आवश्यकता...संस्कृत सीखनेकी! 
 केंब्रिज विद्यापीठके अपने शांत कक्षमें बैठे प्राध्यापक अभ्यासमें लीन थे। तभी अचानक एक त्रस्त सैनिक आया और सीधे-सीधे उनपर आरोप लगाने लगा कि जर्मनी विरुद्ध लडने वाले उसके समान अनेक सैनिक युद्ध से निर्माण होने वाली निराशा से दु:खी हैं और आपको उसकी कोई भी जानकारी कैसे नहीं ? प्राध्यापक ने उस युवक सैनिक से शांति से पूछा, ‘किस लिए लड रहे हो तुम ?’ त्वरित उत्तर मिला, ‘देश के संरक्षणहेतु।’ प्राध्यापकने आगे पूछा- ‘स्वयं का रक्त बहाने जितना महत्वपूर्ण क्या है उसमें ?’ ‘देशकी भूमि और उसके नागरिक ।’ प्राध्यापक ने और गहराई में जाकर पूछा तब उत्तर मिला, ‘ये नहीं । मैं अपनी संस्कृति का रक्षण करने के लिए लडता हूँ।’ प्राध्यापक पहले की तरह शांति से बोले, ‘इस संस्कृति में मेरा भी योगदान है !’ सैनिक स्तब्ध हो गया । प्राध्यापक के सामने आदर से नतमस्तक हो गया और देश की संस्कृति का जतन करने हेतु प्राणों का विचार किए बिना ही लडने की शपथ ली । यह प्रसंग दूसरे महायुद्ध के अंतिम चरण में जब अंग्रजी सैनिक अंतिम यश प्राप्त हेतु अपना योगदान दे रहे थे तब का है। इससे यह पता चलता है कि पश्चिमी लोगों को भी अपनी संस्कृति का कितना अभिमान है। हम भारतीयों के मनमें भी अति प्राचीन भारत देशकी सांस्कृतिक परंपरा के लिए नितांत आदर है। हमारी संस्कृति का जतन करने हेतु संस्कृत सीखना बहुत आवश्यक है । सुप्रीम कोर्ट ने भी यह मान्य किया है कि संस्कृति की रक्षा करने हेतु संस्कृत सीखना निश्चित रूप से आवश्यक है । हमारी संस्कृति जिस तत्वज्ञानपर आधारित है वह समझने के लिए संस्कृत सीखे बिना और कोई पर्याय नहीं है । संस्कृत कमीशन रिपोर्ट के आधार पर कोर्ट ने कहा कि इस देश के नागरि कों में कितनी ही भिन्नता हो परंतु अपनी सांस्कृतिक परंपराआ के अभिमान पर सभी एक मत हैं और यही तो संस्कृत्की परंपरा है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ