आँखों से अंधा होना यह तो भाग्य की बात है, मगर विवेक से अंधा होना यह दुर्भाग्य की बात है। आंख के अंधे को जगत नजर नहीं आता मगर विवेक के अंधे को जगदीश नजर नहीं आता। आँख से अंधा होना दयनीय है मगर विवेक से अंधा होना सोचनीय है। आँख ना हो तो केवल एक जन्म ख़राब होता है लेकिन विवेक के अभाव में तो जन्म-जन्मान्तर तक प्रभावित होते हैं। आँखे ना होने के बावजूद सूरदास जी ने ना केवल अपना कल्याण किया बल्कि हजारों जीवों का भी कल्याण किया क्योंकि विवेक रुपी नेत्र थे। दुर्योधन के पास बाहर की आँखे थी पर भीतर ज्ञान के चक्षु नहीं थे। परिणाम ये रहा कि खुद के नाश के साथ-साथ परिवार के नाश का भी वह कारण बना। इसलिए निरन्तर सतसंग करो, भजन सुमिरन करो, संत शरणागति करो ताकि भीतर विवेक रुपी नेत्र खुल जाएँ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ श्रद्धा बहुत ऊँची चीज है। विश्वास और श्रद्धा का मूल्यांकन करना संभव ही नहीं है। जैसे अप्रिय शब्दों से अशांति और दुःख पैदा होता है ऐसे ही श्रद्धा और विश्वास से अशांति शांति में बदल जाती है, निराशा आशा में बदल जाती है, क्रोध क्षमा में बदल जाता है, मोह समता में बदल जाता है, लोभ संतोष में बदल जाता और काम राम में बदल जाता है। श्रद्धा और विश्वास के बल से और भी कई रासायनिक परिवर्तन होते हैं। श्रद्धा के बल से शरीर का तनाव शांत हो जाता है, मन संदेह रहित हो जाता है, बुद्धि में दुगनी-तिगुनी योग्यता आती है और अज्ञान की परतें हट जाती हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ हजारों वर्ष पहले का मनुष्य, हजारों वर्ष पहले का वातावरण और कई जन्मों के संस्कार थे। उनको ऐसा हुआ। उनको लक्ष्य बनाकर चलते तो जाओ लेकिन लक्ष्य बनाकर विक्षिप्त नहीं होना। हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ, लेकिन चित्त को सदा प्रसन्नता से महकता हुआ रखो। ऐसा ध्यान हो गया तो भी स्वप्न, न हुआ तो भी स्वप्न। जिस परमात्मा में शुकदेवजी आकर चले गये, वशिष्ठजी आकर चले गये, श्रीराम आकर चले गये, श्रीकृष्ण आकर चले गये वह परमात्मा अभी तुम्हारा आत्मा है। ऐसा ज्ञान जब तक नहीं होता है तब तक मोह नहीं जाता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ वेदों के गान में पवित्रता तथा वर्णोच्चार छन्द और व्याकरण के नियमों का कड़ा ख्याल रखना पड़ता है अन्यथा उद्देश्य भंग होकर उलटा परिणाम ला सकता है। परंतु नाम-संकीर्तन में उपरोक्त विविध प्रकार की सावधानियों की आवश्यकता नहीं है। शुद्ध या अशुद्ध, सावधानी या असावधानी से किसी भी प्रकार भगवन्नाम लिया जाय, उससे चित्तशुद्धि, पापनाश तथा परमात्म-प्रेम की वर्षा होगी ही। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ दूसरों के दोष मत देखो। दूसरों की गहराई में परमेश्वर को देखो, अपनी गहराई में परमेश्वर को देखो, उसे अपना मानो और प्रीतिपूर्वक स्मरण करो, फिर चुप हो जाओ तो भगवान में विश्रांति योग हो जायेगा। यह बहुत सरल है और बहुत-बहुत खजाना देता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ व्यवहार जगत के तूफान तो क्या, मौत का तूफान आये उससे भी टक्कर लेने का सामर्थ्य आ जाय इसका नाम है साक्षात्कार। इसका नाम है मनुष्य जीवन की सफलता। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ चित्त की मधुरता से, बुद्धि की स्थिरता से सारे दुःख दूर हो जाते हैं। चित्त की प्रसन्नता से दुःख तो दूर होते ही हैं लेकिन भगवद-भक्ति और भगवान में भी मन लगता है। इसीलिए कपड़ा बिगड़ जाये तो ज्यादा चिन्ता नहीं, दाल बिगड़ जाये तो बहुत फिकर नहीं, रूपया बिगड़ जाये तो ज्यादा फिकर नहीं लेकिन अपना दिल मत बिगड़ने देना। क्योंकि इस दिल में दिलबर परमात्मा स्वयं विराजते हैं। चाहे फिर तुम अपने आपको महावीर के भक्त मानो चाहे श्रीकृष्ण के भक्त मानो चाहे मोहम्मद के मानो चाहे किसी के भी मानो, लेकिन जो मान्यता उठेगी वह मन से उठेगी और मन को सत्ता देने वाली जो चेतना है वह सबके अन्दर एक जैसी है। जिसके जीवन में दैवी सम्पदा है उसमें ज्ञानवान का तेज होता है। ज्ञानवान के समीप बैठने से अपना चित्त शांत होने लगता है, ईश्वर के अभिमुख होने लगता है। उन महापुरुष की उपस्थिति में हमारे कुविचार कम होने लगते हैं। उनका तेज ऐसा होता है कि हृदय को शांति, शीतलता और ज्ञान-प्रसाद से पावन करता है। कभी कभी तो अति क्रोधी, अति क्रूर आदमी या गुंडा तत्त्वों के कहने से भी लोग काम करने लगते हैं लेकिन गुंडा तत्त्वों का तेज विकार का तेज है। वे अपना मनचाहा करवा लेते हैं। सामनेवाला उनका मनचाहा कर तो देगा लेकिन उसके भीतर आनन्द और शांति नहीं होगी। महापुरुष का तेज ऐसा है कि वे अपने मनचाहे कीर्तन, ध्यान, भजन, साधना, सदाचार आदि में लोगों को ढाल देते हैं, ईश्वर के अभिमुख बना देते हैं। महापुरुष के संकेत के अनुसार जो ढलते हैं उनको भीतर आनन्द, शांति, सुख और कुछ निराला अलौकिक अनुभव होता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बहते संसार के सुख-दुःख, आकर्षण-विकर्षण में चट्टान की नाईं सम, निर्लिप्त रहना ही बहादुरी है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तुम अपने को दीन-हीन कभी मत समझो। तुम आत्मस्वरूप से संसार की सबसे बड़ी सत्ता हो। तुम्हारे पैरों तले सूर्य और चन्द्र सहित हजारों पृथ्वियाँ दबी हुई हैं। तुम्हें अपने वास्तविक स्वरूप में जागने मात्र की देर है। अपने जीवन को संयम-नियम और विवेक वैराग्य से भरकर आत्माभिमुख बनाओ। अपने जीवन में ज़रा ध्यान की झलक लेकर तो देखो! आत्मदेव परमात्मा की ज़री झाँकी करके तो देखो! बस, फिर तो तुम अखण्ड ब्रह्माण्ड के नायक हो ही। किसने तुम्हें दीन-हीन बनाए रखा है? किसने तुम्हें अज्ञानी और मूढ़ बनाए रखा है? मान्यताओं ने ही ना…? तो छोड़ दो उन दुःखद मान्यताओं को। जाग जाओ अपने स्वरूप में। फिर देखो, सारा विश्व तुम्हारी सत्ता के आगे झुकने को बाध्य होता है कि नहीं? तुमको सिर्फ जगना है…. बस। इतना ही काफी है। तुम्हारे तीव्र पुरूषार्थ और सदगुरू के कृपा-प्रसाद से यह कार्य सिद्ध हो जाता है। कुण्डलिनीप्रारम्भ में क्रियाएँ करके अन्नमय कोष को शुद्ध करती है। तुम्हारे शरीर को आवश्यक हों ऐसे आसन, प्राणायाम, मुद्राएँ आदि अपने आप होने लगते हैं। अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष की यात्रा करते हुए कुण्डलिनी जब आनन्दमय कोष में पहुँचती है तब असीम आनन्द की अनुभूति होने लगती है। तमाम शक्तियाँ, सिद्धियाँ, सामर्थ्य साधक में प्रकट होने लगता है। कुण्डलिनी जगते ही बुरी आदतें और व्यसन दूर होने लगते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ