श्री दत्तात्रेय जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ। एक देव में त्रिदेव भगवान के २४ अवतारों में छठा अवतार भगवान दत्तात्रेय का माना जाता है । दत्तात्रेयजी ब्रह्मा, विष्णु व महेश इन त्रिदेवों के अंशावतार माने जाते हैं। ब्रह्मर्षि कर्दम और देवी देवहूति की पुत्री तथा अत्रि ऋषि की पत्नी देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य के प्रभाव से ब्रह्मा, विष्णु व महेश को दूध पीते शिशु बना दिया था । बाद में उन्हींकी प्रार्थना से ये तीनों देव भगवान दत्तात्रेय के रूप में उनके घर अवतरित हुए । भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान शिव के अंशावतार भगवान दत्तात्रेयजी हमें प्रेरणा देते हैं कि जो मनुष्य अपने जीवन मेंं कोई महान कार्य करना चाहता है, उसमें सर्जक, पोषक एवं संहारक प्रतिभा होनी चाहिए । सर्जक प्रतिभा के अंतर्गत आता है सद्वि चारों का सर्जन, पोषक प्रतिभा सद्वृत्ति का पोषण करती है तथा संहारक प्रतिभा दुर्विचार एवं दुर्गुणों के संहार की योग्यता प्रदान करती है । दत्तात्रेयजी के हाथों में कमंडलु, माला, शंख, चक्र, त्रिशूल और डमरू हैं । इनमें से कमंडलु और माला भगवान ब्रह्मा के, शंख और चक्र भगवान विष्णु के तथा त्रिशूल और डमरू भगवान शिव के आभूषण हैं । ब्रह्माजी सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता देव हैं । वे कमंडलु और माला धारण करते हैं । कमंडलु में पानी होता है, जो हमें प्रेरणा देता है कि हमारा प्रत्येक सर्जन (कार्य) प्राणवान होना चाहिए । हमारा सर्जन प्राणवान कैसे हो ? संतों-महापुरुषों के निर्देशानुसार एवं दत्तचित्त (एकाग्र) होकर कार्य करने से हमारा प्रत्येक कार्य अवश्य प्राणवान हो जायेगा । किसी भी कार्य में दत्तचित्त होने के लिए लगन एवं सातत्य की जरूरत होती है । माला लगन और सातत्य का प्रतीक है तथा वह हमें जप-तप एवं भगवद्भक्ति की प्रेरणा भी देती है । 

              भगवान विष्णु विश्व का पालन-पोषण करते हैं। उनके हाथों में शंख और चक्र हैं । शंखनाद मंगल क्रांति का प्रतीक है । यह शुभ विचारों का सर्जक है । शंख हमें यह प्रेरणा देता है कि हर महान-क्रांतिकारी कार्य के मूल में मंगल एवं शुभ विचार ही होते हैं । शंखनाद से मन के अधिष्ठाता चंद्रदेव प्रसन्न होते हैं, जिससे हमारे मन में विशेष आह्लाद, उत्साह एवं सात्त्विकता का संचार होता है । शंखघोष शंखनादकर्ता को कांतिमान एवं शक्तिमान बनाता है, साथ ही वातावरण के हानिकारक परमाणुओं को नष्ट कर उसमें सात्त्विक आंदोलन पैदा करता है । शंख का जल अमंगल का नाशक एवं पवित्रतावर्धक है । सुदर्शन चक्र गतिसूचक है । वह हमें प्रेरणा देता है कि हे मानव ! यदि तू उन्नति चाहता है तो सत्पथ पर तत्परतापूर्वक आगे बढ, भूतकाल को भूल जा । नकारात्मक एवं पलायनवादिता के हीन विचारों को चीरते हुए तत्परता से आगे बढ । भगवान शिव सृष्टि के संहारकर्ता देव माने जाते हैं । उनके हाथों में त्रिशूल और डमरू रहता है । त्रिशूल संहार का प्रतीक है तो डमरू संगीत का । त्रिशूल और डमरू हमें प्रेरणा देते हैं कि जिस प्रकार क्रोध का आवाहन करके शिवजी त्रिशूल द्वारा दुष्टों का संहार करते हैं तथा उल्लास का आवाहन करके डमरू द्वारा भक्तों को आह्लादित करते हैं, फिर भी दोनों स्थितियों में उनके हृदय में समता एवं शांति निवास करती है, उसी प्रकार आपको भी दुर्जनों से लोहा लेने हेतु क्रोध का आवाहन करना पडे उस समय तथा आह्लाद-सुख के क्षण आयें उस समय भी अपने हृदय को सम एवं शांत बनाये रखना चाहिए । त्रिशूल यह भी संकेत देता है कि जो तीन गुणों पर विजय पाकर गुणातीत अवस्था को प्राप्त करते हैं, उन्हें संसार-ताप रूपी शूल कष्ट नहीं पहुँचा सकते । भगवान दत्तात्रेयजी ने चौबीस वस्तुओं-जीवों को गुरु मानकर उनसे सद्गुण लिये थे । इस प्रकार उन्होंने समाज को गुणग्राही बनने का संदेश दिया है । दत्तात्रेयजी की यह लीला महापुरुषों की अतुलित नम्रता को भी दर्शाती है । 

            भक्त प्रह्लाद द्वारा जिज्ञासा व्यक्त की जाने पर दत्तात्रेयजी ने उन्हें जो उपदेश दिया है, वह बहुत ही प्रेरणादायक है । समस्त मानव-जाति को परम उन्नति के पथ पर अग्रसर करने हेतु दिव्य ज्ञान की गंगा बहानेवाले दत्तात्रेयजी जैसे अवतारी ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों को आपके-हमारे अनंत-अनंत प्रणा श्री दत्तात्रेय जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ। एक देव में त्रिदेव भगवान के २४ अवतारों में छठा अवतार भगवान दत्तात्रेय का माना जाता है । दत्तात्रेयजी ब्रह्मा, विष्णु व महेश इन त्रिदेवों के अंशावतार माने जाते हैं। ब्रह्मर्षि कर्दम और देवी देवहूति की पुत्री तथा अत्रि ऋषि की पत्नी देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य के प्रभाव से ब्रह्मा, विष्णु व महेश को दूध पीते शिशु बना दिया था । बाद में उन्हींकी प्रार्थना से ये तीनों देव भगवान दत्तात्रेय के रूप में उनके घर अवतरित हुए । भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान शिव के अंशावतार भगवान दत्तात्रेयजी हमें प्रेरणा देते हैं कि जो मनुष्य अपने जीवन मेंं कोई महान कार्य करना चाहता है, उसमें सर्जक, पोषक एवं संहारक प्रतिभा होनी चाहिए । सर्जक प्रतिभा के अंतर्गत आता है सद्विचारों का सर्जन, पोषक प्रतिभा सद्वृत्ति का पोषण करती है तथा संहारक प्रतिभा दुर्विचार एवं दुर्गुणों के संहार की योग्यता प्रदान करती है । दत्तात्रेयजी के हाथों में कमंडलु, माला, शंख, चक्र, त्रिशूल और डमरू हैं । इनमें से कमंडलु और माला भगवान ब्रह्मा के, शंख और चक्र भगवान विष्णु के तथा त्रिशूल और डमरू भगवान शिव के आभूषण हैं । ब्रह्माजी सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता देव हैं । वे कमंडलु और माला धारण करते हैं । कमंडलु में पानी होता है, जो हमें प्रेरणा देता है कि हमारा प्रत्येक सर्जन (कार्य) प्राणवान होना चाहिए । हमारा सर्जन प्राणवान कैसे हो ? संतों-महापुरुषों के निर्देशानुसार एवं दत्तचित्त (एकाग्र) होकर कार्य करने से हमारा प्रत्येक कार्य अवश्य प्राणवान हो जायेगा । किसी भी कार्य में दत्तचित्त होने के लिए लगन एवं सातत्य की जरूरत होती है । माला लगन और सातत्य का प्रतीक है तथा वह हमें जप-तप एवं भगवद्भक्ति की प्रेरणा भी देती है । भगवान विष्णु विश्व का पालन-पोषण करते हैं। उनके हाथों में शंख और चक्र हैं । शंखनाद मंगल क्रांति का प्रतीक है । यह शुभ विचारों का सर्जक है । शंख हमें यह प्रेरणा देता है कि हर महान-क्रांतिकारी कार्य के मूल में मंगल एवं शुभ विचार ही होते हैं । शंखनाद से मन के अधिष्ठाता चंद्रदेव प्रसन्न होते हैं, जिससे हमारे मन में विशेष आह्लाद, उत्साह एवं सात्त्विकता का संचार होता है । शंखघोष शंखनादकर्ता को कांतिमान एवं शक्तिमान बनाता है, साथ ही वातावरण के हानिकारक परमाणुओं को नष्ट कर उसमें सात्त्विक आंदोलन पैदा करता है । शंख का जल अमंगल का नाशक एवं पवित्रतावर्धक है । सुदर्शन चक्र गतिसूचक है । वह हमें प्रेरणा देता है कि हे मानव ! यदि तू उन्नति चाहता है तो सत्पथ पर तत्परतापूर्वक आगे बढ, भूतकाल को भूल जा । नकारात्मक एवं पलायनवादिता के हीन विचारों को चीरते हुए तत्परता से आगे बढ । 

               भगवान शिव सृष्टि के संहारकर्ता देव माने जाते हैं । उनके हाथों में त्रिशूल और डमरू रहता है । त्रिशूल संहार का प्रतीक है तो डमरू संगीत का । त्रिशूल और डमरू हमें प्रेरणा देते हैं कि जिस प्रकार क्रोध का आवाहन करके शिवजी त्रिशूल द्वारा दुष्टों का संहार करते हैं तथा उल्लास का आवाहन करके डमरू द्वारा भक्तों को आह्लादित करते हैं, फिर भी दोनों स्थितियों में उनके हृदय में समता एवं शांति निवास करती है, उसी प्रकार आपको भी दुर्जनों से लोहा लेने हेतु क्रोध का आवाहन करना पडे उस समय तथा आह्लाद-सुख के क्षण आयें उस समय भी अपने हृदय को सम एवं शांत बनाये रखना चाहिए । त्रिशूल यह भी संकेत देता है कि जो तीन गुणों पर विजय पाकर गुणातीत अवस्था को प्राप्त करते हैं, उन्हें संसार-ताप रूपी शूल कष्ट नहीं पहुँचा सकते । भगवान दत्तात्रेयजी ने चौबीस वस्तुओं-जीवों को गुरु मानकर उनसे सद्गुण लिये थे । इस प्रकार उन्होंने समाज को गुणग्राही बनने का संदेश दिया है । दत्तात्रेयजी की यह लीला महापुरुषों की अतुलित नम्रता को भी दर्शाती है । भक्त प्रह्लाद द्वारा जिज्ञासा व्यक्त की जाने पर दत्तात्रेयजी ने उन्हें जो उपदेश दिया है, वह बहुत ही प्रेरणादायक है । समस्त मानव-जाति को परम उन्नति के पथ पर अग्रसर करने हेतु दिव्य ज्ञान की गंगा बहानेवाले दत्तात्रेयजी जैसे अवतारी ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों को आपके-हमारे अनंत-अनंत प्रणाम हैं। सौभाग्य हो तो श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध के अध्याय ७, ८ एवं ९ में वर्णित दत्तात्रेयजी के २४ गुरु एवं उनसे मिलनेवाली सीख तथा सप्तम स्कंध के १३वें अध्याय में दिये गये श्री दत्तात्रेय-प्रह्लाद संवाद का बार-बार पठन करना चाहिए और अपना मंगल करना चाहिए । दत्तात्रेयजी का प्रहलाद को उपदेश एक बार दत्तात्रेयजी सह्यपर्वत की तलहटी में लेटे थे । वहाँ आकर प्रहलाद ने उनसे पूछा : ‘‘भगवन् ! आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषों के समान हृष्ट-पुष्ट है । संसार का यह नियम है कि उद्योग करनेवालों को धन मिलता है, धनवालों को ही भोग प्राप्त होता है और भोग-सामग्रीवालों का ही शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता । भगवन् ! आप कोई उद्योग तो करते नहीं, यों ही पडे रहते हैं । इसलिए आपके पास धन है नहीं। फिर आपको भोग कहाँ से प्राप्त होंगे ? ब्राह्मण देवता ! बिना भोग के ही आपका यह शरीर इतना हृष्ट-पुष्ट कैसे है ? यदि हमारे सुनने योग्य हो, तो अवश्य बतलाइये । आप विद्वान, समर्थ और चतुर हैं । आपकी बातें बडी अदभुत और प्रिय होती हैं । ऐसी अवस्था में आप सारे संसार को कर्म करते हुए देखकर भी समभाव से पडे हुए हैं, इसका क्या कारण है ? दत्तात्रेयजी ने कहा : ‘‘हे प्रहलाद ! मैंने इस तन को प्रारब्ध पर छोड दिया है । प्रारब्धवेग से कभी रूखा-सूखा मिलता है तो खा लेता हूँ और कभी चिकना-चपाटा मिलता है तो वह भी खा लेता हूँ । कभी कुछ भी खाने को नहीं मिलता तब उपवास भी कर लेता हूँ । कभी आदर मिले तो उसको भी देख लेता हूँ और कोई अपमान कर दे तो उसको भी देख लेता हूँ। मैंने यह निशचय कर लिया है कि सब अपने-अपने कर्मों से संसार में आते हैं । सबका अपना-अपना स्वभाव, अपनी-अपनी प्रकृति है । इसलिए मैं किसीकी निन्दा-स्तुति नहीं करता, अपितु संसार को खेलमात्र समझकर अंतरात्म-परमात्म सुख में तृप्त रहता हूँ। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध के अध्याय ७, ८ एवं ९ में वर्णित दत्तात्रेयजी के २४ गुरु एवं उनसे मिलनेवाली सीख तथा सप्तम स्कंध के १३वें अध्याय में दिये गये श्री दत्तात्रेय-प्रह्लाद संवाद का बार-बार पठन करना चाहिए और अपना मंगल करना चाहिए । 

           दत्तात्रेयजी का प्रहलाद को उपदेश एक बार दत्तात्रेयजी सह्यपर्वत की तलहटी में लेटे थे । वहाँ आकर प्रहलाद ने उनसे पूछा : ‘‘भगवन् ! आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषों के समान हृष्ट-पुष्ट है । संसार का यह नियम है कि उद्योग करनेवालों को धन मिलता है, धनवालों को ही भोग प्राप्त होता है और भोग-सामग्रीवालों का ही शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता । भगवन् ! आप कोई उद्योग तो करते नहीं, यों ही पडे रहते हैं । इसलिए आपके पास धन है नहीं। फिर आपको भोग कहाँ से प्राप्त होंगे ? ब्राह्मण देवता ! बिना भोग के ही आपका यह शरीर इतना हृष्ट-पुष्ट कैसे है ? यदि हमारे सुनने योग्य हो, तो अवश्य बतलाइये । आप विद्वान, समर्थ और चतुर हैं । आपकी बातें बडी अदभुत और प्रिय होती हैं । ऐसी अवस्था में आप सारे संसार को कर्म करते हुए देखकर भी समभाव से पडे हुए हैं, इसका क्या कारण है ? दत्तात्रेयजी ने कहा : ‘‘हे प्रहलाद ! मैंने इस तन को प्रारब्ध पर छोड दिया है । प्रारब्धवेग से कभी रूखा-सूखा मिलता है तो खा लेता हूँ और कभी चिकना-चपाटा मिलता है तो वह भी खा लेता हूँ । कभी कुछ भी खाने को नहीं मिलता तब उपवास भी कर लेता हूँ । कभी आदर मिले तो उसको भी देख लेता हूँ और कोई अपमान कर दे तो उसको भी देख लेता हूँ। मैंने यह निशचय कर लिया है कि सब अपने-अपने कर्मों से संसार में आते हैं । सबका अपना-अपना स्वभाव, अपनी-अपनी प्रकृति है । इसलिए मैं किसीकी निन्दा-स्तुति नहीं करता, अपितु संसार को खेलमात्र समझकर अंतरात्म-परमात्म सुख में तृप्त रहता हूँ।