भगवन्नाम अनंत माधुर्य, ऐश्वर्य और सुख की खान है। नाम और नामी में अभिन्नता होती है। नाम-जप करने से जापक में नामी के स्वभाव का प्रत्यारोपण होने लगता है और जापक के दुर्गुण, दोष, दुराचार मिटकर दैवी संपत्ति के गुणों का आधान (स्थापना) और नामी के लिए उत्कट प्रेम-लालसा का विकास होता है। भगवन्नाम, इष्टदेव के नाम व गुरुनाम के जप और कीर्तन से अनुपम पुण्य प्राप्त होता है। तुकारामजी कहते हैं- "नाम लेने से कण्ठ आर्द्र और शीतल होता है। इन्द्रियाँ अपना व्यापार भूल जाती हैं। यह मधुर सुंदर नाम अमृत को भी मात करता है। इसने मेरे चित्त पर अधिकार कर लिया है। प्रेमरस से प्रसन्नता और पुष्टि मिलती है। भगवन्नाम ऐसा है कि इससे क्षणमात्र में त्रिविध ताप नष्ट हो जाते हैं। हरि-कीर्तन में प्रेम-ही-प्रेम भरा है। इससे दुष्ट बुद्धि सब नष्ट हो जाती हैं और हरि-कीर्तन में समाधि लग जाती है।" ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जैसे बड़े होते-होते बचपन के खेल कूद छोड़ देते हो, वैसे ही संसार के खेलकूद छोड़कर आत्मानन्द का उपभोग करना चाहिये। जैसे अन्न व जल का सेवन करते हो, वैसे ही आत्म–चिन्तन का निरन्तर सेवन करना चाहिये। भोजन ठीक से होता है तो तृप्ति की डकार आती है वैसे ही यथार्थ आत्मचिन्तन होते ही आत्मानुभव की डकार आयेगी, आत्मानन्द में मस्त होंगे। आत्मज्ञान के सिवा शांति का कोई उपाय नहीं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मूर्ख लोगों की मान्यताओं और अज्ञानी जनों के अभिप्रायों पर कब तक जीवन व्यर्थ बिताओगे ? जरा सोचोः यहाँ क्यों आये हो और क्या कर रहे हो ? हम बाहर का बहुत कुछ जानते हैं लेकिन संसार-सागर से तरना नहीं जानेंगे तो सब व्यर्थ हो जायेगा। सत्य को जीवन में प्रकाशित कर लेना, स्वरूप का साक्षात्कार कर लेना यह कोई कठिन कार्य नहीं है। आत्मा तुमसे दूर नहीं है। तुम्हारा शरीर तुमसे जितना नजदीक है, तुम्हारा मन तुमसे जितना नजदीक है, तुम्हारी बुद्धि तुमसे जितनी नजदीक है उससे भी ज्यादा तुम्हारी आत्मा तुमसे नजदीक है। अरे, ऐसा कहना भी उचित नहीं, क्योंकि तुम आत्मा ही हो। फिर दूर क्या ? नजदीक क्या ? आप सच्चिदानन्द हैं, निजानन्द हैं। आप आत्मा हैं, शरीर नहीं। आप कभी न तो जन्मते हैं न मरते हैं। शरीर किसी का भी हो वह नश्वर ही होगा। पति का हो या पत्नी का, गुरु का हो या भक्त का, शरीर तो नश्वर ही है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो भी कर्म करो उत्साह एवं तत्परता से करो, कुशलतापूर्वक करो - योगः कर्मसु कौशलम् । कोई काम छोटा नहीं है और कोई काम बड़ा नहीं है। परिणाम की चिंता किये बिना उत्साह, धैर्य और कुशलतापूर्वक कर्म करने वाला सफलता प्राप्त कर लेता है। अगर वह निष्फल भी हो जाय तो हताश-निराश नहीं होता बल्कि विफलता को खोजकर फेंक देता है और फिर तत्परता से अपनी उद्देश्यपूर्ति में लग जाता है। जप ध्यान और ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म सर्वोत्तम कर्म हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ एकाग्रता और अनासक्ति ये – दो हथियार जिसके पास आ जायें, वह अनपढ़ हो चाहे साक्षर हो, धनवान हो चाहे निर्धन हो, सुप्रसिद्ध हो चाहे कुप्रसिद्ध हो, वह ब्रह्म-परमात्मामें टिक सकता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बार-बार भगवन्नाम-जप करने से एक प्रकार का भगवदीय रस, भगवदीय आनंद और भगवदीय अमृत प्रकट होने लगता है। जप से उत्पन्न भगवदीय आभा आपके पाँचों शरीरों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय) को तो शुद्ध रखती ही है, साथ ही आपकी अंतरात्मा को भी तृप्त करती है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ कभी भी कोई भी कार्य आवेश में आकर न करो। विचार करना चाहिए कि इसका परिणाम क्या होगा? गुरुदेव अगर सुनें या जानें तो क्या होगा? विवेकरूपी चौकीदार जागता रहेगा तो बहुत सारी विपदाओं से, पतन के प्रसंगों से ऐसे ही बच जाओगे। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुकूलता और प्रतिकूलता ये सुख-दुःख के सर्जक हैं। अनुकूलता को हमने सुख माना और प्रतिकूलता को हमने दुःख माना। मन जब विषय-विकारों में लगेगा तब कभी अनुकूलता मिलेगी, कभी प्रतिकूलता मिलेगी। हमेशा प्रतिकूलता नहीं मिलेगी और चाहने पर भी सर्वत्र अनुकूलता नहीं मिलेगी। मन कभी सुख की तो कभी दुःख की थप्पड़ें खाते-खाते क्षीण होता जाएगा। मन का सामर्थ्य, एकाग्रता की क्षमता नष्ट होती जाएगी। इसलिए अनुकूलता या प्रतिकूलता का जो सुख-दुःख है उसको पकड़ो नहीं, उसको देखो। अनुकूलता से जो सुख मिला उसे मिला हुआ ही मानो। मिला हुआ मानोगे तो उसमें आसक्ति नहीं होगी क्योंकि जो मिली हुई चीज है वह अपनी नहीं है, परिस्थितियों की है। मिली हुई चीज सदा नहीं रहेगी लेकिन मन को देखने वाला सदा रहता है। मिली हुई घटना, मिली हुई वस्तु, मिला हुआ पदार्थ सदा नहीं रहता। लेकिन 'मिला-बिछुड़ा' जिससे महसूस होता है उस मन को देखने वाला सदा रहता है। 'मन को देखने वाला मैं कौन हूँ ?' उसकी अगर खोज करो तो अपने आपको पा लोगे.... मुक्ति का द्वार खुल जायेगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जिस बुद्धि से आपके चित्त में विश्रान्ति नहीं आयी, जिस बुद्धि से आपके भीतर का रस नहीं मिल पाया वह बुद्धि नहीं, विद्या नहीं, केवल सूचनाएँ हैं। बुद्धि तो राग द्वेष से अप्रभावित रहती है। सुख-दुःख से अप्रभावित रहती है, मान-अपमान से अप्रभावित रहती है। बुद्धिमान वह है जो आने वाले प्रसंगों को पचा ले, सुख-दुःख को पचा ले, निंदा-स्तुति को पचा ले, काम-क्रोध को पचा ले, अहंकार को पचा ले। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ शरीर की शुद्धि तो आपको कोई भी दे देगा परन्तु आपकी शुद्धि का क्या? एक कर्म होता है अपने लिए, दूसरा होता है शरीर के लिए । शरीर के लिए तो ज़िन्दगी भर करते हैं, अपने लिए कब करोगे? और शरीर तो यहीं धरा रह जायेगा यह बिल्कुल पक्की बात है । अपने लिए कुछ नहीं किया तो शरीर के लिए कर-कर के क्या निष्कर्ष निकाला? कार के लिए तो बहुत कुछ किया मगर इन्जिन के लिए नहीं किया तो कार कितने दिन चलेगी? शरीर के लिए सब किया मगर अपने लिये कुछ नहीं किया तो तुम तो आखिर अशुभ योनियों में घसीटे जाओगे । प्रेत योनि में, वृक्ष के शरीर में, कोई अप्सरा के शरीर में जाओगे, वहाँ देवता लोग तुम्हे नोचेंगे। कहीं भी जाओ, सब एक-दूसरे को नोचते ही हैं। स्वतन्त्र आत्म- साक्षात्कार जब तक नहीं होता तब तक धोखा ही धोखा है । अतः तुम्हारा कीमती जीवन, कीमती समय, कीमती से कीमती आत्मा-परमात्मा को जानने के लिए लगाओ और सदा के लिए सुखी हो जाओ…. तनाव रहित, भयरहित, शोक रहित, जन्म रहित, मृत्यु रहित अमर आत्मपद पाओ । ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ईश्वर का स्मरण करते-करते काम करो। इसकी अपेक्षा काम ईश्वर का समझकर तत्परता से करो यह श्रेष्ठ है।जिस समय जो शास्त्र अनुमोदित काम करते हो उसमें तत्पर हो जाओ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जिसके जीवन में समय का मूल्य नहीं, कोई उच्च लक्ष्य नहीं, उसका जीवन बिना स्टियरींग की गाड़ी जैसा होता है। साधक अपने एक-एक श्वास की कीमत समझता है, अपनी हर चेष्टा का यथोचित मूल्यांकन करता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ