‘महाभारत’ में एक प्रसंग आता है कि महातपस्वी देवशर्मा ऋषि कीअत्यंत सुंदर पत्नी रूचि पर इंद्र मोहित था। अत :ऋषिवर अपनी पत्नी की यत्नपूर्वक रक्षा किया करते थे। एक दिन ऋषि ने यज्ञ करने का विचार किया।उन्होंने इंद्र के माया जाल से अपनी पत्नी को बचाने के लिए जितेन्द्रिय, विश्वासपात्र शिष्य को बुलाकर कहा :"वत्स मैं यज्ञ करने जा रहा हूँ।" मायावी इंद्र किसी रूप में आ सकता है। अत : सावधान होकर अपनी गुरुमाता की रक्षा करना “गुरूजी ने विपुल को इंद्र के माया जाल के बारे में भी भलीभाँति बताया और यज्ञ करने चले गये।" विपुल के लिए यह कठिन परीक्षा थी क्योंकि आश्रम के दरवाजे बंद करके या अन्य किसी भी प्रयास से इंद्र को रोकना असम्भव था। परन्तु गुरुदेव के श्रीचरणों में जिसकी अनन्य श्रद्धा हो उसके लिए संसार का कोई भी कार्य असम्भव नही हो सकता। विपुल थोडा शांत हुआ। उसे अंत प्रेरणा हुई कि ‘’ योगबल से गुरुमाता के शरीर में प्रविष्ट होकर ही उनकी सुरक्षा अच्छी तरह से हो सकती है।’ जैसे कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल कि बूँद उससे निर्लिप्त रहती है, उसी प्रकार विपुल भी निर्दोष भाव से गुरुमाता के भीतर योगबल से प्रवेश कर गया। इंद्र को, देवशर्मा यज्ञ कर रहे है इस बात का पता चला तो वह दिव्य रूप बनाकर आश्रम में आया। वहाँ उसने विपुल का निश्चेष्ट शरीर देखा और रूचि को अकेला पाकर उसे अपनी और ज्यों आकर्षित करना चाहा ,त्यों भीतर विपुल ने गुरुमाता कि इन्द्रियों को योगबल से बाँध लिया और वह मूर्ति की तरह एक ही जगह खड़ी रही। रूचि की ऐसी मूर्तिमंत स्थिति देखकर इंद्र को आश्चर्य हुआ कि बार-बार प्रयास करने पर भी वह वैसे ही मूक, जड़ रूप में खड़ी रही। इंद्र ने दिव्य दृष्टी से देखा तो मालूम हुआ कि रूचि के भीतर विद्यमान विपुल ही सारी चेष्टाओ पर नियंत्रण कर रहा है। इंद्र शर्मिंदा हुआ और महा तेजस्वी विपुल के शाप के भय से थर थर काँपने लगा। विपुल वापस अपने शरीर में प्रविष्ट हुआ और बोला “इंद्र! गुरुमाता मेरे दुवारा पूर्ण सुरक्षित है। तू जैसा आया है, उसी तरह लौट जा। मेरे गुरुदेव परमज्ञानी और समर्थ महापुरुष है। कहीं ऐसा न हो कि तुझे उनके ब्रह्म तेज से पीड़ित होकर पुत्रोँ और मंत्रियों सहित काल के जाल में जाना पड़े। यदि तू नहीं लौटा तो में अभी अपने तेज से तुझे जलाकर भस्म कर दूँगा। इंद्र अति लज्जित हो के चला गया। रूचि ने अपने सतीत्व की रक्षा प्राप्त कर गुरुपुत्र विपुल को भावविभोर होकर आशीष दिया। देवशर्मा यज्ञ पूर्ण करके लौटे तो अपने शिष्य विपुल के शील एंव गुरुसेवा में तत्परता को देख बहुत प्रसन्न हुए और उसे वरदान माँगने को कहा। विपुल ने मस्तक झुकाकर कहा: गुरुदेव यह कार्य आपकी ही सत्ता–सामर्थ्य और कृपा से हुआ है। बस, आपकी कृपा से मेरी धर्म में निरंतर स्थिति बनी रहे क्योंकि जहाँ धर्म है, वहीं सच्ची उन्नति है। गुरूजी ने ‘तथास्तु’ कहकर विपुल को कृतार्थ कर दिया। गुरुनिष्ठा व गुरुआज्ञा –पालन शिष्य का सर्वस्व है। समर्थ सद्गुरु जब आज्ञा देते हैं तो उसे पूरा करने का सामर्थ्य भी देते हैं। शिष्य जब गुरु आज्ञा पालन में दृढ़ता से लग जाता है तो गुरुकृपा से उसे सुतीक्ष्ण सन्मति प्राप्त होती है, जिससे लोकदृष्टि से असम्भव दिखने वाले कार्य भी सहज में ही उसके द्वारा सम्पन्न हो जाते है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ