श्रावण में शिव उपासना क्यों? शिव पुराण के अनुसार देवी सती का देह पिता दक्षके यज्ञ में भस्म होजाने के बाद जब भगवान शिव योग निद्रा में लीन हुये उस समय तारक सुर नाम के दैत्य से सभी देवता व मनुष्य पीड़ित थे । देवराज इन्द्र जब ब्रह्माजी के पास पहुँचे और इस समस्या का हल निकालने को बोले तब ब्रह्माजी ने बताया की तारक असुर को वरदान प्राप्त है की उसकी मृत्यु मात्र शिव पुत्र से ही होगी । परन्तु भगवान शिव इस समय योग निद्रा में लीन हैं और उनकी भार्या देवि सती भी नहीं हैं ऐसे में भगवान शिव के पुत्र होने का प्रश्न ही नहीं उठता । इस विषय में, मैं अनभिग्य हूँ नारायण ही इसका निवारण करेंगे । ब्रह्माजी के साथ देवराज इन्द्र भी वैकुण्ठधाम पधारे, भगवान श्रीहरि की स्तुती गाई तब भगवान श्रीहरि बोले- ब्रह्मदेव मृत्युलोक में राजा हिमालय की कन्या पार्वती हैं उन्हीं से शिवजी का विवाह होगा । भगवान विष्णु ने नारद जी के द्वारा संदेशा दिया और नारद जी राजा हिमालय के पास पहुँचे, राजा ने देवऋषि का राजोचित स्वागत किया और आगमन का कारण पूछा, तब नारदजी भगवान शिव के सौन्दर्य, उनकी कृपालुता का बखान करने लगे यह सुन कन्या पार्वती ने मन में ही शिव का वरण कर किया और शिवाराधना में लग गईं । एक समय नारद जी वन में पुष्प तोड़ते हुए पार्वती जी से मिले तब पार्वती जी ने नारद जी को अपना गुरू स्वीकारते हुए बोली- गुरुदेव शिव प्राप्ती का उपाय क्या है ? नारद जी ने देवी पार्वती को "ॐ नम: शिवाय" यह पंचाक्षरी मन्त्र दिया और बोले- बेटी तुम इस मन्त्र का उच्चारण करते हुये तप करो भगवान शिव अवश्य प्रशन्न होंगे । दीक्षा लेकर पार्वती सखियों के साथ तपोवन में जाकर कठोर तपस्या करने लगीं। उनके कठोर तप का वर्णन शिवपुराण में आया है- हित्वा हारं तथा चर्म मृगस्य परमं धृतम्। जगाम तपसे तत्र गंगावतरणं प्रति॥ माता-पिता की आज्ञा लेकर पार्वती ने सर्वप्रथम राजसी वस्त्रों का अलंकारों का परित्याग किया। उनके स्थान पर मूंज की मेखला धारण कर वल्कल वस्त्र पहन लिया। हार को गले से निकालकर मृग चर्म धारण किया और गंगावतरण नामक पावन क्षेत्र में सुंदर वेदी बनाकर वे तपस्या में बैठ गईं। ग्रीष्मे च परितो प्रज्वलन्तं दिवानिशम्। कृत्वा तस्थौ च तन्मध्ये सततं जपती मनुम् ॥1॥ एवं तपः प्रकुर्वाणा पंचाक्षरजपे रता। दध्यौ शिवं शिवा तत्र सर्वकालफलप्रदम्॥2॥ पार्वतीजी ग्रीष्मकाल में अपने चारों ओर अग्नि जलाकर बीच में बैठ गईं तथा ऊपर से सूर्य के प्रचंड ताप को सहन करती हुई तन को तपाती रहीं। वर्षाकाल में वे खुले आकाश के नीचे शिलाखंड पर बैठकर दिन-रात जलधारा से शरीर को सींचती रहीं। भयंकर शीत-ऋतु में जल के मध्य रात-दिन बैठकर उन्होंने कठोर तप किया। इस प्रकार निराहार रहकर पार्वती ने पंचाक्षर मंत्र का जप करते हुए सकल मनोरथ पूर्ण करनेवाले भगवान सदाशिव के ध्यान में मन को लगाया। एक हजार वर्ष तक मूल और फल का सौ वर्ष केवल शाक का आहार किया। कुछ दिन तक पानी का हवा का आहार किया, कुछ दिन इन्हें भी त्यागकर कठिन उपवास किया। पुनः वृक्ष से गिरी हुई बेल की सूखी पत्तियां खाकर तीन हजार वर्ष व्यतीत किया। जब पार्वती ने सूखी पत्तियां लेना बंद कर दिया तो उनका नाम अपर्णा पड़ गया। पार्वती को कठोर तपस्या की देखकर आकाशवाणी हुई कि हे देवि! तुम्हारे मनोरथ पूर्ण हो गए। अब तुम हठ छोड़कर घर जाओ, भगवान शंकर से शीघ्र मिलन होगा। तब सावन माह में शिव जी ने देवी पार्वती के तप से प्रसन्न हो दर्शन दिया। यही कारण है की सावन माह में तप, व्रत, अर्चन करने से भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं और मनोकामना पूर्ण करते हैं ।