोड़कर सर्वव्यापक सत्ता परमात्मा को सहाय के लिए पुकारता है। तब उसके साध्य परमात्मा ब्रह्मज्ञानी सदगुरू के रूप में अवतरित होकर साकार रूप में अठखेलियाँ करते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जीवन में आने वाले कष्टों और मुसीबतों से हम बिचलित न हों। धैर्यवान बनकर बुद्धि पूर्वक उनसे जुझते हुए हम आत्मोन्नति के पथ पर आगे बढ़ें। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ चंचल-दुर्बल रहने से भगवान नहीं मिलते, न ही बड़े छोटे होने से भगवान मिलते है। चिंता करने से भी भगवान नहीं मिलते, न ही ʹहा-हा...ही-ही....ʹ करने से भगवान मिलते हैं। भगवान तो मिलते हैं जप-ध्यान से, भक्ति-ज्ञान से। हम जैसे रोज-रोज खाते हैं, रोज-रोज सोते उठते हैं, रोज-रोज जगत का व्यवहार करते हैं वैसे ही रोज-रोज परमात्मा का ध्यान भी करना चाहिए। रोज-रोज परमात्मा का जप सुमिरन करना चाहिए। रोज-रोज सत्संग-स्वाध्याय करना चाहिए एवं अपने आपको अंतर्मुख करने का यत्न करना चाहिए। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ किसी भी कारण किसी के प्रति चित्त में कटुता आ जाने से सेवा भी कटु हो जाती है क्योंकि सेवा शरीर का विषय नहीं अपितु रसमय हृदय का मधुर उल्लास है। सेवा में क्रिया की अपेक्षा भाव की प्रधानता है। भाव की मधुरता से सेवा भी मधुर रहती है। कटुता चाहे किसी के प्रति भी हो परन्तु उसका निवास-वस्तु स्वयं ही अशुद्ध हो जायेगी। अपने अन्तर को शांत व निर्मल रखकर रोम-रोम को रसमय करने का नाम है ʹसेवाʹ। सेवा में सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है सेवक का लक्ष्य। क्या किसी मनोरथ की पूर्ति, प्रतिष्ठा की आकांक्षा या किसी को वश में करने की इच्छा है ? यदि ऐसा है तो यह सेवा नहीं, स्वार्थ का ताण्डवमात्र है। सेवा का फल न तो स्वर्गादि की प्राप्ति है और न ही भोग-ऐश्वर्य की। सेवा स्वयं एक सर्वोत्तम फल है। सेवा केवल उपाय नहीं अपितु उपेय (प्राप्तव्य) भी है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो लोग निगुरे हैं, जिन लोगों के चित्त में वासना है उन लोगों को अकेलापन खटकता है। जिनके चित्त में राग, द्वेष और मोह की जगह पर सत्य की प्यास है उनके चित्त में आसक्ति का तेल सूख जाता है। आसक्ति का तेल सूख जाता है तो वासना का दीया बुझ जाता है। वासना का दीया बुझते ही आत्मज्ञान का दीया जगमगा उठता है। संसार में बाह्य दीया बुझने से अँधेरा होता है और भीतर वासना का दीया बुझने से उजाला होता है। इसलिए वासना के दीये में इच्छाओं का तेल मत डालो। आप इच्छाओं को हटाते जाओ ताकि वासना का दीया बुझ जाय और ज्ञान का दीया दिख जाय। वासना का दीया बुझने के बाद ही ज्ञान का दीया जलेगा ऐसी बात नहीं है। ज्ञान का दीया भीतर जगमगा रहा है लेकिन हम वासना के दीये को देखते हैं इसलिए ज्ञान के दीये को देख नहीं पाते। कुछ सैलानी सैर करने सरोवर गये। शरदपूर्णिमा की रात थी। वे लोग नाव में बैठे। नाव आगे बढ़ी। आपस में बात कर रहे हैं किः “यार ! सुना था किः ‘चाँदनी रात में जलविहार करने का बड़ा मज़ा आता है…. पानी चाँदी जैसा दिखता है…‘ यहाँ चारों और पानी ही पानी है। गगन में पूर्णिमा का चाँद चमक रहा है फिर भी मज़ा नहीं आता है।“ केवट उनकी बात सुन रहा था। वह बोलाः “बाबू जी ! चाँदनी रात का मजा लेना हो तो यह जो टिमटिमा रहा है न लालटेन, उसको फूँक मारकर बुझा दो। नाव में फानूस रखकर आप चाँदनी रात का मजा लेना चाहते हो? इस फानूस को बुझा दो।“ फानूस को बुझाते ही नावसहित सारा सरोवर चाँदनी में जगमगाने लगा। …..तो क्या फानूस के पहले चाँदनी नहीं थी? आँखों पर फानूस के प्रकाश का प्रभाव था इसलिए चाँदनी के प्रभाव को नहीं देख पा रहे थे। इसी प्रकार वासना का फानूस जलता है तो ज्ञान की चाँदनी को हम नहीं देख सकते हैं। अतः वासना को पोसो मत। ब्रह्मचारिव्रतेस्थितः। जैसे ब्रह्मचारी अकेला रहता है वैसे अपने आप में अकेले…. किसी की आशा मत रखो। आशा रखनी ही है तो राम की आशा रखो। राम की आशा करोगे तो तुम आशाराम बन जाओगे। आशा का दास नहीं…. आशा का राम ! आशा तो एक राम की और आश निराश। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अपने देवत्व में जागो। एक ही शरीर, मन, अंतःकरण को कब तक अपना मानते रहोगे ? अनंत-अनंत अंतःकरण, अनंत-अनंत शरीर जिस सच्चिदानंद में प्रतिबिम्बित हो रहे हैं, वह शिवस्वरूप तुम हो। फूलों में सुगंध तुम्हीं हो। वृक्षों में रस तुम्हीं हो। पक्षियों में गीत तुम्हीं हो। सूर्य और चाँद में चमक तुम्हारी है। अपने ‘सर्वोऽहम्‘ स्वरूप को पहचानकर खुली आँख समाधिस्थ हो जाओ। देर न करो, काल कराल सिर पर है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो कुकर्म करते हैं, दूसरों की श्रद्धा तोड़ते हैं अथवा और कुछ गहरा कुकर्म करते हैं उन्हें महादुःख भोगना पड़ता है और यह जरूरी नहीं है कि किसी ने आज श्रद्धा तोड़ी तो उसको आज ही फल मिले। आज मिले, महीने के बाद मिले, दस साल के बाद मिले… अरे ! कर्म के विधान में तो ऐसा है कि ५० साल के बाद भी फल मिल सकता है या बाद के किसी जन्म में भी मिल सकता है। श्रद्धा से प्रेमरस बढ़ता है, श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है। कोई हमारा हाथ तोड़ दे तो इतना पापी नहीं है, किसी ने हमारा पैर तोड़ दिया तो वह इतना पापी नहीं है, किसी ने हमारा सिर फोड़ दिया तो वह इतना पापी नहीं है जितना वह पापी है जो हमारी श्रद्धा को तोड़ता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ