‘संस्कृत’की महत्ता जानिए! ‘संस्कृतईश्वरकीही निर्माण की हुई भाषा है । यह संसारकी सर्व भाषाओंकी जननी है । संस्कृतका महत्त्व आज पश्चिमी लोगोंनेभी जाना है । पश्चिमी संगणकशास्त्रज्ञ ऐसी भाषाके शोधमें थे, जिसका संगणकीय प्रणालीमें उपयोग कर, उसका संसारकी किसीभी आठ भाषाओंमे उसी क्षण रूपांतर हो जाए । उन्हें संस्कृत’ ही ऐसी भाषा नजर आई । संस्कृत ही संसारकी सर्वोत्तम भाषा है, जो संगणकीय प्रणालीके लिए उपयुक्त है । वेद, उपनिषद, गीता आदि मूल धर्मग्रंथ संस्कृतमें हैं । कालीदास, भवभूति इत्यादि महाकवियोंकी प्रतिभा संस्कृतमें फलीफूली । संस्कृतमें चैतन्य है । संस्कृतमें लिखे हुए शब्दोंका अर्थ न समझे, तो भी उसके चैतन्य एवं सात्विकताका लाभ होता है । संस्कृतकी वाणी, मन एवं बुद्धको शुद्ध करनेवाली भाषा है । अपनी प्राचीन संस्कृत भाषाकी महत्ता जानिए ! विद्यार्थियो, हिंदु संस्कृतिकी ‘संस्कृत भाषा’ रूपीय चैतन्यमय विरासत टिकाए रखनेके लिए संस्कृत सीखिए, उसी प्रकार पाठशालाओंमें ‘संस्कृत’ विषय सिखानेका आग्रह कीजिए !’ संस्कृत का उद्भव हमारी वैदिक परंपरा ने स्वयं में विश्व संरचना से लेकर साद्यंत(संपूर्ण) इतिहास जतन कर रखा है । पहले सर्वत्र शून्य था; तत्पश्चात् आकाश में ‘ॐ’ ध्वनि का निनाद हुआ एवं शेषशायी श्रीविष्णु प्रकट हुए । उनकी नाभि से ब्रह्मदेव प्रकट हुए; तदुपरांत प्रजापति, मातृका, धन्वंतरी, गंधर्व, विश्वकर्मा इत्यादि प्रकट हुए । उसी समय ईश्वरने ऐसे वेद उपलब्ध किए जिसमें समस्त विश्व का ज्ञान भंडार समाया हुआ है । वेद संस्कृत भाषा में है । संस्कृत ‘देववाणी’ है । जिस प्रकार वेद अपौरुषेय यानी ईश्वरप्रणीत है, उसी प्रकार संस्कृत भाषा भी ईश्वर की रचना है । उसकी रचना और लिपि ईश्वर द्वारा रचित है, अत: उस लिपि को भी ‘देवनागरी’ कहते है । संस्कृत भाषा के सारे संबोधन भी देवभाषा में हैं ऐसा स्पष्ट है, उदा. ‘गीर्वाणभारती’ उसमें का ‘गीर्वाण’ शब्द का अर्थ है ‘देव’। इस सृष्टि की संरचना ईश्वरीय संकल्प से हुई है । मनुष्य की रचना के पश्चात् मनुष्य को आवश्यकतानुसार सब कुछ उस ईश्वरने ही दिया । इतना ही नहीं, मानव को कालानुसार आगे जिस वस्तु की भी आवश्यकता होगी वह देने की व्यवस्था भी उस परम पिता परमेश्वर ने की है । सृष्टि की संरचना से पूर्व ही ईश्वर ने मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति के लिए उपयोगी तथा चैतन्य से ओतप्रोत (भरी हुई) ऐसी एक भाषा तैयार की... जिसका नाम है ‘संस्कृत’! आद्यमानव मनु तथा शतरूपा को ब्रह्मदेव ने संस्कृत सिखाई। ब्रह्मदेव ने अपने मानसपुत्र अत्री, वसिष्ठ, गौतमादि ऋषियोंको भी वेद एवं संस्कृत भाषा सिखाई। त्रेतायुग में जीव की शब्दातीत ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता क्षीण हो गई ; शब्दों के माध्यम से जीव को ज्ञान प्राप्त होकर मोक्ष प्राप्ति सुलभता से हो, इसके लिए दत्तगुरु ने संस्कृत भाषा की पुनर्रचना की। सत्य, त्रेता और द्वापर इन तीनों युगोंमें संस्कृत ही विश्वभाषा थी। इसीलिए इस भाषा को ‘विश्ववाणी’ भी कहते हैं। कौरव - पांडवों के समय तक संस्कृत ही विश्व की एकमेव भाषा थी! ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ