रक्षा-कवच धारण करने एवं आत्मबल जगाने की क्या विधि है?   
                  जब आप सत्संग में होते है, शुद्ध वातावरण में होते है, तब लगता है कि  कामविकार भोगने में वास्तव में कोई सार नहीं है। धन इकठ्ठा कर-करके  ज्यादा सँभालने की चिंता ही तो मिलती है, आखिर कुछ नहीं। अपनी संतान के  लिए जो लोग छल - कपट करते है, आखिर में वाही (संतान) उन पर थूकती है, यह  भी लोगों का अनुभव है। जब आप बाहर जाते हो, बाहर के कामी - क्रोधी लोगों  के आभामंडल में जाते हो तो आपकी पुरानी आदत के अनुसार आपको भी काम-क्रोध  सताने लगते है। बाहर जाने पर बाह्य हलकी तरंगो से हमारा पतन हो जाता है  और हम पछताते हैं। हम पुन: सावधान होते हैं, किंतु फिर से झटका लग जाता  हैं। अच्छे-अच्छे लोगों की यह हालत है। एक-दो की नहीं, लगभग सभीकी यह  हालत है।
                   यदि हम सावधान नही रहें, आप पैर छुएँ और हम छुआते रहें, आप देते  और हम लेते रहें तो हमारी भी ऐसी दुर्दशा हो जायेगी कि हम आपको मुँह  दिखाने के काबिल न रहेंगे। एक बार ऐसा हुआ था। जब हम अमेरिका गये थे तब  मेरे मन में हुआ कि 'ये जो डॉलर आते हैं आरती में, दक्षिणा में, वे हमको  अपने पास रखने चाहिए; आयोजन-समिति के हवाले नहीं करने चाहिए। काम में  आयेंगे। थोड़ी ही देर में भगवान् की कृपा हुई, गुरुदेव का सहयोग रहा ....  तुरंत मैंने अपने भक्त से कहा कि 'मुझे वापस भारत जाना है , टिकट करवा  लो।'  "बापूजी ! कार्यकर्मों का क्या होगा ?"  "जितने हो गए बहुत हैं। जो दो-चार दिये हैं उन्हें पूरा करके भारत जाना  है। जल्दी से टिकट करवाओ।"  "क्या हमसे कोई गलती हो गयी है ?"  "नहीं, नहीं। आप लोगों से कोई गलती नहीं हुई हैं।"  किंतु आप लोगों के एयर कंडीशंड वातावरण में रहकर और आप लोगों के  श्वासोच्छ्वास में रहकर हमारा मन कहता है कि 'हमें डॉलर रखने चाहिए।उनको यह लम्बी बात नहीं कही, किंतु मैंने टिकट बनवा ली और फिसलते-फिसलते  बाच गया। भगवान् साक्षी हैं, उसके बाद में अमेरिका कभी नहीं गया। बहुत  आमंत्रण आये, बहुत बार वहाँ के लोगों ने बुलाया लेकिन मैं नहीं गया।"  भगवान रामजी के गुरुदेव कहते हैं कि 'हे रामजी ! वासना के आवेग में बहने  की दीर्घकाल की आदत दीर्घकालीन शुभ अभ्यास के बिना नहीं मिटती।
                  जब रामजी के ज़माने में भी लोग फिसलते थे और दीर्घकालीन अभ्यास की  आवश्यकता थी तो अभी तो कलियुग है। अभी तो ज्यादा सावधानी की जरुरत हैं।  इस सावधानी के लिए मुझे शास्त्रों में से एक रक्षा -कवच मिल गया है जो  मुझे अच्छा लगा। मैंने उसका प्रयोग किया। बड़ा सरल है।  आरंभ में आप यह प्रयोग थोड़े दिन लगातार करें। फिर तो आप याद करेंगे और  रक्षा - कवच आपके इर्दगिर्द बन जायेगा। फिर वासना की तरंगे आपके अंदर  नहीं घुसेंगी।  आँख ने कुछ देखा, मन उसके लिए लालायित हुआ, बुद्धि ने निर्णय लिया कि ऐसा  करना है। इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय मन को खींच लेती है। मन बुद्धि से  सम्मत्ति ले लेता है और आप उसमें गरक हो जाते है। वासना के इन आवेगों से  स्वयं को बचने में यदि आप सहयोग नहीं देते तो भगवान और गुरु भी आपको  बचाने में सफल नही हो सकते। यदि विद्यार्थी साथ नहीं देता है तो शिक्षक  और प्राचार्य मिलकर भी विद्यार्थी को पदवीधारी नहीं बना सकते। अत:  पुरुषार्थ तो आपको ही करना पड़ेगा। भगवान की, शास्त्रों की, ऋषियों एवं  सदगुरु की कृपा अनावृत हैं, जैसे सूर्य की किरणे, बरसात सामान्यत: मिलते  ही है। किंतु किसान स्वयं मेहनत नहीं करे तो बरसात और सूर्य क्या करेंगेआप अपनी रक्षा कीजिये।   
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रक्षा -कवच धारण करने एवं आत्मबल जगाने की विधि :- 
                  पद्मासन या सिद्धासन में बैठे। मेरुदंड सीधा हो। आँखें आधी खुली -आधी बंद  रखे। '' या अपने इष्टमंत्र अथवा गुरुमंत्र का जप करते हुए दृढ़ भावना  करें कि 'मेरे इष्ट की कृपा का शक्तिशाली प्रवाह मेरे अंदर प्रवेश कर रहा  है और मेरे चारों और सुदर्शन चक्र - सा एक इन्द्रधनुषी घेरा बनाकर घूम  रहा है। वह अपने दिव्य तेज से मेरी रक्षा कर रहा है। इन्द्रधनुषी प्रकाश  घना होता जा रहा है। दुर्भावनारुपी अंधकार विलीन हो गया है। सात्त्विक  प्रकाश -ही-प्रकाश छाया है। सूक्ष्म आसुरी शक्तियों से मेरी रक्षा करने  के लिए वह रश्निल चक्र सक्रिय है। मैं पूर्णत: निश्चिंत हूँ।श्वास जितनी देर भीतर रोक सकें, रोंके। मन-ही-मन उक्त भावना को दोहराये।  मानसिक चित्र बना लें। अब धीरे-धीरे ॐ ....' का दीर्घ उच्चारण करते हुए श्वास बाहर निकाले और भावना करें कि  'मेरे सारे दोष, विकार भी बाहर निकल गए है। मन-बुद्धि शुद्ध हो गये हैं।  श्वास के खाली होने के बाद तुरंत श्वास न लें। यथाशक्ति बिना श्वास रहें  और भीतर-ही-भीतर ' हरि ॐ ... हरि ॐ ....' का मानसिक जप करें। दस-पंद्रह  मिनट ऐसे प्राणायाम सहित उच्च स्वर से 'ॐ ...' की ध्वनि करके शांत हो  जायें। सब प्रयास छोड़ दें। वृत्तियों को आकाश की ओर फैलने दें। आकाश के  अन्दर पृथ्वी है। पृथ्वी पर अनेक देश, अनेक समुद्र एवं अनेक लोग हैं।  उनमें से एक आपका शरीर आसन पर बैठा हुआ हैं। इस पुरे दृश्य को आप मानसिक  आँख से, भावना से देखते रहें। आप शरीर नहीं हो बल्कि अनेक शरीर, देशसागर, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र एवं पुरे ब्रम्हांड के  दृष्टा हो, साक्षी हो, इस साक्षीभाव में जाग जायें। थोड़ी देर के बाद फिर  से प्राणायाम सहित ॐ ....' का जाप करें और शांत होकर अपने विचारों को देखते रहें।  इस अवस्था में दृढ़ निश्चय करें कि 'मैं जैसा बनना चाहता हूँ वैसा होकर ही  रहूँगा।' विषयसुख, सत्ता, धन-दौलत इत्यादि कि इच्छा न करें क्योंकि  आत्मबलरूपी हाथी के पदचिन्ह में अन्य सभीके पदचिन्ह समाविष्ट हो ही  जायेंगे। आत्मानंदरूपी सूर्य के उदय होने पर मिट्टी के तेल के दीये के  प्रकाशरूपी क्षुद्र सुखाभास कि गुलामी कौन करें किसी भी भावना को साकार करने के लिए ह्रदय को कुरेद डाले ऐसी निश्चयात्मक  बलिष्ठ वृत्ति होनी आवश्यक है।   

                  अंत:करण के गहरे -से -गहरे प्रदेश में चोट करे ऐसा श्वास भरके निश्चयबल  का आवाहन करें। सीना तानकर खड़े हो जाये अपने मन कि दीन-हीन, दु:खद  मान्यतावों को कुचल डालने के लिए।  सदा स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ आपकी शक्ति भी बिखरती  रहती है। अत: तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधनाकाल में आत्मचिंतन में  लगाये और व्यवहारकाल में जो कार्य करते हो उसमें लागायें। हरेक कार्य  आवेश रहित व दत्तचित्त होकर करें। सदैव विचारशील एवं प्रसन्न रहें।  जीवमात्र को अपना स्वरुप समझे। सबसे स्नेह करें। दिल को व्यापक रखें।  खंडनात्मक वृत्ति का सर्वथा त्याग करें।  आत्मनिष्ठा में जगे हुए महापुरुषों के सत्संग तथा सत्साहित्य से अपने  जीवन को मुखरित हो जायेगी। दुष्प्रभावों के अदृश्य परमाणुओं के भजन के  लिए ये अचूक साथी है। जैसे लोहे को लोहा काटता है, वैसे ही विचार को  विचार काटता है। आपके इन दो साथियों - आत्मबल एवं रक्षा -कवच के सामर्थ्य  पर विश्वास कीजिये। ये सतत आपकी रक्षा एवं पुष्टि करेंगे।  - -ऋषिप्रसाद - जून २००४ से।