एक संत के पास शिष्य गया और बोला कि आप मेरे घर आकर भोजन करें। संत ने
कहा कि कल दोपहर को आऊंगा। शिष्य ने अगले दिन पकवान बनाए। दोपहर को एक
भिखारी आया और
बोला कि मुझे भूख लगी है। शिष्य ने उसे भगा दिया। फिर एक साधु आया और
खाना मांगा। शिष्य ने उसे भी खाना नहीं दिया। फिर एक कुत्ता आया, जिसे
शिष्य ने डंडा मारकर भगा दिया। शाम हो गई, शिष्य गुरु के पास जाकर बोला
कि आप नहीं आए। संत
ने कहा कि मैं तो तीन बार आया था। भिखारी, साधु व कुत्ते के वेश में, पर तूने भगा
दिया। संत बोले कि अगर तू यह चाहता है कि मैं इसी शरीर में आऊं, तो तू
मुझे नहीं, मेरे शरीर को पूजता है।
इसके लिए जरूरी है अद्वैत का भाव पक्का करना। अद्वैत में हम शरीरों को
नहीं, उन्हें धारण करने वाले परमात्मा को देखते हैं। आप कल्पना वाले
भगवान के दर्शन की बात कर रहे हैं तो वह कल्पना में ही दिखाई देगा। अगर
वास्तव में परमात्मा की बात कर रहे हैं तो वह हर ज़गह, हर रूप में दर्शन
दे ही रहे हैं, लेकिन द्वैत से भरी आंखें उन्हें देख नहीं पा रही हैं।
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