'श्रीमद् आद्य शंकराचार्य' जयंती 23 अप्रैल।
दक्षिण भारत के केरल प्रान्त से पैदल चलते हुए दो महीने से भी अधिक समय
तक यात्रा करने के बाद शंकर नाम का बालक पहुँचा उन संन्यासियों के पास।
"मैंने नाम सुना है भगवान गोविन्दपादाचार्य का। वे पूज्यपाद आचार्य कहाँ
रहते हैं ?"
संन्यासियों ने बताया किः "हम भी उनके दर्शन का इन्तजार करते-करते बूढ़े
हो चले। उनकी समाधि खुले, उनकी अमृत बरसाने वाली निगाहें हम पर पड़ें,
उनके ब्रह्मानुभव के वचन हमारे कानों में पड़े और कान पवित्र हों इसी
इन्तजार में हम भी नर्मदा किनारे अपनी कुटियाएँ बनाकर बैठे हैं।"
संन्यासियों ने उस बालक को निहारा। वह बड़ा तेजस्वी लग रहा था। इस बाल
संन्यासी का सम्यक् परिचय पाकर उनका विस्मय बढ़ गया। कितनी दूर केरल
प्रदेश ! यह बच्चा वहाँ से अकेला ही आया है श्रीगुरू की आश में। जब
उन्होंने देखा कि इस अल्प अवस्था में ही वह भाष्य समेत सभी शास्त्रों में
पारंगत है और इसके फलस्वरूप उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया है तो उन
सबका मन प्रसन्नता से भर गया। मुग्ध होते हुए पूछाः
"क्या नाम है बेटे ?"
"मेरा नाम शंकर है।"
बच्चे की ओजस्वी वाणी और तीव्र जिज्ञासा देखकर उन्होंने समाधिस्थ बैठे
महायोगी गुरूवर्य श्री गोविन्दपादाचार्य के बारे में कुछ बातें कही। वह
निर्दोष नन्हा बालक भगवान गोविन्दपादाचार्य के दर्शन के लिए तड़प उठा।
संन्यासियों ने कहाः
"वह दूर जो गुफा दिखाई दे रही है उसमें वे समाधिस्थ हैं। अन्धेरी गुफा
में दिखाई नहीं पड़ेगा इसलिए यह दीपक ले जा।"
दीया जलाकर उस बालक ने गुफा में प्रवेश किया। विस्मय से विमुग्ध होकर
देखा तो एक अति दीर्घकाय, विशाल-भाल-प्रदेशवाले, शान्त मुद्रा, लम्बी जटा
और कृश देहवाले फिर भी पूरी आध्यात्मिकता के तेज से आलोकित एक महापुरूष
पद्मासन में समाधिस्थ बैठे थे। शरीर की त्वचा सूख चुकी थी फिर भी उनका
शरीर ज्योतिर्मय था। भगवान का दर्शन करते ही शंकर का रोम-रोम पुलकित हो
उठा। मन एक प्रकार से अनिर्वचनीय दिव्यानन्द से भर उठा। अबाध अश्रुजल से
उनका वक्षः स्थल प्लावित हो गया। उसकी यात्रा का परिश्रम सार्थक हो गया।
सारी थकान उतर गयी। करबद्ध होकर वे स्तुति करने लगेः
"हे प्रभो ! आप मुनियों में श्रेष्ठ हैं। आप शरणागतों को कृपाकर
ब्रह्मज्ञान देने के लिए पतंजली के रूप में भूतल पर अवतीर्ण हुए हैं।
महादेव के डमरू की ध्वनि के समान आपकी भी महिमा अनंत एवं अपार है।
व्याससुत शुकदेव के शिष्य गौड़पाद से ब्रह्मज्ञान का लाभ पाकर आप यशस्वी
हुए हैं। मैं भी ब्रह्मज्ञान-प्राप्ति की कामना से आपके श्रीचरणों में
आश्रय की भिक्षा माँगता हूँ। समाधि-भूमि से व्युत्थित होकर इस दीन शिष्य
को ब्रह्मज्ञान प्रदान कर आप कृतार्थ करें।"
इस सुललित भगवान की ध्वनि से गुफा मुखरित हो उठी। तब अन्य संन्यासी भी
गुफा में आ इकट्ठे हुए। शंकर तब तक स्तवगान में ही मग्न थे। विस्मय
विमुग्ध चित्त से सबने देखा कि भगवान गोविन्दपाद की वह निश्चल निस्पन्द
देह बार-बार कम्पित हो रही है। प्राणों का स्पन्दन दिखाई देने लगा।
क्षणभर में ही उन्होंने एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर चक्षु उन्मीलित किये।
शंकर ने गोविन्दपादाचार्य भगवान को साष्टांग प्रणाम किया। दूसरे संन्यासी
भी योगीश्वर के चरणों में प्रणत हुए। आनंदध्वनि से गुफा गुंजित हो उठी।
तब प्रवीण संन्यासीगण योगीराज को समाधि से सम्पूर्ण रूप से व्यथित कराने
के लिए यौगिक प्रकियाओं में नियुक्त हो गये। क्रम से योगीराज का मन
जीवभूमि पर उतर आया। यथा समय आसन का परित्याग कर वे गुफा से बाहर निकले।
योगीराज की सहस्रों वर्षों की समाधि एक बालक संन्यासी के आने से छूट गई
है, यह संवाद द्रुतगति से चतुर्दिक फैल गया। सुदूर स्थानों से यतिवर की
दर्शनाकांक्षा से अगणित नर-नारियों ने आकर ओंकारनाथ को एक तीर्थक्षेत्र
में परिणत कर दिया। शंकर का परिचय प्राप्त कर गोविन्दापादाचार्य ने जान
लिया कि यही वह शिवावतार शंकर है, जिसे अद्वैत ब्रह्मविद्या का उपदेश
करने के लिए हमने सहस्र वर्षों तक समाधि में अवस्थान किया और अब यही शंकर
वेद-व्यास रचित ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखकर जगत में अद्वैत ब्रह्मविद्या
का प्रचार करेगा।
तदनंतर एक शुभ दिन श्रीगोविन्दपादाचार्य ने शंकर को शिष्य रूप में ग्रहण
कर लिया और उसे योगादि की शिक्षा देने लगे। अन्यान्य संन्यासियों ने भी
उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। प्रथम वर्ष उन्होंने शंकर को हठयोग की शिक्षा
दी। वर्ष पूरा होने के पूर्व ही शंकर ने हठयोग में पूर्ण सिद्ध प्राप्त
कर ली। द्वितीय वर्ष में शंकर राजयोग में सिद्ध हो गये। हठयोग और राजयोग
की सिद्धि प्राप्ति करने के फलस्वरूप शंकर बहुत बड़ी अलौकिक शक्ति के
अधिकारी बन गये। दूरश्रवण, दूरदर्शन, सूक्ष्म देह से व्योममार्ग में गमन,
अणिमा, लघिमा, देहान्तर में प्रवेश एवं सर्वोपरि इच्छामृत्यु शक्ति के वे
अधिकारी हो गये। तृतीय वर्ष में गोविन्दपादाचार्य अपने शिष्य को विशेष
यत्नपूर्वक ज्ञानयोग की शिक्षा देने लगे। श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान,
धारणा, समाधि का प्रकृत रहस्य सिखा देने के बाद उन्होंने अपने शिष्य को
साधनकर्मानुसार अपरोक्षनुभूति के उच्च स्तर में दृढ़ प्रतिष्ठित कर दिया।
ध्यानबल से समाधिस्थ होकर नित्य नव दिव्यानुभूति से शंकर का मन अब सदैव
एक अतीन्द्रिय राज्य में विचरण करने लगा। उनकी देह में ब्रह्मज्योति
प्रस्फुटित हो उठी। उनके मुखमण्डल पर अनुपम लावण्य और स्वर्गीय हास झलकने
लगा। उनके मन की सहज गति अब समाधि की ओर थी। बलपूर्वक उनके मन को जीवभूमि
पर रखना पड़ता था। क्रमशः उनका मन निर्विकल्प भूमि पर अधिरूढ़ हो गया।
गोविन्दपादाचार्य ने देखा कि शंकर की साधना और शिक्षा अब समाप्त हो चुकी
है। शिष्य उस ब्राह्मी स्थिति में उपनीत हो गया है जहाँ प्रतिष्ठित होने
से श्रुति कहती हैः
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे।।
यह परावर ब्रह्म दृष्ट होने पर दृष्टा का अविद्या आदि संस्काररूप
हृदयग्रन्थि-समूह नष्ट हो जाता है एवं (प्रारब्धभिन्न)कर्मराशि का क्षय
होने लगता है। शंकर अब उसी दुर्लभ अवस्था में प्रतिष्ठित हो गये।
वर्षा ऋतु का आगमन हुआ। नर्मदा-वेष्टित ओंकारनाथ की शोभा अनुपम हो गयी।
कुछ दिनों तक अविराम दृष्टि होती रही। नर्मदा का जल क्रमशः बढ़ने लगा। सब
कुछ जलमय ही दिखाई देने लगा। ग्रामवासियों ने पालतू पशुओं समेत ग्राम का
त्यागकर निरापद उच्च स्थानों में आश्रय ले लिया।
गुरूदेव कुछ दिनों से गुफा में समाधिस्थ हुए बैठे थे। बाढ़ का जल
बढ़ते-बढ़ते गुफा के द्वार तक आ पहुँचा। संन्यासीगण गुरूदेव का जीवन
विपन्न देखकर बहुत शंकित होने लगे। गुफा में बाढ़ के जल का प्रवेश रोकना
अनिवार्य था क्योंकि वहाँ गुरूदेव समाधिस्थ थे। समाधि से व्युत्थित कर
उन्हे किसी निरापद स्थान पर ले चलने के लिये सभी व्यग्र हो उठे। यह
व्यग्रता देखकर शंकर कहीं से मिट्टी का एक कुंभ ले आये और उसे गुफा के
द्वार पर रख दिया। फिर अन्य संन्यासियों को आश्वासन देते हुए बोलेः "आप
चिन्तित न हों। गुरूदेव की समाधि भंग करने की कोई आवश्यकता नहीं। बाढ़ का
जल इस कुंभ में प्रविष्ट होते ही प्रतिहत हो जायेगा, गुफा में प्रविष्ट
नहीं हो सकेगा।"
सबको शंकर का यह कार्य बाल क्रीड़ा जैसा लगा किन्तु सभी ने विस्मित होकर
देखा कि जल कुंभ में प्रवेश करते ही प्रतिहत एवं रूद्ध हो गया है। गुफा
अब निरापद हो गई है। शंकर की यह अलौकिक शक्ति देखकर सभी अवाक् रह गये।
क्रमशः बाढ़ शांत हो गई। गोविन्दपादाचार्य भी समाधि से व्युत्थित हो गये।
उन्होंने शिष्यों के मुख से शंकर के अमानवीय कार्य की बात सुनी तो
प्रसन्न होकर उसके मस्तक पर हाथ रखकर कहाः
"वत्स ! तुम्हीं शंकर के अंश से उदभूत लोक-शंकर हो। गुरू गौड़पादचार्य के
श्रीमुख से मैंने सुना था कि तुम आओगे और जिस प्रकार सहस्रधारा नर्मदा का
स्रोत एक कुंभ में अवरूद्ध कर दिया है उसी प्रकार तुम व्यासकृत
ब्रह्मसूत्र पर भाष्यरचना कर अद्वैत वेदान्त को आपात विरोधी सब धर्ममतों
से उच्चतम आसन पर प्रतिष्ठित करने में सफल होंगे तथा अन्य धर्मों को
सार्वभौम अद्वैत ब्रह्मज्ञान के अन्तर्भुक्त कर दोगे। ऐसा ही गुरूदेव
भगवान गौड़पादाचार्य ने अपने गुरूदेव शुकदेव जी महाराज के श्रीमुख से
सुना था। इन विशिष्ट कार्यो के लिए ही तुम्हारा जन्म हुआ है। मैं तुम्हें
आशीर्वाद देता हूँ कि तुम समग्र वेदार्थ ब्रह्मसूत्र भाष्य में लिपिबद्ध
करने में सफल होंगे।"
श्री गोविन्दपादाचार्य ने जान लिया कि शंकर की शिक्षा समाप्त हो गई है।
उनका कार्य भी सम्पूर्ण हो गया है। एक दिन उन्होंने शंकर को अपने निकट
बुलाकर जिज्ञासा कीः
"वत्स ! तुम्हारे मन में किसी प्रकार का कोई सन्देह है क्या ? क्या तुम
भीतर किसी प्रकार अपूर्णता का अनुभव कर रहे हो ? अथवा तुम्हें अब क्या
कोई जिज्ञासा है ?"
शंकर ने आनन्दित हो गुरूदेव को प्रणाम करके कहाः
"भगवन ! आपकी कृपा से अब मेरे लिए ज्ञातव्य अथवा प्राप्तव्य कुछ भी नहीं
रहा। आपने मुझे पूर्णमनोरथ कर दिया है। अब आप अनुमति दें कि मैं समाहित
चित्त होकर चिरनिर्वाण लाभ करूँ।"
कुछ देर मौर रहकर श्री गोविन्दपादाचार्य ने शान्त स्वर में कहाः
"वत्स ! वैदिक धर्म-संस्थापन के लिए देवाधिदेव शंकर के अंश से तुम्हारा
जन्म हुआ है। तुम्हें अद्वैत ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने के लिए मैं
गुरूदेव की आज्ञा से सहस्रों वर्षों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था।
अन्यथा ज्ञान प्राप्त करते ही देहत्याग कर मुक्तिलाभ कर लेता। अब मेरा
कार्य समाप्त हो गया है। अब मैं समाधियोग से स्वस्वरूप में लीन हो
जाऊँगा। तुम अब अविमुक्त क्षेत्र में जाओ। वहाँ तुम्हें भवानिपति शंकर के
दर्शन प्राप्त होंगे। वे तुम्हें जिस प्रकार का आदेश देंगे उसी प्रकार
तुम करना।"
शंकर ने श्रीगुरूदेव का आदेश शिरोधार्य किया। तदनन्तर एक शुभ दिन
श्रीगोविन्दपादाचार्य ने सभी शिष्यों को आशीर्वाद प्रदान कर समाधि योग से
देहत्याग कर दिया। शिष्यों ने यथाचार गुरूदेव की देह का नर्मदाजल में
योगीजनोचित संस्कार किया।
गुरूदेव की आज्ञा के अनुसार शंकर पैदल चलते-चलते काशी आये। वहाँ काशी
विश्वनाथ के दर्शन किये। भगवान वेदव्यास का स्मरण किया तो उन्होंने भी
दर्शन दिये।
अपनी की हुई साधना, वेदान्त के अभ्यास और सदगुरू की कृपा से अपने
शिवस्वरूप में जगे हुए शंकर 'भगवान श्रीमद् आद्य शंकराचार्य' हो गये।
बाद में वे मंडनमिश्र के घर शास्त्रार्थ करने गये। मंडनमिश्र बड़े
विद्वान थे। उनके घर में पाले हुए तोते मैना भी वेद का पाठ करते थे वे
ऐसे धुरन्धर पंडित थे। लेकिन शंकराचार्य सदगुरू प्रसाद से आत्मानुभव में
परितृप्त थे। उन्होंने मंडनमिश्र को शास्त्रार्थ में परास्त किया। वे ही
मंडनमिश्र फिर शंकराचार्य के चार मुख्य शिष्यों में से एक हुए,
सुरेश्वाचार्य। शंकराचार्य का दूसरा शिष्य तोटक तो अनपढ़ था। फिर भी
शंकराचार्य की कृपा पचाने में सफल हो गया। तोटक, तोटक नहीं बचा,
तोटकाचार्य हो गया।