अद्वैतनिष्ठा – गीता का रहस्य।
                    गीता में आता है ‘वासुदेव सर्वम’ अर्थात सब वासुदेव भगवान ही है! यह कैसे है? यही बापूजी समझा रहे है। एक बार रामकृष्ण परमहंस एक वटवृक्ष के नीचे सच्चिदानंद परमात्मा की अद्वैतनिष्ठा की मस्ती में बैठे थे। इतने में एक मुसलमान वहाँ आया। सफेद दाढ़ी…. हाथ में मिट्टी की एक हाण्डी… और उसमें रँधे हुए चावल। थोड़ी ही दूर पर बैठे हुए कुछ मुसलमानों को चावल खिलाकर वह बुजुर्ग रामकृष्णदेव के पास भी आया और चावल खिलाकर चला गया। रामकृष्ण तो अपने सर्वव्यापक आत्म-चैतन्य की मस्ती में मस्त थे। वृत्ति जब ब्रह्माकार बनती है, सूक्ष्मता की चरम सीमा प्राप्त होती है तब ‘मैं-तू’… मेरा-तेरा… हिन्दू-मुस्लिम… सिक्ख-ईसाई…. आदि सब भेद गायब हो जाते हैं। सबमें मैं ही आत्म-चैतन्य के स्वरूप में रमण कर रहा हूँ ’ इस वास्तविकता का रहस्य खुलने लगता है। सम्पूर्ण जगत ब्रह्ममय हो जाता है।
               ऐसी दिव्य क्षणों में रममाण रामकृष्णदेव ने मुसलमान की हाण्डी के चावल खा तो लिये किन्तु जब वृत्ति स्थूल बनी, चित्त में भेदबुद्धि के पुराने संस्कार जागृत हुए तब दिल में खटका लगाः ‘हाय हाय ! मैंने यवन के हाथ का भोजन खाया ? अच्छा नहीं किया।’ रामकृष्ण उठकर भवानी काली के मंदिर में आये और माँ के चरणों में पश्चाताप के आँसू बहाते हुए प्रार्थना करने लगेः “माँ ! मुझे क्षमा कर। आज मैनें अभक्ष्य भोजन खा लिया। मुझसे अपराध हो गया। मुझे क्षमा कर दो।” करूणामयी जगदम्बा प्रकट होकर बोलीं- “बेटा ! तेरी भेदबुद्धि तुझे भटका रही है। एक सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा ही सर्व के रूप में रमण कर रहे हैं। जीव भी वे ही हैं, जगत भी वे ही हैं, मैं भी वहीं हूँ और तू भी वही है। वे सफेद दाढ़ी वाले मुसलमान तो मोहम्मद पैगंबर थे। वे भी वही हैं। उनमें और तुझमें कोई भेद नहीं। एक ही चैतन्यदेव सच्चिदानंद परमात्मा विभिन्न रूपों में विलास कर रहे हैं।” आध्यात्मिक उत्थान चाहने वाले साधक के अन्तःकरण में अद्वैतभाव की अखण्डधारा रहनी चाहिए। अंतःकरण की अशुद्ध अवस्था में ही द्वैत दिखता है। अंतःकरण की उच्च दशा में अद्वैतभाव ही रहता है।