धीर परिणाम में मंगल पर, अपने स्वरूप पर दृष्टि रखता है, कष्ट-तपश्चर्या-श्रम पर नजर नहीं रखता। कर्तृत्व पर नजर नहीं, कर्ता के अधिष्ठान पर नजर रखता है। मन्दबुद्धि तत्काल लाभ को देखता है, तुच्छ क्षणिक लाभ से प्रभावित होकर परम लाभ खो बैठता है। मन्द की वृत्ति दूसरे की चर्चा में, भूत-भैरव, मकान-दुकान, बहू-बेटी-बेटा, नाती-पोती, मतलब कि बहिरंग चर्चा में उलझी जाती रहती है। फलतः मन्द अपना भाव भी मन्द कर देता है। धीर परम लाभ पर दृष्टि रखते हुए तुच्छ लाभों की लापरवाही कर देता है। सत्य प्रादेशिक या तात्कालिक नहीं होता, अनादि अनन्त होता है। सत्य पाने के लिए संयम और सजगता रूपी तप किया जाता है, व्यक्तित्व का होम किया जाता है। व्यक्तित्व बाधित होना आवश्यक होता है। जो अपने छोटे-से-छोटे सुख का, ऐन्द्रिक तृप्ति का त्याग न कर सके वह मन्द है। खाने-पीने-पहनने-रहने की चिन्ता उन्हीं को सताती है जो मन्द हैं। अतः साधक मन्द व्यक्तियों के साथ अपनी तुलना न करे। धीयं रति इति धीरः । जो बुद्धि को अपने पास रखता है, मनोवृत्ति के प्रवाह में बह नहीं जाता वह धीर है। शाबाश धीर ! शाबाश...!! ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ महापुरुषों की सीख है कि "आप सबसे आत्मवत् व्यवहार करें क्योंकि सुखी जीवन के लिए विशुद्ध निःस्वार्थ प्रेम ही असली खुराक है। संसार इसी की भूख से मर रहा है, अतः प्रेम का वितरण करो। अपने हृदय के आत्मिक प्रेम को हृदय में ही मत छिपा रखो। उदारता के साथ उसे बाँटो, जगत का बहुत-सा दुःख दूर हो जायेगा।" ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ दुःख मनुष्य का स्वभाव नहीं है इसलिए वह दुःख नहीं चाहता है। सुख मनुष्य का स्वभाव है इसलिए वह सुख चाहता है। जैसे, मुँह में दाँत रहना स्वाभाविक है तो कभी ऐसा नहीं होता कि दाँत निकालकर फेंक दूँ। जब तक दाँत तन्दुरुस्त रहते हैं तब तक उन्हें फेंकने की इच्छा नहीं होती। भोजन करते वक्त कुछ अन्न का कण, सब्जी का तिनका दाँतों में फँस जाता है तो लूली (जिह्वा) बार-बार वहाँ लटका करती है। जब तक वह कचरा निकला नहीं जाता तब तक चैन नहीं लेती। क्योंकि दाँतों में वह कचरा रहना स्वाभाविक नहीं है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ निन्दा और अपमान की परवाह न करें। निर्भय रहें। प्रसन्न रहें। अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहें। जो डरता है उसी को दुनिया डराती हैं। यदि आपमें डर नहीं है, आप निर्भय हैं तो काल भी आपका बाल बाँका नहीं कर सकता। जो आत्मदेव में श्रद्धा रखकर निर्भयता से व्यवहार करता है वह सफलतापूर्वक आगे बढ़ता जाता है। उसे कोई रोक नहीं सकता। वह अपनी मंजिल तय करके ही रहता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जैसे दूसरों की कमी जल्दी दिखती है और अपना सदगुण जल्दी दिखता है ऐसे ही अपनी कमी दिखे और दूसरों के सदगुण दिखें। अपनी कमी के प्रति निराश होकर कमजोर न बनो। कमी निकालने के लिए प्रयत्नशील रहो तो उत्थान होगा। कमी और विशेषता होती है शरीर में, मन में, अंतःकरण में। इनसे अगर सम्बन्ध-विच्छेदकरने की कला आ गयी, सम्बन्ध मान लिया है वह सम्बन्ध न माने तो बेड़ा पार हो जाए ! ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ घोर प्रवृत्ति के बीच भी ज्ञानी भीतर से राग-द्वेष से रहित अपनी सच्चिदानन्दघन ब्राह्मी स्थिति में दृढ़ होते हैं। युद्ध के मैदान में श्री कृष्ण की बँसी मस्ती से बज सकती है। ऐसी अवस्था प्राप्त हो सकती है सत्संग से। सत्संग माने सत् असत् विवेक से जो सत् वस्तु आत्मा का बोध करा दे। कभी सत्संग का त्याग नहीं करना चाहिए। आदर से सत्संग सुनना चाहिए। सत्यस्वरूप परमात्मा की शाश्वतता और जगत की नश्वरता का बार-बार विचार करना चाहिए। राग-द्वेष के संस्कारों को चित्त से उखाड़ते रहना चाहिए। यही पुरुषार्थ करना है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मनुष्य यदि अपनी विवेक शक्ति का आदर न करे, उसका सदुपयोग न करके भोगों के सुख को ही अपना जीवन मान ले तो वह पशु-पक्षियों से भी गया-बीता है। क्योंकि पशु-पक्षी आदि तो कर्मफल-भोग के द्वारा पूर्वकृत कर्मों का क्षय करके उन्नति की ओर बढ़ रहे हैं किन्तु विवेक का आदर न करने वाला मनुष्य तो उलटा अपने को नये कर्मों से जकड़ रहा है, अपने चित्त को और भी अशुद्ध बना रहा है। अतः साधक को चाहिए कि प्राप्त विवेक का आदर करके उसके द्वारा इस बात को समझे कि यह मनुष्य शरीर उसे किसलिए मिला है, इसका क्या उपयोग है। विचार करने पर मालूम होगा कि यह साधन-धाम है। इसमें प्राणी चित्त शुद्ध करके अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। मनुष्य जब समुद्र की ओर देखता है तब उसे समुद्र ही समुद्र दिखता है और पीछे की ओर देखता है तो स्थल ही स्थल नजर आता है। इसी प्रकार संसार की ओर देखने से संसार ही संसार दिखेगा और संसार की ओर पीठ कर लेने पर प्रभु ही प्रभु दिखलाई देंगे। कर्म सीमित होता है इसलिए उसका फल भी कर्म के अनुरूप सीमित ही मिलता है। प्रभु अनन्त हैं, उनकी कृपा भी अनन्त है अतः उनकी कृपा से जो कुछ मिलता है वह भी अनन्त मिलता है। प्रभु की प्राप्ति का साधन भी प्रभु की कृपा से ही मिलता है ऐसा मानकर साधक को अपने साधन में सदभाव रखना चाहिए। साधन में अटल विश्वासपूर्वक सदभाव होने से ही साध्य की प्राप्ति होती है। जो साधक किसी प्रकार के अभाव में दीन नहीं होता अर्थात् उसकी चाह नहीं करता एवं प्राप्त वस्तु या बल का अभिमान नहीं करता अर्थात् उसे अपना नहीं मानता, सब कुछ अपने प्रभु को मानता है, वह सच्चा भक्त है। चाहरहित होने से ही दीनता मिटती है। जहाँ किसी प्रकार के सुख का उपभोग होता है, वहीं मनुष्य चाह की पूर्ति के सुख में आबद्ध हो जाता है और पुनः नयी चाह उत्पन्न हो जाती है। उसकी दीनता का अन्त नहीं होता। दीनता मिटाने के लिए चाह को मिटाओ। कामना की निवृत्ति से होनेवाली स्थिति बड़ी उच्च कोटि की है। उस स्थिति में निर्विकल्पता आ जाती है, बुद्धि सम हो जाती है, जितेन्द्रियता प्राप्त हो जाती है। उसके प्राप्त होने पर मनुष्य स्वयं’कल्पतरू’ हो जाता है। जिसको लोग कल्पतरू कहते हैं उससे तो हित और अहित दोनों ही होते हैं। पर यह कल्पतरू तो ऐसा है, जिससे कभी किसी का भी अहित नहीं होता। इससे मनुष्य को योग, बोध और प्रेम प्राप्त होता है। किसी भी वस्तु को अपना न मानना त्याग है। त्याग से वीतरागता उत्पन्न होती है। राग की निवृत्ति होने पर सब दोष मिट जाते हैं। कठिनाई या अभाव को हर्षपूर्वक सहन करना तप है। तप से सामर्थ्य मिलता है। इस सामर्थ्य को सेवा में लगा देना चाहिए। अहंता और ममता का नाश विचार से होता है। सत्य के बोध से समस्त दुःख मिट जाते हैं। सत्य के प्रेम से अनन्त रस, परम आनन्द प्राप्त होता है। अपने को शरीर न मानने से निर्वासना आती है और सदा रहने वाली चिर शांति मिलती है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ