जो लोग भगवान को छोड़कर केवल मान्यताओं में उलझे हैं उनसे तो भगवान का एवं मान्यताओं का, दोनों भजन करने वाला ठीक है लेकिन मान्याताओं का भजन जब तक मौजूद रहता है तब तक संसारसागर से पूर्ण रूप से नहीं तरा जा सकता। कोई युद्ध कर रहा हो, बाणों की बौछार हो रही हो फिर भी उसे अपने में कर्त्तृत्व न दिखे, हो रहा है.... मैं नहीं कर रहा... यह भाव रहे तो ऐसा मनुष्य संसार सागर से अवश्य तर जाता है। मान लो, कोई मछुआरा जाल फेंकता है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, चारो दिशाओं में वह जाल फेंकता है। बड़ी-छोटी, चतुर सभी मछलियाँ उसके जाल में फँस जाती हैं किन्तु एक मछली जो उसके पैरों के इर्द-गिर्द घूमती है वह कभी उसकी जाल में नहीं फँसती क्योंकि मछुआरा वहाँ जाल डाल ही नहीं सकता। ऐसे ही चतुर आदमी भी माया में फँसे हैं, बुद्धू आदमी भी फँसे हैं, भोगी भी फँसे हैं और त्यागी भी फँसे हैं, विद्वान भी फँसे हैं, यक्ष भी फँसे हैं और किन्नर भी फँसे हैं, गंधर्व भी फँसे हैं और देव भी फँसे हैं, आकाशचारी भी फँसे हैं और जलचर भी फँसे हैं, भूतलवाले भी फँसे हैं और पातालवाले भी फँसे हैं... सब माया के इन तीन गुणों सत्त्व, रज और तम में से किसी-न-किसी गुण में फँसे हैं। सभी जाल में हैं लेकिन जो पूरी तरह से ईश्वर की शरण में चले गये हैं वे धनभागी इस मायाजाल से बच गये हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ राग और द्वेष, भय और क्रोध हमारे चित्त को मलिन करते हैं। अनुकूलता आती है तो चित्त में राग की गहरी रेखा होती है, प्रतिकूलता आती है तो द्वेष या भय की रेखा गहरी होती है। चित्त में रेखायें पड़ जाती हैं तो चित्त क्षत-विक्षत हो जाता है। फिर वह शांत, स्वस्थ नहीं रहता... और अशान्तस्य कुत: सुखम। अशान्त चित्त को सुख कहाँ? संशय वाले को सुख कहाँ? उद्विग्न को सुख कहाँ? हे चैतन्य जीव ! तेरी कई मौतें हुई लेकिन तू नहीं मरा। तेरे शरीर की मौतें हुईं। तेरे कई शरीरों को बचपन, जवानी और वृद्धत्व आया, मौतें हुईं फिर भी तेरा कुछ नहीं बिगड़ा। जिसका कुछ नहीं बिगड़ावह तू है। तू अपने उसी आत्म-स्वभाव को जगा। छोड़ संसार की वासना... छोड़ दुनिया का लालच ... एक आत्मदृष्टि रखकर इस समय पार होने का संकल्प कर। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ हे चैतन्य देव ! तू इस विस्तृत जगत को दीर्घ काल से चला आता मत समझ। तू ऐसा ख्याल मत कर बैठना कि, 'मेरा पूर्व जन्म था और वहाँ किये हुए पाप पुण्यों के फलस्वरूप यह वर्त्तमान जन्म हुआ है और इस वर्त्तमान जन्म में कर्म उपासनादि साधन-संपन्न होकर ज्ञान प्राप्त करूँगा और मोक्ष का भागी बनूँगा। मुझसे पृथक अन्य लोग भी हैं जिनमें से कोई मुक्त हैं कोई बद्ध हैं।' प्यारे ! अन्तःकरणरूपी गुफा में बैठकर इस प्रकार का विचार मत करना। क्योंकि यह सारा विश्व स्वप्नवत है जैसे क्षण भर से तुझको स्वप्न में विस्तीर्ण संसार दिख जाता है और उस क्षण के ही अन्दर तू अपना जन्मादि मान लेता है वैसे ही यह वर्त्तमान काल का जगत भी तेरा क्षण भर का ही प्रमाद है। प्रिय आत्मन् ! न तेरा पहले जन्म था न वर्त्तमान में है और न आगे होगा। यदि क्षणमात्र के लिए अपने आसन से हटेगा, अपने आपको स्वरूप में स्थित न मानेगा, प्रमाद करेगा तो वही प्रमाद विस्तीर्ण जगत हो भासेगा। प्यारे ! तू अपने आपको मन, बुद्धि आदि के छोटे से आँगन में मत समझ। जैसे महान् समुद्र में छोटी बड़ी अनेक तरंगे पैदा और नष्ट होती रहती हैं वैसे ही अनंत अनंत मन, बुद्धि आदि तरंग तुझ महासागर में पैदा हो होकर नष्ट होती रहती हैं। मन बुद्धि की कल्पना ही संसार है। नहीं नहीं.... मन-बुद्धि ही संसार है। इनसे भिन्न संसार की सत्ता किंचित मात्र भी नहीं है। मन बुद्धि की भी अपनी अलग सत्ता नहीं है। तेरी ही सत्ता से मन बुद्धि भासते हैं। जैसे मरूभूमि में रेत ही जल होकर भासती है वैसे तू ही जगत होकर भास रहा है। जैसे रेत सदैव रेत ही है फिर भी दूर से जल नजर आता है वैसे ही तू चैतन्य आत्मा सदैव ज्यों का त्यों एकरस, निर्विकार, अखण्ड आनन्दघन है, परंतु मन-बुद्धि में से जगत होकर भासता है। देख, भाष्यकार स्वामी क्या कहते हैं ! मय्यखण्डसुखाम्योधे बहुधा विश्ववीचयः। उत्पद्यन्ते विलीयन्ते मायामारूतविभ्रमात्।। मुझ अखण्ड आनन्द स्वरूप आत्मारूपी सागर में मायारूपी पवन से, भ्रांति के कारण अनेक-अनेक विश्वरूपी तरंगे उत्पन्न हो रही हैं और विलीन हो रही हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ रोम-रोम पावन हो रहा है मेरे अपने स्वभाव से। यह शरीर भी पावन हो रहा है मेरे चिदानन्द स्वभाव से। इस शरीर से छूकर जो हवाएँ जाती हैं वे भी पवित्रता, शीतलता, प्रेम और आनन्द टपका रही हैं। मैं आत्मा था, मैं चैतन्य था, मैं प्रेम स्वरूप था, मैं आनन्दस्वरूप था लेकिन संकल्प विकल्पों ने मुझे ढक रखा था। अब वे कुछ स्थगित हुए हैं तो परितृप्ति का अनुभव हो रहा है। मैं तो पहले से ही ऐसा था। हीरा धूल में ढक गया था तब भी वैसा ही चमकदार था लेकिन लोगों को दिखता नहीं था। मैंने मन को, बुद्धि को, इन्द्रियों को, तन को पवित्र किया, प्रकाशित किया तब वे आनन्द को प्राप्त हुए। मैं तो उसके पहले भी ऐसा ही आनन्दस्वरूप था। वाह.... वाह.... ! ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जब तक मनुष्य चिन्ताओं से उद्विग्न रहता है, इच्छा एवं वासना का भूत उसे बैठने नहीं देता तब तक बुद्धि का चमत्कार प्रकट नहीं होता। जंजीरों से जकड़ी हुई बुद्धि हिलडुल नहीं सकती। चिन्ताएँ, इच्छाएँ और वासनाएँ शांत होने से स्वतंत्र वायुमंडल का अविर्भाव होता है। उसमें बुद्धि को विकसित होने का अवकाश मिलता है। पंचभौतिक बन्धन कट जाते हैं और शुद्ध आत्मा अपने पूर्ण प्रकाश में चमकने लगता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जितने तुम डरते हो, जितने जितने तुम घबराते हो, जितने जितने तुम विनम्र होकर सिकुड़ते हो उतना ये गुण्डा तत्त्ववाले समझते हैं कि हम बड़े हैं और ये हमसे छोटे हैं। तुम जितना भीतर से निर्भीक होकर जीते हो उतना उन लोगों के आगे सफल होते हो। हमें मिटा सके ये जमाने में दम नहीं। हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं।। हमारा चैतन्य-स्वरूप ईश्वर हमारे साथ है, हम ईमानदारी से जीते हैं, दूसरों का हम अहित नहीं करते, अहित नहीं चाहते फिर हमारा बुरा कैसे हो सकता है? बुरा होता हुआ दिखे तो डरो मत। सारी दुनिया उल्टी होकर टँग जाय फिर भी तुम सच्चाई में अडिग रहोगे तो विजय तुम्हारी ही होगी। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ