तप से ही जगत को धारण किया जाता है, तप से ही जगत चलता है और तप से ही जगत के आकर्षण से छूटकर जगदीश्वर को प्राप्त किया जाता है। अतः हमारे जीवन में तप का स्थान होना चाहिए, तप के लिए नियत समय रखना चाहिए। बाईस घण्टे भले व्यवहार एवं अन्य प्रवृत्ति के लिए रखो लेकिन ज्यादा नहीं तो कम से कम दो घण्टे तप करो, ध्यान करो। छः घण्टे नींद करो, आठ घण्टे नौकरी – धन्धा करो, फिर भी दस घण्टे बचते हैं। उन दस घण्टों में सत्कर्म और तप आदि करो, सेवा करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो लेकिन कम से कम दो घंटे तप करो, ध्यान करो। पानी को गर्म किया जाता है तो वह वाष्प बन जाता है और उसमें 1300 गुनी शक्ति आ जाती है। ऐसे ही तप से, ध्यान से मति सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम बन गई तो परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी। ऐसी शक्तिशाली मति आत्म-सूर्य के आगे आये हुए बादलों को हटा देगी। बादल फटते हीः डीठो मुख शहनशाह जो हींयरें थ्योमकरार। लथा रोग शरीर जा मुझे सत्गुर जे दीदार।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तुम एक ऐसी चेतना हो कि तुम्हारी मौत होने पर भी तुम उस मौत के साक्षी हो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सारे जप, तप, सेवा, पूजा, यज्ञ, होम, हवन, दान, पुण्य ये सब चित्त को शुद्ध करते हैं, चित्त में पवित्र संस्कार भरते हैं। प्रतिदिन कुछ समय अवश्य निष्काम कर्म करना चाहिए। चित्त के कोष में कुछ आध्यात्मिकता की भरती हो। तिजोरी को भरने के लिए हम दिनरात दौड़ते हैं। जेब को भरने के लिए छटपटाते हैं लेकिन तिजोरी और जेब तो यहीं रह जायेंगे। हृदय की तिजोरी साथ में चलेगी। इस आध्यात्मिक कोष को भरने के लिए दिन भर में कुछ समय अवश्य निकालना चाहिए। संध्या-वन्दन, पूजा-प्रार्थना,ध्यान-जप, निष्काम कर्म इत्यादि के द्वारा चित्त का निर्माण कीजिये। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जीव को प्रेम करने की तो आदत है, वासना है। इस प्रेम को ऊर्ध्वमुखी बनाना है। देखने की वासना है तो ठाकुरजी को देखो। किसी का होने की वासना है तो भगवान के हो जाओ। 'मैं पत्नी का हूँ.... मैं पति की हूँ...' इसके स्थान पर 'मैं भगवान का हूँ.... भगवान मेरे हैं' यह भाव बना लो। जैसे गाड़ी का स्टीयरिंग व्हील घुमाने से गाड़ी की दिशा बदल जाती है ऐसे ही अपनी अहंता और ममता को, 'मैं' और 'मेरे' पने को बदलने से बहुत सारा बदल जाएगा। 'मैं घनश्याम हूँ..... मैं पत्नी का हूँ.... मैं संसारी हूँ..... मैं गृहस्थी हूँ.......' ऐसा भान रखने से उस प्रकार की वासना और जवाबदारी रहेगी। 'मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं......' यह अहंता बदलने से जीवन बदल जाएगा। हम स्वयं को आत्मा मानेंगे, परमात्मा का अंश मानेंगे तो अपने में आत्मा की अहंता करेंगे, देह की अहंता मिट जाएगी। देह की अहंता मिटते ही जाति की संकीर्णता मिट जाएगी। अपने मन की मान्यताओं की संकीर्णताएँ मिट जाएगी। 'मैं भगवान का हूँ.... भगवान मेरे हैं....।' भगवान सत् चित् आनन्दस्वरूप हैं तो सुख के लिए, आनन्द के लिए हमें इन्द्रियों की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी। इन्द्रियों का उपयोग करने की ताकत बढ़ जाएगी। इन्द्रियों की गुलामी के बजाय इन्द्रियों का उपयोग करोगे तो इन्द्रियों में जल्दी से बीमारी भी नहीं आयेगी। शरीर तंदुरूस्त रहेगा, मन-बुद्धि में लाचारी नहीं रहेगी। जब इन्द्रियों का सुख लेते हो तो बकरी बन जाते हो। सुख आत्मा का लो और उपयोग इन्द्रियों का करो। जीवन सिंह जैसा बन जाएगा, व्यवहार और परमार्थ सब ठीक हो जाएगा। ये सब बातें सत्संग के बिना समझ में भी नहीं आतीं, इन बातों में रूचि भी नहीं होती और इनके रहस्य हृदय में प्रकट भी नहीं होते। इसीलिए सत्संग की बड़ी महिमा है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सावधानी ही साधना है।दिन भर कार्य करते समय सावधानी से देखते रहो कि किसी भी हेतु से,किसी भी निमित्त से मन में अशुभ विचार,अशुभ संकल्प न आ जाए।अपने दोषों और दुर्गुणों पर,अपने मन में चलनेवाले पाप चिंतन की धरा पर कभी दया नही करनी चाहिए।अपने दोषों को क्षमा न करके प्रायश्चित के रूप में अपने आप को कुछ दंड अवश्य देना चाहिए। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सब दुःखों की निवृत्ति और परम सुख की प्राप्ति अगर कोई करना चाहे तो अपने जीवन में सत्त्वगुण की प्रधानता लाये। निर्भयता, दान, इन्द्रियदमन, संयम, सरलता आदि सदगुणों को पुष्ट करे। सदगुणों में प्रीति होगी तो दुर्गुण अपने आप निकल जायेंगे। सदगुणों में प्रीति नहीं है, इसलिए दुर्गुणों को हम पोसते हैं। थोड़ा जमा थोड़ा उधार.... थोड़ा जमा थोड़ा उधार... ऐसा हमारा खाता चलता रहता है। पामरों को, कपटियों को देखकर उनका अनुकरण करने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। भ्रष्टाचार करके भी धन इकट्ठा करने की चाह रखते हैं। अरे भैया ! वे लोग जो करते हैं वे भैंसा बन कर भोगेंगे, वृक्ष बनकर कुल्हाड़े के घाव सहेंगे, यह तो बाद में पता चलेगा। उनकी नकल क्यों कर रहे हो? जीवन में कोई भी परिस्थिति आये तो सोचो कि कबीर होते तो क्या करते? रामजी होते तो क्या करते? लखनलाला होते तो क्या करते? सीताजी होती तो क्या करती? गार्गी होती तो क्या करती? मदालसा होती तो क्या करती? शबरी भीलनी होती तो क्या करती? ऐसा सोचकर अपना जीवन दिव्य बनाना चाहिए। दिव्य जीवन बनाने के लिए दृढ़ संकल्प करना चाहिए। दृढ़ संकल्प के लिए सुबह जल्दी उठो। सूर्योदय से पहले स्नानादि करके थोड़े दिन ही अभ्यास करो, तुम्हारा अंतःकरण पावन होगा। सत्त्वगुण बढ़ेगा। एक गुण दूसरे गुणों को ले आता है। एक अवगुण दूसरे अवगुणों को ले आता है। एक पाप दूसरे पापों को ले आता है और एक पुण्य दूसरे पुण्यों को ले आता है। तुम जिसको सहारा दोगे वह बढ़ेगा। सदगुण को सहारा दोगे तो ज्ञान शोभा देगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बाहर कैसी भी घटना घटी, चाहे वह कितनी भी प्रतिकूल लगती हो, परन्तु तुम्हें उससे खिन्न होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि अन्ततोगत्वा होती वह तुम्हारे लाभ के लिए ही है। तुम यदि अपने आप में रहो, तो तुम्हें मिला हुआ शाप भी तुम्हारे लिए वरदान का काम करेगा। अर्जुन को ऊर्वशी ने वर्ष भर नपुंसक रहने का शाप दिया था, परन्तु वह भी अज्ञातवास के समय अर्जुन के लिए वरदान बन गया। प्रतिकूलता से भय मत करो। सदा शांत और निर्भय रहो। भयानक दृश्य (द्वैत) केवल स्वप्न मात्र है, डरो मत। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ हरेक पदार्थ पर से अपने मोह को हटा लो और एक सत्य पर एक तथ्य पर ईश्वरत्व पर समग्र ध्यान को केन्द्रित करो। शीघ्र ही आपको आत्मसाक्षात्कार होगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ