आत्मा परमात्मा विषयक ज्ञान प्राप्त करके नित्य आत्मा की भावना करें। अपने शाश्वत स्वरूप की भावना करें। अपने अन्तर्यामी परमात्मा में आनन्द पायें। अपने उस अखण्ड एकरस में, उस आनन्दकन्द प्रभु में, उस अद्वैत-सत्ता में अपनी चित्तवृत्ति को स्थापित करें। रूप, अवलोक, मनस्कार तथा दृश्य, दृष्टा, दर्शन ये चित्त के फुरने से होते हैं। विश्व, तैजस, प्राज्ञ, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये सब जिससे प्रकाशित होते हैं उस सबसे परे और सबका अधिष्ठान जो परमात्मा है उस परमात्मा में जब प्रीति होती है, तब जीव निर्वासनिक पद को प्राप्त होता है। निर्वासनिक होते ही वह ईश्वरत्व में प्रतिष्ठित होता है। फिर बाहर जो भी चेष्टा करे लेकिन भीतर से शिला की नाईं सदा शान्त है। वशिष्ठजी कहते हैं- "हे राम जी ! ऐसे ज्ञानवान पुरूष जिस पद में प्रतिष्ठित होते हैं उसी में तुम भी प्रतिष्ठित हो जाओ।" ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ केवल श्रद्धा की, भजन न किया तो कुछ भी नहीं होगा। श्रद्धा के साथ-साथ भजन भी अवश्य करो। मान लो, श्रद्धा तो दान करने की है, परंतु करते नहीं हो तो उससे क्या होगा? इसलिए काम तभी चलेगा जब श्रद्धा भी हो और भजन भी। भगवान के भजन से चार बातों की प्राप्ति होती हैः - भगवान के ऐश्वर्य का अनुभव। - तात्कालिक अर्थात् दृष्ट दुःख का अभाव। - रजोगुण-तमोगुण का अभाव। - आनन्द की प्राप्ति अर्थात् जन्म-मरण का अभाव। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ गलत ढंग से चित्त का निर्माण हो जाता है तो वह बन्धन व दुःख का कारण बन जायगा। जैसे, चित्त का निर्माण हो गया कि मैं अमुक जाति का हूँ, यह मेरा नाम है, मैं स्त्री हूँ या पुरूष हूँ। इस प्रकार के चित्त का निर्माण हो गया तो उसके लिए आदर के दो शब्द जीवन बन जाते हैं और अनादर के दो शब्द मौत बन जाते हैं। झूठे संस्कारों से चित्त का निर्माण हो गया। वे भी दिन थे कि जब बूँद भी दरिया होकर दिखती थी और हमें डुबा ले जाती थी। जरा सा अपमान भी दरिया होकर दिखता था। जरा सा हवा का झोंका भी आँधी की नाईं दिखता था। लेकिन जब सत्संग और गुरूदेव की कृपा से, आत्मवेत्ता महापुरूष के उपदेश की कृपा से बड़े-बड़े दरिये भी कतरों की नाईं दिखते हैं। क्योंकि जो कुछ नाम-रूप हैं, सुख-दुःख हैं, अनुकूलता-प्रतिकूलता हैं वे सब माया में खिलवाड़ मात्र हैं। मायामात्रं इदं द्वैतम्। यह सारा प्रपंच जो दिख रहा है वह सब माया मात्र है। देखिये सुनिये गुनिये मन माँहि। मोहमूल परमारथ नाँही।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मंगलमय दृष्टि रखें अपनी दृष्टि को शुभ बनायें । कहीं भी बुराई न देखें । सर्वत्र मंगलमय दृष्टि रखे बिना मन में शांति नहीं रहेगी । जगत आपके लिए कल्याणकारी ही है । सुख-दुःख के सभी प्रसंग आपकी गढ़ाई करने के लिए हैं । सभी शुभ और पवित्र हैं । संसार की कोई बुराई आपके लिए नहीं है । सृष्टि को मंगलमय दृष्टि से देखेंगे तो आपकी जय होगी । दृष्टिं ब्रह्ममयीं कृत्वा पश्यमेवमिदं जगत । ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तुम जब सत्य के रास्ते पर चल पड़े हो तो व्यावहारिक कार्यों की चिन्ता मत करो कि वे पूरे होते हैं कि नहीं। समझो, कुछ कार्य पूरे न भी हुए तो एक दिन तो सब छोड़कर ही जाना है। यह अधूरा तो अधूरा है ही, लेकिन जिसे संसारी लोग पूरा समझते हैं, वह भी अधूरा ही है। पूर्ण तो एक परमात्मा है। उसे जाने बिना सब जान लिया तो भी व्यर्थ है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ कोई आपका अपमान या निन्दा करे तो परवाह मत करो। ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम्हारा देहाध्यास तोड़ने के लिए उसने ऐसा करने के लिए प्रेरित किया है। अपमान से खिन्न मत बनो, बल्कि उस अवसर को साधना बना लो। अपमान या निन्दा करने वाले आपका जितना हित करते हैं, उतना प्रशंसक नहीं करते – यह सदैव याद रखो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो अपने आप में तृप्त है, अपने आप में आनन्दित है, अपने आपमें खुश है वह स्थितप्रज्ञ है। तस्य तुलना केन जायते ? उसकी तुलना और किससे करें ? वह ऐसा महान हो जाता है। ऐसे महापुरूष का तो देवता लोग भी दर्शन करके अपना भाग्य बना लेते हैं। तैंतीस करोड़ देवता भी ऐसे महापुरूष का आदर करते हैं तो औरों की क्या बात है ? ईश्वर में सुखबुद्धि होनी चाहिए। संसार में सुख लेने की जो हमारी आदत है वह हमें बुरी तरह दुःख में डाल देती है। वह आदत पुरानी है, कई जन्मों की है। इसलिए अभ्यास करना पड़ता है। साधन-भजन इसीलिए करने पड़ते हैं कि गन्दी आदतें पड़ गई हैं। नहीं तो ईश्वर दूर थोड़े ही हैं कि उसको पाने के लिए अभ्यास की जरूरत पड़े ! गन्दी आदतें मिटाने के लिये साधन-भजन-ध्यान करना पड़ता है। बाहर सुख लेने की आदतें ही वे गन्दी आदतें हैं। कोई वाह वाह करे तो कान का सुख मिले, अच्छा खायें तो जीभ का सुख मिले, बढ़िया फिल्म देखें तो आँख का सुख मिले। बढ़िया शय्या हो, फूल बिछे हों, इत्र-तेल-फुलेल को छिड़काव हो, रानि साहिबा पैर दबा रहीं हैं, आहाहा.....! यह चमड़ी का सुख हुआ। ये सब भी आखिर कितने दिन ? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ वेदान्त का यह सिद्धांत है कि हम बद्ध नहीं हैं बल्कि नित्य मुक्त हैं। इतना ही नहीं, ‘बद्ध हैं’ यह सोचना भी अनिष्टकारी है, भ्रम है। ज्यों ही आपने सोचा कि ‘मैं बद्ध हूँ…, दुर्बल हूँ…, असहाय हूँ…’ त्यों ही अपना दुर्भाग्य शुरू हुआ समझो। आपने अपने पैरों में एक जंजीर और बाँध दी। अतः सदा मुक्त होने का विचार करो और मुक्ति का अनुभव करो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ यदि आप संसार के प्रलोभनों एवं धमकियों से न हिलें तो संसार को अवश्य हिला देंगे। इसमें जो सन्देह करता है वह मंदमति है, मूर्ख है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ पवित्रता और सच्चाई, विश्वास और भलाई से भरा हुआ मनुष्य उन्नति का ध्वज हाथ में लेकर जब आगे बढ़ता है तब किसकी मजाल कि बीच में खड़ा रहे ? यदि आपके दिल में पवित्रता, सच्चाई और विश्वास है तो आपकी दृष्टि लोहे के पर्दे को भी चीर सकेगी। आपके विचारों की ठोकर से पहाड़-के-पहाड़ भी चकनाचूर हो सकेंगे। ओ जगत के बादशाहों ! आगे से हट जाओ। यह दिल का बादशाह पधार रहा है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ओ सज़ा के भय से भयभीत होने वाले अपराधी ! न्यायधीश जब तेरी सजा का आदेश लिखने के लिये कलम लेकर तत्पर हो, उस समय यदि एक पल भर भी तू परमानन्द में डूब जाये तो न्यायधीश अपना निर्णय भूले बिना नहीं रह सकता। फिर उसकी कलम से वही लिखा जायेगा जो परमात्मा के साथ, तेरी नूतन स्थिति के अनुकूल होगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ