साधक को अपने दोष दिखने लग जाय तो समझो उसके दोष दूर हो रहे हैं। दोष अपने आप में होते तो नहीं दिखते। अपने से पृथक हैं इसलिए दिख रहे हैं। जो भी दोष तुम्हारे जीवन में हो गये हों उनको आप अपने से दूर देखो। ॐ की गदा से उनको कुचल डालो। आत्मशान्ति के प्रवाह में उन्हें डुबा दो। ॐ का गुंजन भीतर होता जाय अथवा ॐ शान्ति... ॐ शान्ति.... शान्ति..... शान्ति..... ऐसा मानसिक जप करते हुए आत्मा में विश्रान्ति पाते जाओ। ॐ के अर्थ का चिन्तन करो। इससे मनोराज, निद्रा, तन्द्रा, रासास्वाद आदि विघ्नों से बच जाओगे। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो भगवान को प्रीति पूर्वक भजते हैं, भगवन्नाम का जप करते-करते ध्यानस्थ होते हैं उनकी बुद्धि में भगवान योग मिला देते हैं जिससे वह भक्त भगवान को प्राप्त कर लेता है। ददामी बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते। भगवान जीव पर प्रसन्न हो जाते हैं कि वह मुझे खोजता है। दया करके उसको बुद्धियोग दे देते हैं, जीव भगवान को पहचान लेता है। विषयों की खोज मिटाने के लिए धर्म की आवश्यकता है। फिर, विषयों के सुख के आकर्षण को मिटाने के लिए भक्तिरस की, योगरस की आवश्यकता है। भक्ति करेंगे, योग करेंगे तो भीतर का रस आयगा। भक्ति और योग छूट गये तो मन इधर-उधर चला जायेगा। इसलिये भगवान कहते हैं- तेषां सततंयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।। 'जो सतत प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैं उनको मैं बुद्धियोग देता हूँ....' ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ चित्त का अज्ञान से निर्माण हुआ इसीलिए यह जगत सत्य भासता है और जरा-जरा सी बातें सुख-दुःख, आकर्षण, परेशानी देकर हमें नोंच रही हैं। ध्यान के द्वारा, सत्संग के द्वारा चित्त का ठीक रूप में निर्माण करना है, चित्त का परिमार्जन करना है। चित्त शान्त हो गया तो उसके संस्कार दब गये। जब उठे तो संस्कार फिर चालू हो गये। नींद में गये ते मैं यह हूँ.... मैं वह हूँ... ये सब संस्कार दब गये। नींद में कर्जे की चिन्ता नहीं रहती। लेकिन ये दुःख दूर नहीं हुए क्योंकि चित्त में जो संस्कार पड़े हैं वे गये नहीं। ये संस्कार दबे हैं। नींद से उठने पर सारा प्रपंच चालू हो जायगा, सारी चिन्ताएँ सिर पर सवार हो जायगी। ध्यान-भजन का लक्ष्य यह नहीं है कि तुम्हारा चित्त केवल स्थिर हो जाय, बस। ध्यान-भजन का लक्ष्य है चित्त स्थिर हो और साथ ही साथ चित्त का निर्माण हो। ब्रह्माकार वृत्ति से, ब्रह्माकार भाव से चित्त का निर्माण होगा तो तुम्हारे चित्त पर कल्पित संसार के सुख-दुःख की ठोकर नहीं लगेगी। मिथ्या संसार का आकर्षण नहीं होगा। तुम्हारे हृदय में संसार का आकर्षण नहीं होगा तो वासना नहीं उठेगा। वासना नहीं उठेगी तो दुबारा जन्म लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आपका मोक्ष हो जायगा, बेड़ा पार हो जायगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सारे दुःखों की जड़ है स्वार्थ और अहंकार। स्वार्थ और अहंकार छोड़ते गये तो दुःख अपने आप छूटते जाएँगे। कितने भी बड़े भारी दुःख हों, तुम त्याग और प्रसन्नता के पुजारी बनो। सारे दुःख रवाना हो जायेंगे। जगत की आसक्ति, परदोषदर्शन और भोग का पुजारी बनने से आदमी को सारे दुःख घेर लेते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ यदि हमारा मन ईर्ष्या-द्वेष से रहित बिल्कुल शुद्ध हो तो जगत की कोई वस्तु हमें नुक्सान नहीं पहुँचा सकती। आनंद और शांति से भरपूर ऐसे महात्माओं के पास क्रोध की मूर्ति जैसा मनुष्य भी पानी के समान तरल हो जाता है। ऐसे महात्माओं को देख कर जंगल के सिंह और भेड़ भी प्रेमविह्वल हो जाते हैं। सांप-बिच्छू भी अपना दुष्ट स्वभाव भूल जाते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ गुरु से ऊपर कोई भी तत्त्व नहीं है। गुरु तत्त्व सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त होता है। अतः गुरु को केवल देह में ही देखना, गुरु को देह मानना यह भूल है। मैं अपने गुरुदेव को अपने से कभी दूर नहीं मानता हूँ। आकाश से भी अधिक सूक्ष्म तत्त्व हैं वे। जब चाहूँ तब गोता मारकर मिल लेता हूँ। ऐसे सर्वव्यापक परम प्रेमास्पद गुरुतत्त्व को इसी जीवन में पा लेने का लक्ष्य बना रहे। साधक यह लक्ष्य न भूले। ध्यान-भजन में भी लक्ष्य भूल जाएगा तो निद्रा आयेगी, तंद्रा आयेगी। साधक चिंतन करता रहे कि मेरा लक्ष्य क्या है। ऐसा नहीं कि चुपचाप बैठा रहे। निद्रा, तंद्रा, रसास्वाद आदि विघ्न आ जायें तो उससे बचना है। ध्यान करते समय श्वास पर ध्यान रहे, दृष्टि नासाग्र या भ्रूमध्य में रहे अथवा अपने को साक्षी भाव से देखता रहे। इसमें भी एकाध मिनट देखेगा, फिर मनोराज हो जायेगा। तब लम्बा श्वास लेकर प्रणव का दीर्घ उच्चारण करेः 'ओ....म् ऽऽऽऽ....' फिर देखे कि मन क्या कर रहा है। मन कुछ न कुछ जरूर करेगा, क्योंकि पुरानी आदत है। तो फिर से गहरा श्वास लेकर होंठ बन्द करके 'ॐ' का गुंजन करे। इस गुंजन से शरीर में आंदोलन जगेंगे, रजो-तमोगुण थोड़ा क्षीण होगा। मन और प्राण का ताल बनेगा। आनन्द आने लगेगा। अच्छा लगेगा। भीतर से खुशी आयेगी। तुम्हारा मन भीतर से प्रसन्न है तो बाहर से भी प्रसन्नता बरसाने वाला वातावरण सहज में मिलेगा। भीतर तुम चिंतित हो तो बाहर से भी चिंता बढ़ाने वाली बात मिलेगी। भीतर से तुम जैसे होते हो, बाहर के जगत से वैसा ही प्रतिभाव तुम्हें आ मिलगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ प्रिय साधक ! बहुत प्रयास करने पर भी मन शान्त नहीं होता ? वृत्तियाँ स्थिर नहीं होती ? तुम्हारी साधना निष्फल सी भास रही है ? अहंकार विलीन होने के बदले ठोस होता चला जा रहा है ? कोई उपाय नहीं नजर नहीं आता ? देख, एक रहस्य समझ ले। यदि तू मन की वृत्तियाँ से डरकर उनको स्थिर करने का उपाय करेगा तो मन ज्यादा पुष्ट होता जायगा, अहंकार खड़ा ही रहेगा। क्योंकि वास्तव में वे तेरी ही सत्ता से जिन्दे हैं। इसलिए तू मन और मन की सत्त्व रज तमोगुणवाली वृत्तियों को मिथ्या जानकर उनकी तरफ से बेपरवाह हो जा। ऐसा करने पर मन अपने आप शान्त हो जायेगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अपनी महिमा से अपरिचित हो, इसलिए तुम किसी से भी प्रभावित हो जाते हो। कभी मसखरों से, कभी विद्वानों की वाणी से, कभी पहलवानों या नट-नटियों से, कभी भविष्यवक्ताओं से, कभी नेताओं से कभी जादू का खेल दिखाने वालों से, कभी स्त्रियों से, कभी पुरुषों से तो कभी थियेटरों में प्लास्टिक की पट्टियों (चलचित्रों) से प्रभावित हो जाते हो। यह इसलिए कि तुम्हें अपने आत्मस्वरूप की गरिमा का पता नहीं है। आत्मस्वरूप ऐसा है कि उसमें लाखों-लाखों विद्वान, पहलवान, जादूगर, बाजीगर, भविष्यवक्ता आदि आदि स्थित हैं। तुम्हारे अपने स्वरूप से बाहर कुछ भी नहीं है। तुम बाहर के किसी भी व्यक्ति से या परिस्थिति से प्रभावित हो रहे हो तो समझ लो तुम मालिक होते हुए भी गुलाम बने हुए हो। खिलाड़ी अपने ही खेल में उलझ रहा है। तमाशबीन ही तमाशाई बन रहा है। हाँ, प्रभावित होने का नाटक कर सकते हो, परन्तु यदि वस्तुतः प्रभावित हो रहे हो तो समझो, अज्ञान जारी है। तुम अपने आप में नहीं हो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ