काशी में एक ब्रह्मचारी ब्राह्मण युवक पढ़ाई पूर्ण करके संसार रचना चाहता था। धन था नहीं। उसने गायत्री मंत्र का अनुष्ठान किया। फिर दूसरा किया… तीसरा किया। दिन-रात वह लगा रहता था। छः महीने में एक अनुष्ठान पूरा होता था। एक अनुष्ठान में चौबीस लाख मंत्रजप। बारह साल में ऐसे तेईस अनुष्ठान उसने किये लेकिन कुछ हुआ नहीं, धन मिला नहीं। उसने चौबीस साल की उम्र तक विद्याभ्यास किया था। बारह साल अनुष्ठान करने में बीत गये। छत्तीस साल की उम्र हो गई। सोचा किः ‘अब क्या शादी करें ? धन यदि मिल भी गया, शादी भी कर ली तो दो-पाँच साल में बच्चा होगा। हम जब 40-50 साल के होंगे तब बच्चा होगा एक साल का। हम जब बूढ़े होंगे, मृत्यु के करीब होंगे तब बच्चे का क्या होगा? इस शादी से कोई फायदा नहीं।’ उस सज्जन ने शादी का विचार छोड़कर संन्यास ले लिया। संन्यास की दीक्षा लेकर जब तर्पण करने लगा और गायत्री मंत्र के जप का प्रारंभ किया तो प्रकाश…. प्रकाश…. दिखने लगा। उस प्रकाशपुंज में गायत्री माँ प्रकट हुईं और बोलीं-”वरं ब्रूयात। वर माँग।” उसने कहाः “माता जी! वर माँगने के लिए तो तेईस अनुष्ठान किये।‘धनवान् भव… पुत्रवान् भव…. ऐश्वर्यवान् भव…‘ऐसा वरदान माँगने के लिए तो सब परिश्रम किया था। अब संन्यासी हो गया। वरदान की कोई जरूरत नहीं रही। इच्छाओं का ही त्याग कर दिया। अब आप आयीं तो क्या लाभ ?माताजी! आप पहले क्यों प्रकट नहीं हुई ?” ये सज्जन थे श्री विद्यारण्यस्वामी, जिन्होंने संस्कृत में ‘पंचदशी’ नामक ग्रंथ की रचना की है। उसी ‘पंचदशी’ की गुजराती भाषा में टीका बिलखावाले श्री नथुराम शर्मा ने की है। श्री विद्यारण्यस्वामी ने पूछाः “माँ! आपने क्यों इतनी देर की?” माँ बोलीः “तुम्हारे अगले जन्मों के चौबीस महापातक थे। तुम्हारे एक-एक अनुष्ठान से वह एक-एक महापातक कटता था। इसलिए ऐहिक जगत में अनुष्ठान का जो प्रभाव दिखना चाहिए वह नहीं दिखा। मैं यदि प्रकट भी हो जाती तो तुम मुझे नहीं देख सकते, नहीं झेल पाते। एक-एक करके तेईस अनुष्ठान से तेईस महापातक कट गये। संन्यास की दीक्षा ले ली तो चौबीसवाँ महापातक दीक्षा लेते ही कट गया और अब मंत्र को प्रथम बार जपते ही मैं आ गई।”