संतों की अहैतुकी कृपा
(श्री रामानुजाचार्य जयंती : २४ अप्रैल)
ब्रह्मज्ञानी महापुरुष अवर्णनीय होते हैं । फिर भी भक्तों को उनके जैसा
बनने के लिए प्रेरित करने हेतु शास्त्र उनके लक्षणों का वर्णन करते हुए
कहते हैं : आत्मवत् पश्येत् सर्वभूतेषु...
आत्मानुभवी सत्पुरुष सम्पूर्ण प्राणियों को अपने आत्मा के समान देखते हैं
। वसुधैव कुटुम्बकम् । सम्पूर्ण धरती अपना ही कुटुम्ब है - ऐसी उनकी
अनुभूति होती है । लोकमांगल्य के उद्देश्य से सदा भ्रमण करते रहना
लोकसंतों का सहज स्वभाव होता है । इसलिए शास्त्रों में उन्हें संसारी
प्राणियों का उद्धार करनेवाले 'जंगम तीर्थ (चलते-फिरते तीर्थ) कहा गया है
। उनकी महिमा इतनी अलौकिक है कि उनकी दृष्टि किसी चिता (जलते हुए
मुर्देके धुएँ) पर पडती है तो उस मृत व्यक्ति की भी दुर्गति टल जाती है,
वे किसी वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करते हैं तो उसका भी उद्धार हो जाता
है । ऐसा ही एक प्रसंग श्री रामानुजाचार्यजीके जीवन में आता है ।
एक बार श्री रामानुजाचार्यजीअपने कुछ शिष्यों के साथ यात्रा कर रहे थे ।
वे किसी वन में एक सघन पीपल वृक्ष के नीचे ठहरे । जब आचार्य स्नानादि
नित्यकर्मों से निवृत्त हुए, तब उन्होंने शिष्यों को आज्ञा दी :
''प्रपत्ति की सामग्री एकत्रित करो ।
जब कोई जिज्ञासु गुरु के शरणापन्न होता है, उनका शिष्यत्व स्वीकार करना
चाहता है तो उसे 'प्रपत्ति कहते हैं ।
आचार्य की ऐसी आज्ञा सुनकर शिष्यों को बडा आश्चर्य हुआ कि यहाँ घोर जंगल
में प्रपत्ति अर्थात् दीक्षा के लिए कोई भी व्यक्ति तो दिखायी नहीं देता
। आचार्य भगवान किसे दीक्षा देंगे ? किसका संस्कार करायेंगे ? किंतु गुरु
की आज्ञा सर्वोपरि है, उसके पालन में तर्क-वितर्क, ननु-नच नहीं करनी
चाहिए- यही सोचकर उन्होंने चंदन, अक्षत आदि सभी उपयोगी वस्तुएँ यथाक्रम
सजाकर रख दीं । आचार्य ने उस पीपल के वृक्ष को ही विधिवत् दीक्षा दी ।
उसे तिलक, मुद्रा लगायी, मंत्र दिया ।
दीक्षा समाप्त होते ही सबने बडे आश्चर्य के साथ देखा कि पीपल के पत्ते
मुरझाने लगे । वह क्रम-क्रम से सूखता हुआ सर्वथा सूख गया ।
तब शिष्यों की समझ में आया कि आचार्य ने पीपल को दीक्षित करके उसे
कृतार्थ किया है ।
महापुरुषों के द्वारा कैसी अहैतुकी करुणा-कृपा बरसती रहती है ! जो
महापुरुष घन या क्षीण सुषुप्ति में स्थित जीवों को दृष्टि या
सान्निध्यमात्र से सद्गति प्रदान करने का सामथ्र्य रखते हैं, यदि उनके
हाथों में मनुष्य निखालिस भाव से अपनी जीवन-डोर सौंप दे तो उसके परम
उद्धार में क्या संशय है ?
जितने यज्ञ हैं, तप हैं तथा और भी दान, धर्म, तीर्थ, व्रत हैं - ये सब
जीवों को अभय देने की सोलहवीं कला के भी समान नहीं हैं और मनुष्य-जन्म
प्राप्त जीव को अभय-पद की प्राप्ति तभी हो सकती है, जब वह किसी आत्मनिष्ठ
सद्गुरु के चरणों में सच्चे हृदय से शरणापन्न हो ।
(लोक कल्याण सेतु : जून २००८)
* मनुष्य-जन्म प्राप्त जीव को अभय-पद की प्राप्ति तभी हो सकती है, जब वह
किसी आत्मनिष्ठ सद्गुरु के चरणों में सच्चे हृदय से शरणापन्न हो ।