श्रद्धा मन का विषय है और मन चंचल है। मनुष्य जब सत्त्वगुण में होता है, तब श्रद्धा पुष्ट होती है। सत्त्वगुण बढ़ता है सात्त्विक आहार-विहार से, सात्त्विक वातावरण में रहने से एवं सत्संग सुनने से। मनुष्य जब रजो-तमोगुणी जीवन जीता है, तो मति नीचे के केन्द्रों में, हलके केन्द्रो में पहुँच जाती है । मति जब नीचे चली जाती है, तब लगता है कि झूठ बोलने में, कपट करने में सार है, कोर्ट कचहरी जाना चाहिए… आदि-आदि। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ व्यर्थ के भोगों से बचने के लिए परोपकार करो और व्यर्थ चिन्तन से दूर रहने के लिए ब्रह्मचिन्तन करो। व्यर्थ के भोगों और व्यर्थ चिन्तन से बचे तो ब्रह्मचिन्तन करना नहीं पड़ेगा, वह स्वतः ही होने लगेगा। आगे चलकर ब्रह्मचिन्तन पूर्णावस्था में पहुँचकर स्वयं भी पूरा हो जायेगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बीते हुए का शोक और भविष्य की चिंता क्यों करते हो? हे प्रिय ! वर्तमान में साक्षी, तटस्थ और प्रसन्नात्मा होकर जियो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ साधक का लक्ष्य परमात्मा है और संसारी का लक्ष्य तुच्छ भोग है। संसारी की धारा चिन्ता के तरफ जा रही है और साधक की धारा चिन्तन के तरफ जा रही है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मिले हुए अवसर का लाभ उठा लो। वृत्तियों को जगत से हटाकर जगदीश्वर में लगाने की, परमात्मा में लगाने की युक्ति जान लो। अपने आप में बैठना सीख लो। सोचो कि तुम ताकत के तूफान हो। तुम वह चश्मा हो जहाँ से तमाम नदियों को जल मिलता है, तमाम वृत्तियों को चेतना मिलती है। ईश्वर के मार्ग में जब कदम रख ही लिया तो फिर झिझकना क्यों ? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ज्ञान के कठिनमार्ग पर चलते वक्त आपके सामने जब भारी कष्ट एवं दुख आयें तब आप उसे सुख समझो क्योंकि इस मार्ग में कष्ट एवं दुख ही नित्यानंद प्राप्त करने में निमित्त बनते है। अतः उन कष्टों, दुखों और आघातों से किसी भी प्रकार साहसहीन मत बनो, निराश मत बनो। सदैव आगे बढ़ते रहो। जब तक अपने सत्यस्वरूप को यथार्थ रूप से न जान लो, तब तक रुको नहीं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ असली रस तो परमात्मा का है वह रस मिल गया तो ऐसी कौन-सी चीज है जो ज्ञानी को संसार में आकर्षित करे? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ परमात्मा हृदय में ही विराजमान है। लेकिन अहंकार बर्फ की सतह की तरह आवरण बनकर खड़ा है। इस आवरण का भंग होते ही पता चलता है कि मैं और परमात्मा कभी दो न थे, कभी अलग न थे। वेदान्त सुनकर यदि जप, तप, पाठ, पूजा, कीर्तन, ध्यान को व्यर्थ मानते हो और लोभ, क्रोध, राग, द्वेष, मोहादि विकारों को व्यर्थ मानकर निर्विकार नहीं बनते हो तो सावधान हो जाओ। तुम एक भयंकर आत्मवंचना में फँसे हो। तुम्हारे उस तथाकथित ब्रह्मज्ञान से तुम्हारा क्षुद्र अहं ही पुष्ट होकर मजबूत बनेगा। आप किसी जीवित आत्मज्ञानी संत के पास जायें तो यह आशा मत रखना कि वे आपके अहंकार को पोषण देंगे। वे तो आपके अहंकार पर ही कुठाराघात करेंगे। क्योंकि आपके और परमात्मा के बीच यह अहंकार ही तो बाधा है। अपने सदगुरु की कृपा से ध्यान में उतरकर अपने झूठे अहंकार को मिटा दो तो उसकी जगह पर ईश्वर आ बैठेगा। आ बैठेगा क्या, वहाँ ईश्वर था ही। तुम्हारा अहंकार मिटा तो वह प्रगट हो गया। फिर तुम्हें न मन्दिर जाने की आवश्यकता, न मस्जिद जाने की, न गुरुद्वारा जाने की और न ही चर्च जाने की आवश्यकता, क्योंकि जिसके लिए तुम वहाँ जाते थे वह तुम्हारे भीतर ही प्रकट हो गया। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ किसी भी तरह समय बिताने के लिये मज़दूर की भांति कार्य मत करो। आनंद के लिये, उपयोगी कसरत समझकर, सुख, क्रीड़ा या मनोरंजक खेल समझकर एक कुलीन राजकुमार की भांति काम करो। दबे हुए, कुचले हुए दिल से कभी कोई काम हाथ में मत लो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मन को एकाग्र करने के लिए संत वचन सुनने जैसा और कोई सुगम, श्रेष्ठ एवं पवित्र साधन नहीं है । अपने आप मन को एकाग्र करने में बहुत मेहनत पड़ती है परंतु जब संत आत्मा-परमात्मा को छूकर बोलते हैं, तब उनकी वाणी सुनते सुनते मन अनायास ही सात्विक, शुद्ध, एकाग्र होने लगता है, ज्ञानसंपन्न एवं प्रसन्न होने लगता है और परमात्मा में लगने लगता है । इसीलिए सत्संग की बड़ी भारी महिमा गायी गयी है । ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ वस्तु सदा एक जैसी नहीं है लेकिन तुम सदा एक जैसे हो, ये समझ स्वीकार कर लो। आँख से मिलकर किसी को देखा सुंदरी है, सुंदरा है, अच्छा व्यक्ति है, बुरा व्यक्ति है। लेकिन ये मन बुद्धि के खेल हैं अच्छाई-बुराई जो अच्छे लगते हैं कभी बुरे हो जाते हैं, जो बुरे लगते हैं वो कभी अच्छे लगने लगते हैं। तो ये सब बदलता है मैं अबदल आत्मा हूँ, इस ज्ञान को पकड़ लो। बहुत ऊँची चीज़ है, बहुत ऊँची। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जैसे बीज की साधना वृक्ष होने के सिवाय और कुछ नहीं, उसी प्रकार जीव की साधना आत्मस्वरूप को जानने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ भगवान को पदार्थ अर्पण करना, सुवर्ण के बर्तनों में भगवान को भोग लगाना, अच्छे वस्त्रालंकार से भगवान की सेवा करना यह सब के बस की बात नहीं है। लेकिन अन्तर्यामी भगवान को प्यार करना सब के बस की बात है। धनवान शायद धन से भगवान की थोड़ी-बहुत सेवा कर सकता है लेकिन निर्धन भी भगवान को प्रेम से प्रसन्न कर सकता है। धनवानों का धन शायद भगवान तक न भी पहुँचे लेकिन प्रेमियों का प्रेम तो परमात्मा तक तुरन्त पहुँच जाता है। अपने हृदय-मंदिर में बैठे हुए अन्तरात्मारूपी परमात्मा को प्यार करते जाओ। इसी समय परमात्मा तुम्हारे प्रेमप्रसाद को ग्रहण करते जायेंगे और तुम्हारा रोम-रोम पवित्र होता जायगा। कल की चिन्ता छोड़ दो। बीती हुई कल्पनाओं को, बीती हुई घटनाओं को स्वप्न समझो। आने वाली घटना भी स्वप्न है। वर्त्तमान भी स्वप्न है। एक अन्तर्यामी अपना है। उसी को प्रेम करते जाओ और अहंकार को डुबाते जाओ उस परमात्मा की शान्ति में। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ज्ञानी का स्वनिर्मित विनोद होता है। कौन ज्ञानी, किस विनोद से, कैसे, किसका कल्याण कर दे, उसकी कोई मापतौल हम नहीं निकाल सकते हैं। शाप देकर भी कल्याण, प्यार देकर भी कल्याण, वस्तु देकर भी कल्याण, वस्तु लेकर भी कल्याण.... ऐसे होते हैं ज्ञानवान ! ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ भय, शोक, चिन्ता को जरा भी स्थान नहीं। सदैव तुम्हारे चित्त में परमात्मा की शक्ति मौजूद है। अपना चित्त प्रसन्न रखो। फिर तुमसे पवित्र कार्य अपने आप होने लगेंगे। अपने चित्त को परमात्मा के साथ जोड़ा करो। फिर तुम जो भी करोगे वह परमात्मा की पूजा हो जायेगी। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो प्रेम परमात्मा के नाते करना चाहिए वह प्रेम अगर मोह के नाते करते हो तो बदले में दुःख मिलता है, यह प्रकृति का नियम है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ निराशा के क्षणों में अपने मन में हिम्मत और दृढ़ता का संचार करते हुए अपने आपसे कहो कि “मेरा जन्म परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने के लिए हुआ है, पराजित होने के लिए नहीं । मैं इश्वर का, चैतन्य का सनातन अंश हूँ । जीवन में सदैव सफलता व प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए ही मेरा जन्म हुआ है, असफलता या पराजय के लिए नहीं। मैं अपने मन में दीनता हीनता और पलायनवादिता के विचार कभी नहीं आने दूँगा । किसी भी मूल्य पर मैं निराशा के हाथों अपनी शक्तियों का नाश नहीं होने दूँगा।” दु:खाकार वृत्ति से दु:ख बनता है। वृत्ति बदलने की कला का उपयोग करके दु:खाकार वृत्ति को काट देना चाहिए। आज से ही निश्चय कर लो कि “आत्म साक्षात्कार के मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़ता रहूँगा। नकारात्मक या फरियादात्मक विचार करके दु:ख को बढ़ाऊँगा नहीं, अपितु सुख दु:ख से परे आनंदस्वरुप आत्मा का चिन्तन करुँगा।” ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बीता हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। जीवन का एक एक क्षण आत्मोपलब्धि, भगवत्प्राप्ति, मुक्ति के साधनों में लगाओ । हमे जो इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि प्राप्त है, जो सुविधा, अनुकूलता प्राप्त है उसका उपयोग वासना-विलास का परित्याग कर भगवान् से प्रेम करने में करो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तुम हीन नही हो। तुम सर्व हो ; पूज्य भगवान् हो। तुम हीन नही हो, तुम निर्बल नही हो, सर्वशक्तिमान हो। भगवान का अनन्त बल तुम्हारी सहायता के लिए प्रस्तुत है। तुम विचार करो और हीनता को, मिथ्या संस्कारों को मरकर महान बन जाओ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ