मानव धर्म क्या है?


                        ‘मानवशब्द का अर्थ है मनु की संतान। मनुशब्द का मूल है मनन। मननात् मनुः। मनु की पत्नी है शतरूपा। मानव जीवन में ज्ञान की पूर्णता एवं श्रद्धा अनेक रूपों में प्रगट होती है। कहीं आँखों से प्रगट होती है, कहीं हाथ जोड़ने से प्रगट होती है, कहीं सिर झुकाने से, कहीं बोलने से और कहीं आदर देने से प्रगट होती है। श्रद्धा ज्ञान की सहचारिणी है। कभी अकेला ज्ञान शुष्क हो जाता है तो श्रद्धा ज्ञान को मधुरता प्रदान करती है, सदभाव प्रदान करती है, भक्ति प्रदान करती है। जीवन में न शुष्क ज्ञान चाहिए और न ही अज्ञानपूर्ण श्रद्धा। श्रद्धामें चाहिए तत्त्वज्ञान एवं संयम तथा ज्ञान में चाहिए श्रद्धा। मनु एवं शतरूपा के संयोग से बनता है मानव। मानव के जीवन में चाहिए ज्ञान एवं श्रद्धा का समन्वय। केवल श्रद्धा की प्रधानता से वह अंधा न बने और केवल ज्ञान की प्रधानता से वह उद्दण्ड और उच्छृंखल न बने इस हेतु दोनों का जीवन में होना अनिवार्य है। शास्त्रों में आया है कि सभी प्राणियों में मानव श्रेष्ठ है किन्तु केवल इतने से ही आप मान लो कि हाँ, हम वास्तव में मानव हैं एवं इतर (अन्य) प्राणियों से श्रेष्ठ हैं’ – यह पर्याप्त नहीं है। इस श्रेष्ठता को सिद्ध करने की उत्तरदायित्व भी मानव के ऊपर है। केवल दस्तावेज के बल पर कोई मनुष्य श्रेष्ठ नहीं हो जाता। उसे तो अपनी जीवन-शैली एवं रहन-सहन से साबित करना पड़ता हैः मैं मानव हूँ, मानव कहलाने के लिए ये गुण मेरे जीवन में हैं और मानवता से पतित करने वाले इन-इन दुर्गुणों से मैं दूर रहता हूँ।यहाँ हम मानवता में जो दोष प्रविष्ट हो जाते हैं, उनकी चर्चा करेंगे। मनुस्मृतिकहती है कि मानवजीवन में दस दोष का पाप नहीं होने चाहिए चार वाणी के पाप, तीन मान के पाप एवं तीन शरीर के पाप। अब क्रमानुसार देखें। वाणी के चार पापः परुष भाषण अर्थात् कठोर वाणीःकभी-भी कड़वी बात नहीं बोलनी चाहिए। किसी भी बात को मृदुता से, मधुरता से एवं अपने हृदय का प्रेम उसमें मिलाकर फिर कहना चाहिए। कठोर वाणी का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। गुरु ने शिष्य को किसी घर के मालिक की तलाश करने के लिए भेजा। शिष्य जरा ऐसा ही था अधूरे लक्षणवाला। उसने घर की महिला से पूछाः ए माई ! तेरा आदमी कहाँ है ?” महिला क्रोधित हो गयी और उसने चेले को भगा दिया। 
                 फिर गुरुजी स्वयं गये एवं बोलेः माता जी ! आपके श्रीमान् पतिदेव कहाँ है ?” उस महिला ने आदर के साथ उन्हें बिठाया एवं कहाः पतिदेव अभी घर आयेंगे।दोनों ने एक ही बात पूछी किन्तु पूछने का ढंग अलग था। इस प्रकार कठोर बोलना यह वाणी का एक पाप है। वाणी का यह दोष मानवता से पतित करवाता है। अनृत अर्थात् अपनी जानकारी से विपरीत बोलनाःहम जो जानते हैं वह न बोलें, मौन रहें तो चल सकता है किन्तु जो बोलें वह सत्य ही होना चाहिए, अपने ज्ञान के अनुसार ही होना चाहिए। अपने ज्ञान का कभी अनादर न करें, तिरस्कार न करें। जब हम किसी के सामने झूठ बोलते हैं तब उसे नहीं ठगते, वरन् अपने ज्ञान को ही ठगते हैं, अपने ज्ञान का ही अपमान करते हैं। इससे ज्ञान रूठ जाता है, नाराज हो जाता है। ज्ञान कहता है कि यह तो मेरे पर झूठ का परदा ढाँक देता है, मुझे दबा देता है तो इसके पास क्यों रहूँ ?’ ज्ञान दब जाता है। इस प्रकार असत्य बोलना यह वाणी का पाप है। पैशुन्य अर्थात् चुगली करनाःइधर की बात उधर और उधर की बात इधर करना। क्या आप किसी के दूत हैं कि इस प्रकार संदेशवाहक का कार्य करते हैं ? चुगली करना आसुरी संपत्ति के अंतर्गत आता है। इससे कलह पैदा होता है, दुर्भावना जन्म लेती है। चुगली करना यह वाणी का तीसरा पाप है। असम्बद्ध प्रलाप अर्थात् असंगत भाषणःप्रसंग के विपरीत बात करना। यदि शादी-विवाह की बात चल रही हो तो वहाँ मृत्यु की बात नहीं करनी चाहिए। यदि मृत्यु के प्रसंग की चर्चा चल रही हो तो वहाँ शादी-विवाह की बात नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार मानव की वाणी में कठोरता, असत्यता, चुगली एवं प्रसंग के विरुद्ध वाणी ये चार दोष नहीं होने चाहिए। इन चार दोषों से युक्त वचन बोलने से बोलनेवाले को पाप लगता है।