एकाग्रता से ही कार्य-कुशलता आती है और एकाग्रता केवल तभी संभव है जब मन चिंतामुक्त और भयमुक्त तथा सामंजस्यपूर्ण हो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जब-जब भय आता है, दुःख आता है, चिन्ता आती है, कुछ भी कष्ट आता है, आपत्ति आती है तो समझना चाहिए कि हमारे राग को भय हुआ है, हमारे राग को चिन्ता हुई है, हमारे राग को क्रोध हुआ है, हमारे राग को द्वेष हुआ है, हमारे राग के कारण अशान्ति हुई है यह बात समझकर यदि आप उस राग से सम्बन्ध विच्छेद करें तो उसी समय आप राग रहित परमात्मा में पहुँच जाएँगे। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जैसी प्रीति संसार के पदार्थों में है, वैसी अगर आत्मज्ञान, आत्मध्यान, आत्मानंद में करें तो बेड़ा पार हो जाय। जगत के पदार्थों एवं वासना, काम, क्रोध आदि से प्रीति हटाकर आत्मा में लगायें तो तत्काल मोक्ष हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है। काहे एक बिना चित्त लाइये ? ऊठत बैठत सोवत जागत, सदा सदा हरि ध्याइये। हे भाई ! एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी से क्यों चित्त लगाता है ? उठते-बैठते, सोते-जागते तुझे सदैव उसी का ध्यान करना चाहिए। यह शरीर सुन्दर नहीं है। यदि ऐसा होता तो प्राण निकल जाने के बाद भी यह सुन्दर लगता। हाड़-मांस, मल-मूत्र से भरे इस शरीर को अंत में वहाँ छोड़कर आयेंगे जहाँ कौए बीट छोड़ते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ कई लोग भगवान के रास्ते चलते हैं। गलती यह करते हैं कि 'चलो, सबमें भगवान हैं।' ऐसा करके अपने व्यवहार का विस्तार करते रहते हैं। तत्त्वज्ञान के रास्ते चलने वाले साधक सोचते हैं कि सब माया में हो रहा है। ऐसा करके साधन-भजन में शिथिलता करते हैं और व्यवहार बढ़ाये चले जाते हैं। अरे, माया में हो रहा है लेकिन माया से पार होने की अवस्था में भी तो जाओ साधन भजन करके ! साधन भजन छोड़ क्यों रहे हो ? 'जब तक जीना तब तक सीना।' जब तक जीवन है तब तक साधन-भजन की गुदड़ी को सीते रहो। थोड़ा वेदान्त इधर-उधर सुन लिया। आ गये निर्णय पर 'सब प्रकृति में हो रहा है।' फिर दे धमाधम व्यवहार में। साधन भजन की फुरसत ही नहीं। जो साधन-भजन छोड़ देते हैं वे शाब्दिक ज्ञानी बनकर रह जाते हैं। 'मैं भगवान का हूँ' यह मान लेते हैं और संसार की गाड़ी खींचने में लगे रहते हैं। अपने को भगवान का मान लेना अच्छा है। साधन-भजन का त्याग करना अच्छा नहीं। भगवान स्वयं प्रातःकाल में समाधिस्थ रहते हैं। शिवजी स्वयं समाधि करते हैं। रामजी स्वयं गुरू के द्वार पर जाते हैं, आप्तकाम पुरूषों का संग करते हैं। श्रीकृष्ण दुर्वासा ऋषि को गाड़ी में बिठाकर, घोड़ों को हटाकर स्वयं गाड़ी खींचते हैं। उनको ऐसा करने की क्या जरूरत थी ? हम लोगों को थोड़े रूपये-पैसे, कुछ सुख-सुविधाएँ मिल जाती हैं तो बोलते हैं- 'अब भगवान की दया है। जब मर जायेंगे तब भगवान हमें पकड़कर स्वर्ग में ले जायेंगे।' अरे भाई ! तू अपनी साधना की गुदड़ी सीना चालू तो रख ! बन्द क्यों करता है ? साधन-भजन छोड़कर बैठेगा तो संसार और धन्धा-रोजगार के संस्कार चित्त में घुस जायेंगे। 'जब तक जीना तब तक सीना।' जीवन का मंत्र बना लो इसे। चार पैसे की खेतीवाला सारी जिन्दगी काम चालू रखता है, चार पैसे की दुकानवाला सारी जिन्दगी काम चालू रखता है, चार पैसे का व्यवहार सम्भालने के लिए आदमी सदा लगा ही रहता है। मर जाने वाले शरीर को भी कभी छुट्टी की ? श्वास लेने से कभी छुट्टी ली ? पानी पीने से छुट्टी की ? भोजन करने से छुट्टी की ? नहीं। तो भजन से छुट्टी क्यों ? 'जब तक जीना तब तक सीना.... जब तक जीना तब तक सीना।' यह मंत्र होना चाहिए जीवन का। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बुद्धि को शुद्ध करने के लिए आत्मविचार की जरुरत है, ध्यान की जरुरत है, जप की जरुरत है । बुद्धि शुद्ध हो तो जैसे दूसरे शरीर को अपनेसे पृथक् देखते हैं वैसे ही अपने शरीर को भी आप अपनेसे अलग देखेंगे । ऐसा अनुभव जब तक नहीं होता, तब तक बुद्धि में मोह होने की संभावना रहती है । थोड़ा सा मोह हट जाता है तब लगता है कि मेरे को रुपयों में मोह नहीं है, स्त्री में मोह नहीं है, मकान में मोह नहीं है, आश्रम में मोह नहीं है। ठीक है। लेकिन प्रतिष्ठा में मोह है कि नहीं है, इसे जरा ढूँढ़ो । देह में मोह है कि नहीं है, जरा ढूँढ़ो। और मोह टूट जाते हैं लेकिन देह का मोह जल्दी नहीं टूटता, लोकेषण (वाहवाही) का मोह जल्दी नहीं टूटता , धन का मोह भी जल्दी से नहीं टूटता। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ चित्त की मधुरता से, बुद्धि की स्थिरता से सारे दुःख दूर हो जाते हैं। चित्त की प्रसन्नता से दुःख तो दूर होते ही हैं लेकिन भगवद-भक्ति और भगवान में भी मन लगता है। इसीलिए कपड़ा बिगड़ जाये तो ज्यादा चिन्ता नहीं, दाल बिगड़ जाये तो बहुत फिकर नहीं, रूपया बिगड़ जाये तो ज्यादा फिकर नहीं लेकिन अपना दिल मत बिगड़ने देना। क्योंकि इस दिल में दिलबर परमात्मा स्वयं विराजते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ यह जरूरी नहीं कि हम जैसा चाहते हैं ऐसा जगत बन जाएगा। यह सम्भव नहीं है। हम चाहेंगे ऐसी पत्नी होगी यह सम्भव नहीं है। पति ऐसा ही होगा यह सम्भव नहीं है। शिष्य ऐसा ही होगा यह सम्भव नहीं है। हम जैसा चाहें ऐसे गुरू बनें यह सम्भव नहीं है। यह सम्भव नहीं है ऐसा समझते हुए भी जितना भी उनका कल्याण हो सके ऐसी उनको यात्रा कराना यह अपने हृदय को भी खुश रखना है और उनका भी कल्याण करना है। हृदय को भी खुश रखना है और उनका भी कल्याण करना है।अगर हम किसी प्रकार की पकड़ बाँध रखें तो हमें दुःख होगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ भीतर से तुम दीन हीन मत होना । घबराहट पैदा करनेवाली परिस्थितियों के आगे भीतर से झुकना मत । ॐकार का सहारा लेना । मौत भी आ जाए तो एक बार मौत के सिर पर भी पैर रखने की ताकत पैदा करना । कब तक डरते रहोगे ? कब तक मनौतियाँ मनाते रहोगे ? कब तक नेताओं को, साहबों को, सेठों को, नौकरों को रिझाते रहोगे ? तुम अपने आपको रिझा लो एक बार । अपने आपसे दोस्ती कर लो एक बार । बाहर के दोस्त कब तक बनाओगे? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सबको प्रेम की मधुरता और सहानुभूति भरी आंखों से देखो। सुखी जीवन के लिए विशुद्ध निःस्वार्थ प्रेम ही असली खुराक है। संसार इसीकी भूख से मर रहा है अतः प्रेम का वितरण करो। अपने हृदय के आत्मिक प्रेम को हृदय में ही मत छिपा रखो। उदारता के साथ प्रेम बाँटों। जगत का बहुत-सा दुःख दूर हो जाएगा। जिसके बर्ताव में प्रेमयुक्त सहानुभूति नहीं है वह मनुष्य जगत में भाररूप है और जिसके हृदय में द्वेष है वह तो जगत के लिए अभिशापरूप है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ