साक्षात परब्रह्म परमात्मा। भ्रान्ति अर्थात् सत्य वस्तु को यथावत् न जानकर उसे गलत रूप से मानना या जानना। जैसे, हो तो रस्सी और दिखे सर्प। वास्तविक रूप से देखें तो वह सर्प होता नहीं है और काटता भी नहीं है। उसी प्रकार सत्यस्वरूप परमात्मा को न जानकर नाम रूपवाले जगत को सत्य मानना यह भ्रान्ति है। जगत में जो मोह अथवा भ्रान्ति भास रही है वह नाम-रूप की है। हम जो भी वस्तु देखते हैं वे सब मिट्टी के सिवाय दूसरा कुछ नहीं है। फिर भी घड़ा, पुस्तक, मनुष्य, पशु, मकान वगैरह नाम व्यवहार को चलाने के लिए देने पड़ते हैं। स्वरूप के सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है फिर भी भासित होने वाले जीवरूप हम, भासनेवाली वस्तुओं में व्यवहार के लिए अलग-अलग नाम-रूप देते हैं और उन्हें ही सत्य मान लेते हैं। उदाहरणार्थः एक कागज पर हम छलनी ढाँक दें तो प्रत्येक छिद्र में से कागज दिखता है फिर भी प्रत्येक छिद्रवाला भाग अपने को दूसरे छिद्रवाले भाग से अलग माने तो यह भ्रान्ति है। इसी प्रकार माया के आवरण से ढका हुआ जीव जब जन्मता है तब उसमें देह, कुटुम्ब एवं जगत के जैसे संस्कार पड़ते हैं वैसा वह अपने को मान लेता है। यह माया का आवरण हट जाये या अविद्या निकल जाये तो सच्चा आनन्द प्रकट होगा। सिंधी के प्रसिद्ध कवि सामी साहब कहते हैं- अविद्या भुलाऐ,विधो जीउ भरम में। नांगु डिसी नोढ़ीअ में,डंगु रे डहकाए।। अण हुन्दे दरियाह में,गोता नितु खाए। मुंह मढ़ीअ पाय सामी डिसे कीनकी।। अविद्या ने भूल-भुलैया करके जीव को भ्रम में डाल दिया है अतः यह जीव स्वयं को दुःखी बना रहा है। जहाँ सागर ही नहीं है वहाँ सागर में ही गोता खा रहा है। ‘सामी’ कहते हैं कि ‘ हे जीव ! तू अन्तर में झाँककर तो देख।’ एक बार एक राजमहल में पाँच वर्ष का राजकुमार सोया हुआ था। एक भील ने अवसर देखकर धन के लोभ में उस राजकुमार को उठा लिया। जंगल में जाकर उसके सब आभूषण ले लिए और उस राजकुमार को अपने बेटों के साथ पालने लगा। राजकुमार भील के बच्चों के साथ खाते-पीते और खेलते-खेलते उन जैसा ही हो गया। जब राजकुमार युवावस्था में आया तो वह भी भील लोगों जैसा व्यवहार और काम करने लगा अर्थात् हिंसा, चोरी, पाप, जीवों की हत्या करने लगा और अपने को भील ही समझने लगा। एक दिन वह घूमते-घामते, शिकार करते-करते घोर जंगल में पहुँच गया। रास्ते में उसे पानी की बहुत प्यास लगी। पानी की खोज में इधर-उधर जाँच की तो उसे एक महात्मा की कुटिया नजर आयी। तुरन्त ही कुटिया में जाकर उसने उन महात्मा को प्रणाम किया एवं प्रार्थना कीः “महाराज ! मुझे बहुत प्यास लगी है। मेहरबानी करके मुझे पानी पिलाइए।” पहले वे महात्मा जब उस राजकुमार के राज्य में जाते थे तब उन्होंने उस राजकुमार को अच्छी तरह देखा था। अतः राजकुमार को देखते ही वे उसे पहचान गये कि यह तो खोया हुआ राजकुमार है। महात्मा ने उसे बैठाया और कहाः “मैं तुझे पानी तो पिलाऊँगा, परन्तु तू पहले मुझे जवाब दे कि तू कौन है ?” लड़के ने जवाब दियाः “मैं भील हूँ।” महात्मा ने कहाः “तू भील नही है परन्तु राजकुमार है। मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूँ। तू भील लोगों के साथ बड़ा होकर भील लोगों जैसे काम करके अपने को भील समझने लगा है। तू अपने आपको पहचान कि तू कौन है? अपने वास्तविक स्वरूप को याद कर। जब तुझे तेरी सच्ची पहचान होगी तब तू भील के जीवन को छोड़कर राजमहल में जाकर राज्य-सुख भोगेगा।” राजकुमार ने महात्मा के वचन सुनकर अपना बचपन याद किया तो उसे अपने माँ-बाप, राज्य, राजदरबार, सेवक, वगैरह याद आ गये और तुरन्त ही स्मरण हुआ कि “मैं भील नहीं, मैं निःसंदेह राजकुमार हूँ। अब तक अज्ञानता में व्यर्थ ही अपने को भील समझकर दीन-हीन होकर भील का तुच्छ जीवन जीता था।” महात्मा ने तुरन्त राजा को सन्देश भेजा कि आपका खोया हुआ राजकुमार मिल गया है। राजा ने तुरन्त ही राजकुमार के वस्त्र, आभूषण, घोड़े, रथ वगैरह भेजे। फिर राजा के आदमियों के साथ राजकुमार राजमहल में गया। वहाँ राजपद पाकर आनन्द से रहने लगा। इस दृष्टांत का तात्पर्य यह है कि इस जीवरूप राजकुमार को देहाध्यास अर्थात् भ्रान्ति के कारण काम, क्रोध, लोभ वगैरह भीलों ने अपने वश में करके संसाररूपी घोर वन में ले जाकर उसके दैवी सम्पदा के सदगुणरूपी आभूषणों को उतारकर काम, क्रोध आदि भील विकारों ने अपने जैसा ही बना दिया है। यह जीव अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर भ्रान्ति से अपने को भील मानकर अनेक प्रकार के कुकर्म कर रहा है। अज्ञानता के कारण यह समझ रहा है कि ‘मैं कर्त्ता हूँ…. मैं भोक्ता हूँ…. मैं पुण्यात्मा हूँ…. मैं पापी हूँ….. मैं दुःखी हूँ….’ इस प्रकार अज्ञानी जीव अपने को कर्त्ता-भोक्ता, सुखी-दुःखी मानकर संसाररूपी जंगल में भटक रहा है। जब वह किसी पुण्यों के प्रताप से किन्ही आत्मवेत्ता सदगुरु की शरण में जाता है तब सदगुरु उसे ज्ञान का उपदेश देते हैं कि ‘तू देह नहीं है… तू अज्ञानी नहीं है…. तू जाति-वर्णवाला नहीं है…. तू कर्त्ता-भोक्ता नहीं है…. तू पाप-पुण्य के संबंधवाला नहीं है। तू शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंदस्वरूप, चिदघनस्वरूप को भूलकर इस अवस्था में आया है। जब तू अपने वास्तविक स्वरूप को जानेगा तभी सुखी होगा और सच्ची शान्ति पायेगा।’ सदगुरु के ऐसे उपदेश से वह जीव देहाध्यास की भ्रान्ति को हटाकर अपने साक्षीस्वरूप को, अभिन्न एकरूप ब्रह्म की अद्वैत निष्ठा को प्राप्त करके सुखसागर में, ब्रह्म में निमग्न हो जाता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ