दण्डवत प्रणाम का रहस्य। जीवन अहंकार को सजाने के लिए नहीं परमात्मा से प्रीति करने के लिए है। धन का अहंकार, सत्ता का अहंकार, सौंदर्य का अहंकार, बुद्धिमत्ता का अहंकार निरहंकार नारायण साथ में होते हुए भी उससे मिलने नहीं देता। इसलिए तुम इस अहंकार को मिटाने के लिए धर्म ने मंदिर में जाने और भगवान को दण्डवत प्रणाम करने का विधान किया है। मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि आदमी खड़ा रहता है तो उसका अहंकार भी खड़ा रहता है और मन में दबी हुई बातें बताने में वह सिकुड़ता है, पर जब उसको टेबल पर सुलाते हैं और फिर पूछते हैं तो वह कुछ-कुछ बताने लगता है। एक जापानी युवक घूमता-घामता तिब्बत के एक लामा(बौद्ध आचार्य) के आश्रम में पहुँचा। उस आश्रम में लामा और उनके कई शिष्य रहते थे। युवक ने लामा से कहाः "मैं आपका नाम सुनकर यहाँ आया हूँ और कुछ सीखना चाहता हूँ, कुछ पाना चाहता हूँ।" लामा ने कहाः "इस आश्रम में सीखने के लिए कुछ नहीं है, पाने के लिए कुछ नहीं है, यह आश्रम तो केवल खाने के लिए है अर्थात् सीखा हुआ भूल जाने के लिए है। अपनी जो कुछ कल्पनाएँ हैं, मान्यताएँ हैं उन्हें खो डालना है। यहाँ कोई रिवाज नहीं है, कोई नियम नहीं है सिवाय एक कड़े नियम के कि प्रत्येक आश्रमवासी अधिष्ठाता को अर्थात् सदगुरु को, जब-जब वे दिख जायें तब-तब दण्डवत प्रणाम करे। बैठे हुए दिख जायें तो दण्डवत करे, घूमते हुए दिख जायें तो दण्डवत... दिन में 10 बार, 20 बार, 50 बार, 100 बार, कभी इससे भी अधिक बार ऐसा अवसर आ सकता है।" उस युवक ने लिखा हैः हम जापानी लोग किसी के आगे जल्दी झुकते नहीं हैं, अतः दिन में 10-20 बार दण्डवत करना मेरे लिए बड़ी कठिन बात थी। फिर भी प्रयोग के लिए मैं वहाँ रहने लगा। पहले 5-10 बार तो बड़ी मेहनत पड़ी, बड़ी तकलीफ हुई किंतु और लोग करते थे तो मैं भी उनके साथ करने लग गया। 2-4 दिन बीते, फिर वह पकड़ और हठ बिखरता गया तथा स्वाभाविक ही दण्डवत होने लगाष फिर कभी गुरुदेव न निकलते तो उनके द्वार पर ही दण्डवत कर लिया करता था। द्वार पर न जाऊ तो उनकी कुटिया के आसपास के वृक्षों को ही दण्डवत कर लिया करता था। फिर तो मुझे दण्डवत करने में इतना मजा आने लगा कि वृक्ष हो चाहे कुटिया, चाहे कुछ भी न हो, कर दिया दण्डवत्.... बस, आनंद-आनंद बरसने लगा। मेरा समर्पण भाव बढ़ता गया और एक दिन गुरुदेव की कृपा मुझ पर छलकी। तब गुरुदेव ने मुझसे कहाः "अब तेरा काम हो गया है। मैंने अपने दण्डवत् कराने के लिए या अपने अहंकार को पुष्ट करने के लिए यह नियम नहीं रखा। प्रणाम करने वाले को तो मजा आता है लेकिन स्वीकार करने वाला बड़े खतरों से गुजरता है। यदि वह सावधान न रहे तो उसमें देहाभिमान आ सकता है और उसके लिए खतरा पैदा हो सकता है। यहाँ का दण्डवत प्रणाम का नियम व्यक्तिगत धारणाओं, मान्यताओं और अध्यास को बिखेरने की एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में तू उत्तीर्ण हो गया है। अब मेरी हाजिरी के बिना भी तू अपने-आपमें परितृप्त रह सकता है। मेरे आश्रम के पेड़ पौधों के बिना भी तू कुछ हद तक आनंदित रह सकता है।" यह उपासना की छोटी सी प्रक्रिया मात्र है। तत्त्वज्ञान के बिना पूर्ण ज्ञान का कोई पता ही नहीं चलता। जैसे हनुमान जी को श्रीसीतारामजी के सत्संग से पूर्णता का पता चला। वसिष्ठजी के उपदेश से श्रीरामचन्द्रजीअपने पूर्णता के स्वभाव में प्रतिष्ठित रहते थे। केवल दण्डवत प्रणाम तो ठीक है, अहंकार छोड़ने के लिए सुंदर साधन है दण्डवत, लेकिन ऐसा ब्रह्मज्ञान पाने का उद्देश्य बनाओ। महिलाएँ दण्डवत प्रणाम करेंगी तो उनको हानि होगी। महिलाएँ दण्डवत प्रणाम न करें, ऐसा शास्त्र का आदेश है। उनकी छाती धरती से लगने से उनकी हानि होती है(अर्थिंग आदि अनेक कारणों से)। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ