स्वामी, सर्वेसर्वा, प्रियतम सदा के लिए तो किसी के रहते नहीं हैं। किसी का भी संबंध सदा के लिए नहीं रहता। कैसा भी प्रियतम हो, कैसी भी प्रिया हो लेकिन कभी न कभी, कहीं न कहीं झगड़ा, विरोध, विनाश अवश्य हो आता ही है। जो एक दूसरे के हाड़-मांस-चाम को देखकर शादी कर लेते हैं उनमें झगड़ा होना बिल्कुल नियत है। यह जरूरी भी है। प्रकृति का यह विधान है कि जो प्रेम परमात्मा से करना चाहे वह प्रेम गन्दगी भरे नाक से किया तो तुम्हें धोखा मिलना ही चाहिए। जो प्यार ईश्वर से करना चाहिए वह अगर चमड़े-रक्त-नसनाड़ियों से, लार और थूक से भरे शरीर से किया, शरीर के भीतर बैठे परमात्मा की ओर निगाह नहीं गई तो उन शरीरों से दुःख, दर्द, बेचैनी, मुसीबत, अशांति, कलह मिलना ही चाहिए। यह प्रकृति का अकाट्य नियम है। जो भरोसा परमेश्वर पर करना चाहिए वह अगर बाहर की सत्ता पर किया तो गये काम से। जो भरोसा ईश्वर पर करना चाहिए वह भरोसा अगर किसी पद पर, प्रतिष्ठा पर, किसी वस्तु या व्यक्ति पर किया तो व्यक्ति, वस्तु, पद-प्रतिष्ठा खींच लिये जायेंगे। ईश्वर के सिवाय का जो भी सहारा अंतःकरण में घुस गया है उस सहारे में विघ्न आता ही है। विघ्न इसलिए आते हैं कि मौत के समय ये सहारे छूट जाएँ उससे पहले शाश्वत सहारे को पाकर अमर हो जाओ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ निःस्वार्थता से आदमी की अंदर की आँखें खुलती हैं जबकि स्वार्थ से आदमी की विवेक की आँख मुँद जाती है, वह अंधा हो जाता है। रजोगुणी या तमोगुणी आदमी का विवेक क्षीण हो जाता है और सत्त्वगुणी का विवेक, वैराग्य व मोक्ष का प्रसाद अपने-आप बढ़ने लगता है। आदमी जितना निःस्वार्थ कार्य करता है उतना ही उसके संपर्क में आनेवालों का हित होता है और जितना स्वार्थी होता उतना ही अपनी ओर अपने कुटुंबियों की बरबादी करता है। कोई पिता निःस्वार्थ भाव से संतों की सेवा करता है और यदि संत उच्च कोटि के होते हैं और शिष्य की सेवा स्वीकार कर लेते हैं तो फिर उसके पुत्र-पौत्र सभी को भगवान की भक्ति का सुफल सुलभ हो जाता है। भक्ति का फल प्राप्त कर लेना हँसी का खेल नहीं है। भगवान के पास एक योगी पहुँचा। उसने कहाः भगवान ! मुझे भक्ति दो।" भगवानः "मैं तुम्हे ऋद्धि-सिद्धि दे दूँ। तुम चाहो तो तुम्हें पृथ्वी के कुछ हिस्से का राज्य ही सौंप दूँ मगर मुझसे भक्ति मत माँगो।" "आप सब देने को तैयार हो गये और अपनी भक्ति नहीं देते हो, आखिर ऐसा क्यों?" "भक्ति देने के बाद मुझे भक्त के पीछे-पीछे घूमना पड़ता है।" निष्काम कर्म करनेवाले व्यक्तियों के कर्म भगवान या संत स्वीकार कर लेते हैं तो उसके बदले में उसके कुल को भक्ति मिलती है। जिसके कुल को भक्ति मिलती है उसकी बराबरी धनवान भी नहीं कर सकता। सत्तावाला भला उसकी क्या बराबरी करेगा? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ आनन्द परमात्मा का स्वरूप है। चारों तरफ बाहर-भीतर आनन्द-ही-आनन्द भरा हुआ है। सारे संसार में आनन्द छाया हुआ है। यदि ऐसा दिखलाई न दे तो वाणी से केवल कहते रहो और मन से मानते रहो। जल में गोता खा जाने, डूब जाने के समान निरन्तर आनन्द ही में डूबे रहो, आनन्द में गोता लगाते रहो। रात-दिन आनन्द में मग्न रहो। किसी की मृत्यु हो जाये, घर में आग लग जाय अथवा और भी कोई अनिष्ट कार्य हो जाये, तो भी आनन्द-ही-आनन्द... केवल आनन्द-ही-आनन्द.... इस प्रकार अभ्यास करने से सम्पूर्ण दुःख एवं क्लेश नष्ट हो जाते हैं। वाणी से उच्चारण करो तो केवल आनन्द ही का, मन से मनन करो तो केवल आनन्द ही का, बुद्धि से विचार करो तो केवल आनन्द ही का। यदि ऐसी प्रतीति न हो तो कल्पित रूप से ही आनन्द का अनुभव करो। इसका फल भी बहुत अच्छा होता है। ऐसा करते-करते आगे चलकर नित्य आनन्द की प्राप्ति हो जाती है। इस साधना को सब कर सकते हैं। हम लोगों को ही यह निश्चय कर लेना चाहिए कि हम सब एक आनन्द ही हैं। ऐसा निश्चय कर लेने से आनन्द-ही-आनन्द हो जायेगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जिसको जन्म-मृत्यु के भय से पल्ला छुड़ाना हो उसे संतो के शरण में जाना चाहिए। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो सचमुच अपने दुःखों को मिटाना चाहे उसे संतों की सेवा प्राप्त कर लेनी चाहिए। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सत्संग की बड़ी महिमा है कि वह प्रतीति के संस्कारों की पोल खोल देता है और प्राप्ति के संस्कारों को जगा देता है। सत्संग तो भगवान शिव भी करते थे। श्री रामचन्द्रजी अगस्त्य ऋषि के आश्रम में सत्संग हेतु जाते थे। बाल्य काल में जब गुरु-आश्रम में रहते थे तब विद्याध्ययन के साथ-साथ सत्संग भी करते थे। धनुर्विद्या सीखते थे तब उससे भी समय बचाकर रामजी प्राप्ति में ठहरने वाले सत्संग की बातें सुनते थे। चौदह साल के वनवास के दौरान भी वे ऋषि-मुनियों के आश्रम में सत्संग हेतु जाया करते थे। वनवास से लौटते समय पुष्पक विमान से उतर कर भरद्वाज ऋषि के आश्रम में गये। अयोध्या में राजगद्दी सँभालने के बाद भी सत्संग बराबर जारी रहा। प्राप्ति तो आत्मज्ञान है, आत्मा-परमात्मा है यह प्रजा को समझाने के लिए। उनके दरबार में सत्संग हुआ करता था। राजा जनक के दरबार में सत्संग हुआ करता था। राजा अरबपति, राजा सव्यकृत के दरबार में भी सत्संग हुआ करता था। हम तो चाहते हैं कि आपके दिल में व्यवहार काल में भी सत्संग हुआ करे। एक घण्टा काम किया। फिर एक दो मिनट के लिए आ जाओ इन विचारों में किः 'अब तक जो कुछ किया, जो कुछ लिया, दिया, खाया, पिया, हँसे, रोये, जो कुछ हुआ सब सपना है.... केवल अन्तर्यामी राम अपना है। हरि ॐ तत्सत्.... और सब गपशप।' तुम्हारा बेड़ा पार हो जायेगा। तुम्हारी मीठी निगाहें जिन पर पड़ेंगी वे खुशहाल होने लगेंगे। ऐसे आत्मदेव को पा लो। कब तक इस संसार की भट्ठी में अपने आपको जलाते रहोगे, तपाते रहोगे ? कब तक चिन्ता के दौरे में घूमते रहोगे ? अब बहुत हो गया। व्यवहार करते-करते आधा घण्टा बीते, एक घण्टा बीते तो आ जाओ अपने आत्मदेव में। ज्यों-ज्यों मोह कम होगा त्यों-त्यों प्रतीति का सदुपयोग ठीक होगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ विषय सुख की लोलुपता आत्मसुख प्रकट नहीं होने देती। सुख की लालच और दुःख के भय ने अन्तःकरण को मलिन कर दिया। तीव्र विवेक-वैराग्य हो, अन्तःकरण के साथ का तादात्म्य तोड़ने का सामर्थ्य हो तो अपने नित्य, मुक्त, शुद्ध, बुद्ध, व्यापक चैतन्य स्वरूप का बोध हो जाय। वास्तव में हम बोध स्वरूप हैं लेकिन शरीर और अन्तःकरण के साथ जुड़े हैं। उस भूल को मिटाने के लिए, सुख की लालच को मिटाने के लिए, दुःखियों के दुःख से हृदय हराभरा होना चाहिए। जो योग में आरूढ़ होना चाहता है उसे निष्काम कर्म करना चाहिए। निष्काम कर्म करने पर फिर नितान्त एकान्त की आवश्यकता है। आरुरुक्षार्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।। 'योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्व संकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है।' (भगवद् गीताः 6.3) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ