अपने दोषों को खोजो। जो अपने दोष देख सकता है, वह कभी-न-कभी उन दोषों को दूर करने के लिए भी प्रयत्नशील होगा ही। ऐसे मनुष्य की उन्नति निश्चित है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जिनके जीवन में दिव्य विचार नहीं है, दिव्य चिंतन नहीं है वह चिंता की खाई में गिरता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जब तक निश्चिंतस्वरूप परब्रह्म परमात्मा की उपासना नहीं की, जब तक परमात्मा का चिन्तन करके परमात्मामय नहीं हुए तब तक तुम्हारे रूपये तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते, तुम्हारे मित्र तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते, चँवर डुलानेवाली रानियाँ और दासियाँ तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकतीं, तुम्हारे वजीर और सचिव तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। परम सुरक्षित तो तुम्हारी आत्मा है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो व्यक्ति जितना ज्यादा चिंतित, भयभीत और असुरक्षित महसूस करता है, वह उतना ही ज्यादा शोर मचाता है। जो जितना निश्चिंत, निर्भय और निर्द्वंद्व होता है, वह उतना ही शांत रहता है।गुरु भक्ति इंसान को शांत कर देती है, क्योंकि यह भक्त के चारों और ईश्वरीय सुरक्षा - कवच बना देती है जो हर पल उसकी रक्षा करता है। इसलिए विपरीत से विपरीत और कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी भक्त विचलित नहीं होता, क्योंकि उसे विश्वास होता है कि कोई भी उसका अपकार या अहित नहीं कर सकता। वह गुरु पर आश्रित होकर निश्चिंत और निर्भय हो जाता है। उसके अंदर एक ही भाव रहता है - जब सदगुरु जी अपने साथ है , तो डरने की क्या बात है! " ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सफल वे ही होते हैं जो सदैव नतमस्तक एवं प्रसन्नमुख रहते हैं। चिन्तातुर-शोकातुर लोगों की उन्नति नहीं हो सकती। प्रत्येक कार्य को हिम्मत व शांति से करो। फिर देखो कि : 'यह कार्य शरीर मन और बुद्धि से हुआ। मैं उन सबको सत्ता देनेवाला चैतन्यस्वरूप हूँ। ' ॐ... ॐ... का पावन गान करो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बाहर की सब संपत्ति पाकर भी आदमी वह सुख, वह चैन, वह शांति, वह कल्याण नहीं पा सकता, जो शील से पा सकता है। प्राणिमात्र में परमात्मा को निहारने का अभ्यास करके शुद्ध अन्तःकरण का निर्माण करना यह शील है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ वासना से परतन्त्रता का जन्म होता है और आत्म विचार से स्वतन्त्रता का। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुकूलता और प्रतिकूलता ये सुख-दुःख के सर्जक हैं। अनुकूलता को हमने सुख माना और प्रतिकूलता को हमने दुःख माना। मन जब विषय-विकारों में लगेगा तब कभी अनुकूलता मिलेगी, कभी प्रतिकूलता मिलेगी। हमेशा प्रतिकूलता नहीं मिलेगी और चाहने पर भी सर्वत्र अनुकूलता नहीं मिलेगी। मन कभी सुख की तो कभी दुःख की थप्पड़ें खाते-खाते क्षीण होता जाएगा। मन का सामर्थ्य, एकाग्रता की क्षमता नष्ट होती जाएगी। इसलिए अनुकूलता या प्रतिकूलता का जो सुख-दुःख है उसको पकड़ो नहीं, उसको देखो। अनुकूलता से जो सुख मिला उसे मिला हुआ ही मानो। मिला हुआ मानोगे तो उसमें आसक्ति नहीं होगी क्योंकि जो मिली हुई चीज है वह अपनी नहीं है, परिस्थितियों की है। मिली हुई चीज सदा नहीं रहेगी लेकिन मन को देखने वाला सदा रहता है। मिली हुई घटना, मिली हुई वस्तु, मिला हुआ पदार्थ सदा नहीं रहता। लेकिन 'मिला-बिछुड़ा' जिससे महसूस होता है उस मन को देखने वाला सदा रहता है। 'मन को देखने वाला मैं कौन हूँ ?' उसकी अगर खोज करो तो अपने आपको पा लोगे.... मुक्ति का द्वार खुल जायेगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ प्रतिकूलता से भय मत करो। सदा शांत और निर्भय रहो। भयानक दृश्य (द्वैत) केवल स्वप्नमात्र है, डरो मत। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ हजारों मित्रों ने तुमको छोड़ दिया, लाखों कुटुम्बियों ने तुमको छोड़ दिया, करोड़ों-करोड़ों शरीरों ने तुमको छोड़ दिया, अरबों-अरबों कर्मों ने तुमको छोड़ दिया लेकिन तुम्हारा आत्मदेव तुमको कभी नहीं छोड़ता। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ साधनों का उपयोग करना यह स्वाधीनता है। साधनों से अभिभूत हो जाना, साधनों के गुलाम हो जाना यह पराधीनता है। क्रोध आ गया तो अशांत हो गये, लोभ आ गया तो हम लोभी हो गये, काम आ गया तो हम कामी हो गये, मोह आया तो हम मोही हो गये। विकार हमारा उपयोग कर लेता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का स्वतन्त्र ढंग से उपयोग करना चाहिए। जैसे गुलाब का फूल है। उसको सूँघा, अच्छा लगा। ठीक है, उसकी सुगन्ध का उपयोग किया। अगर फूल की सुगन्ध में आसक्ति हुई तो हम बँध गये। अपने चित्त में किसी भी विकार का आकर्षण नहीं होना चाहिए। विकारों का उपयोग करके स्वयं को और दूसरों को निर्विकार नारायण में पहुँचाने का प्रयत्न करना चाहिए, न कि विकारों में फँस मरना चाहिए। कूँआ बनाया है तो शीतल पानी के लिए, न कि उसमें डूब मरने के लिए। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो दूसरों का दुःख नहीं हरता, उसका अपना दुःख नहीं मिटता और जो दूसरों के दुःख हरने में लग जाता है, उसका अपना दुःख टिकता नहीं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ज्ञान की चिन्गारी को फूँकते रहना। ज्योति जगाते रहना। प्रकाश बढ़ाते रहना। ज्ञानमृत के आचमन को दरिया के रूप में बदलते रहना। सूरज की किरण को सूरज की खबर तक ले जाना। सदगुरूओं के प्रसाद को सत्य की प्राप्ति तक पचाते रहना। बड़ी कीमती करूणा-कृपा परमात्मा की है। सहज में मिली हुई इस दिव्य चीज का कहीं अनादर न कर बैठना। बिना प्रयास के मिली हुई मूल्यवान चीज का कहीं गल्ती से अपव्यय न कर बैठना। बिना श्रम के पाये हुए हीरों का मूल्य कहीं कंकड़ों से न कर बैठना। जिसके लिए हम रात-रात भर जगे थे, घर बार छोड़कर गुरूओं के द्वारा पर भागे थे वह चीज आपको सहज में मिल रही है। इसका अनादर मत कर देना। इसकी कीमत कहीं छोटी मत कर देना। गुरूओं के प्रसाद को बढ़ाते रहना, सँभालते रहना। 'हाहा... हीही' में कहीं इस अमृत को बिखेर मत देना। दुनियाँ के चार पैसों की लालच में इस आध्यात्मिक कोहीनूर को कहीं बेच मत देना। सारा विश्व दाँव पर लग जाय फिर भी यह आध्यात्मिक साधना का हीरा तुम्हारा अनमोल रत्न है। सारी पृथ्वी भी इसका बदला नहीं चुका सकती है। वह परमात्मा का धन तुम्हारे हृदय में प्रविष्ट होता रहे। इस आत्म-खजाने का तुम ख्याल रखना। इसकी बड़ी सम्हाल रखना। यह ईश्वरीय अमानत तुम्हें दिल की झोली में दी जा रही है। उसे लौटाओ तो अधिक करके लौटाना। यह ऐसा खजाना है कि जितना दिया जा रहा है उससे अनन्त गुना लौटाने पर भी तुम्हारे पास रत्तीभर कम न होगा। ऐसी अनूठी यह अमानत है। आध्यात्मिक संस्कारों के बीज अदभुत ढंग से फूट निकलते हैं और अदभुत ढंग से विस्तार को पाते हैं। - पूज्य संतश्री आशारामजी बापू। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ