छ: दुर्गुणों का निकास, लाए जीवन में सर्वागीण विकास। महात्मा विदुरजी राजा धृतराष्ट्र से कहते हैं : षड दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता। निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता॥ ‘ऐश्वर्य या उन्नति चाहनेवाले व्यक्तियों को नींद, तन्द्रा (ऊँघना), भय, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता इन छ: दुर्गणों को त्याग देना चाहिए।’ (महाभारत, उद्योग पर्व:३७.७८) अतिनिद्रा : असमय तथा अधिक शयन करने से आरोग्य व आयुष्य का ह्रास होता है। अधिक नींद करनेवालों में उत्साह तथा दक्षता की कमी पायी जाती है लेकिन ब्राम्हमुहूर्त में उठकर वायुसेवन करनेवालों की स्मरणशक्ति बढती है, दिनभर उत्साह बना रहता है। तामसी आहार (लहसुन,प्याज तथा बासी, तीखे-चरपरे व तले हुए पदार्थ आदि) का त्याग करने तथा आसन-प्राणायम करने से अतिनिद्रा का नाश होता है। तन्द्रा : तन्द्रा अर्थात ऊँघना, झोंके खाना। तन्द्रा दो कारणों से होती है – एक तो रात्रि की नींद पूरी न हुई हो; दूसरा, तमस हो। नींद भलीप्रकार पूरी हो सके इसलिए रात्रि ९ से सुबह ३ – ४ बजे के बीच की आवश्यकतानुसार नींद पर्याप्त होती है। इस समय ली हुई नींद से शरीर की आधी तकलीफें तो बिना दवा के ही ठीक हो जाती हैं। अर्धरोगहरि निद्रा.... दिन में सोने से कई रोग बिन बुलाये आ जाते हैं। तमस को जीतने के लिए मिताहार व प्राणायाम करने चाहिए। भय : भयभीत व्यक्ति की बनी हुई बात भी बिगड़ जाती हैं। सामर्थ्य होते हुए भी वह उसका उपयोग नहीं कर पाता। इसलिए निर्भय बनना चाहिए। प्रतिदिन पूज्य बापूजी के सत्संग का श्रवण, ॐकर का गुंजन व गर्जना तथा ‘निर्भय नाद’ व ‘जीवन रसायन’ पुस्तकों का पठन, मनन, अनुसरण करने से निर्भयता, निश्चिंतता आ जाती है। निर्भयता की अनोखी कुंजी देते हुए पूज्य बापूजी बताते हैं : “जब डर लगे तो अपने शुद्ध ‘मैं’ की ओर भाग जाओ। हो-होकर क्या होगा ? मैं निर्भीक हूँ। ॐ ... ॐ ... ॐ .... मैं अमर आत्मा हूँ। हरि ॐ ... ॐ.... ॐ.... ‘ ऐसा चिंतन करों तो भय भाग जायेगा।” वैसे तो डर पतन का कारण है लेकिन गुरु, भगवान, सत्शास्त्र की अवज्ञा का डर व सामाजिक नियमों के उल्लंघन का डर संसार से पार लगा देता है। रज्जबजी कहते हैं : हरि डर गुरु डर जगत डर, डर करनी में सार। रज्जब डरिया सो उबरिया, गाफिल खायी मार॥ क्रोध : एक महीने तक जप-तप करने से चित्त की जो योग्यता बनती है, प्रो.गेटे कहते हैं कि ‘यदि एक घंटे तक क्रोध करनेवाले व्यक्ति के श्वास के विषैले कण एकत्र करके इंजेक्शन बनाया जाय तो उससे २० आदमी मर सकते हैं।” इसलिए वेद भगवान की बात माननी चाहिए : मा क्रुध:। ‘क्रोध मत करो।’ (अथर्ववेद :११.२.२०) लेकिन महर्षि दुर्वासा, विश्वामित्रजी, रमण महर्षि जैसे जीवन्मुक्त महापुरुषों की तरह भीतर से क्रोध के साक्षी बनकर, अनुशासन के लिए हितभरा क्रोध करने की शास्त्रों में मनाही नहीं है। चबा-चबाकर भोजन करने से क्रोध नियंत्रित होता है। क्रोध आये तो अपनी उँगलियों के नाख़ून हाथ की गद्दी पर दबें इस प्रकार मुट्ठियाँ बंद करें। आलस्य : उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै:। उद्धम से ही कार्य सिद्ध होते हैं, कल्पना के किलों से नहीं। आलस्य से बढकर मानव का दूसरा कोई शत्रु नहीं हैं। आलस्य से ही लापरवाही का रोग लग जाता है। हिम्मती, दृढ़निश्चियी नेपोलियन बोनापार्ट को भी अपने सेनापति ग्राउची के आलस्य के कारण वाँटर्लू के युद्ध में मुँह की खानी पड़ी। शुक्र ग्रह के लिए भेजे गये रॉकेट के प्रोग्राम में केवल एक चिन्ह (__) लिखने में हुई लापरवाही से अमेरिका को करोड़ों डॉलर्स का नुकसान सहना पड़ा था। दीर्घसूत्रता : किसी कार्य के लिए जरूरत से अधिक समय लगाने की आदत दीर्घसूत्रता खलती है। इसे दूर करने के लिए प्रात:काल उठकर निर्णय कर लें कि दिन में अमुक कार्य इतने समय में पूरा करेंगे। फिर उसी समयावधि में कार्य पूरा करने की कोशिश करें। एक कार्य को निर्धारित समय में पूरा करते हैं तो दुसरे कार्य को वैसे ही पूरा करते हैं तो दुसरे कार्य को वैसे ही पूरा करने का मनोबल प्राप्त होता है। इस प्रकार दैनंदिनी में कर्यनियोजन करके उन्हें पूरा करने का अभ्यास करने से दीर्घसूत्रता का दोष चला जायेगा। उपरोक्त छ: दोष जिसके जीवन से चले गये, वह उन्नति के शिखर तक पहुँचकर ही रहता हैं। - लोककल्याण सेतु – अप्रैल २०१४ से ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ